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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [409] करे और (भिक्षा के लिए) किसी भी प्रकार का संकेत करते हुए परम्परा में भी दस भिक्षु शीलों के पालन का विधान है। जैन कोई बात न बोले। यदि कुछ मिले तो अच्छा है और न मिले तो परम्परा के ज्येष्ठकल्प के समान बौद्ध परम्परा में भी दो प्रकार की भी ठीक है। इस प्रकार दोनों अवस्थाओं में अविचलित रहकर वापस दीक्षाओं का विधान है, जिन्हें श्रामणेर दीक्षा और उपसम्पदा कहा वन की ओर लौटे। गूंगे की तरह मौन हो, हाथ में पात्र लेकर वह गया है। श्रामणेर दीक्षा परीक्षास्वरूप होती है और उसमें दस भिक्षुमुनि थोडा दान मिलने पर उसकी अवहेलना न करे और न दाता शीलों की प्रतिज्ञा की जाती है। यह दीक्षा कोई भी भिक्षु दे सकता का तिरस्कार करें। 5 भिक्षु असमय में विचरण न करे, समय पर है। लेकिन उपसम्पदा देने के लिए पाँच अथवा दस भिक्षुओं के ही भिक्षा के लिए गाँव में पैठे। असमय में विचरण करनेवाले को भिक्षुसंघ का होना आवश्यक है। बौद्ध परम्परा में भी व्यक्ति की आसक्तियाँ लग जाती हैं, इसलिए ज्ञानी पुरुष असमय में विचरण संघ में वरिष्ठता एवं कनिष्ठता उसकी उपसम्पदा की तिथि से ही नहीं करते हैं।6 धम्मपद में कहा है कि जो भिक्षु वाणी में संयत मानी जाती है। प्रतिक्रमण कल्प के समान बौद्ध धर्म में प्रवारणा है, मितभाषी है तथा विनीत है वही धर्म और अर्थ को प्रकाशित की व्यवस्था है जिसमें प्रति पन्द्रहवें दिन भिक्षु-संघ एकत्र होकर करते है, उसका भाषण मधुर होता है। सुत्तनिपात में भी इसी प्रकार उक्त समयावधि में आचरित पापों का प्रायश्चित करता है। प्रवारणा 'अविवेकपूर्ण वचन नहीं बोलना चाहिए और विवेकपूर्ण वचन बोलना की विधि बहुत कुछ जैन प्रतिक्रमण से मिलती है। बौद्ध परम्परा चाहिए' - इसका निर्देश है। इस प्रकार बुद्ध ने चाहे 'समिति' शब्द का प्रयोग न किया में भी जैन परम्परा के मासकल्प के समान भिक्षुओं का चातुर्मासकाल के अतिरिक्त एक स्थान पर रुकना वर्जित माना गया है। बौद्ध परम्परा हो फिर भी उन्होंने जैन परम्परा के समान ही आवागमन, भाषा, भिक्षा भी भिक्षु जीवन में सतत भ्रमण को आवश्यक मानती है। उसके एवं वस्तुओं का आदान-प्रदान व मल-मूत्र विसर्जन आदि का विचार किया है। बुद्ध के उपर्युक्त वचन यह स्पष्ट कर देते है कि इस संबंध अनुसार भी सतत भ्रमण के द्वारा जन कल्याण और भिक्षु जीवन में उनका दृष्टिकोण जैन परम्परा के निकट है। में अनासक्त वृत्ति का निर्माण होता है। जैन परम्परा के पर्युषण कल्प बौद्ध परम्परा और गुप्ति : के समान बौद्ध परम्परा में भी चातुर्मास काल में एक स्थान पर रुककर बौद्ध परम्परा में मन, वचन और शरीर की गुप्तियों का विधान धर्म की विशेष आराधना को महत्त्व दिया गया है। इस प्रकार भिक्षु जीवन के उपर्युक्त विधानों के संदर्भ में जैन और बौद्ध परम्पराओं है। सुत्तनिपात में तो जैन परम्परा के समान ही 'गुप्ति' शब्द का में काफी निकटता है।25 प्रयोग किया गया है।18 बुद्धने भी श्रमण साधक को मन, वचन बौद्ध परम्परा में दस धर्म :और शरीर की क्रियाओं के नियमन का निर्देश किया है । बौद्ध परम्परा में मन, वचन और काया की तीन क्रियाओं के लिये जैनपरम्परा के जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा में भी क्षमादि दस धर्मो 'गुप्ति' शब्द के समानान्तर 'त्रिकर्म' शब्द का प्रयोग किया गया है। का वर्णन प्राप्त होता है, यथाअंगुत्तरनिकाय में बुद्धने तीन शुचि भावों एवं तीन प्रकार के मौन 1. क्षमा :- बौद्ध परम्परा में भी क्षमा का महत्व निर्विवाद के रुप में वस्तुतः जैन परम्परा की तीन गुप्तियों का ही विधान किया है। बौद्ध ग्रंथों में कहा है - क्षमा से उन्नति होती है।26 है। बुद्ध कहते हैं - भिक्षुओ ! ये तीन शुचि भाव हैं - शरीर की क्षमा से बढकर अन्य कुछ नहीं है। क्षमा ही परम तप है। वैर से नहीं, प्रेम से ही वैरशांत होता है। अपराधी शुचिता, वाणी की शुचिता, मन की शुचिता। भिक्षुओ ! मनुष्य प्राणी-हिंसा से विरत रहता है, चोरी से विरत रहता है, कामभोग को क्षमा नहीं करनेवाला मूर्ख है", वह महाद्वेषी वैर को संबंधी मिथ्याचार से विरत रहता है - यह शरीर की शुचिता है। 15. सुत्तनिपात 37/32-35 भिक्षुओ ! मनुष्य झूठ बोलने, चुगली करने और व्यर्थ बोलने से विरत 16. वही, 26/11 रहता है, इसे वाणी की शुचिता कहते है। भिक्षुओ! आदमी निर्लोभ, 17. धम्मपद 363 अक्रोधी तथा सम्यग्दृष्टिवाला होता है, यह मन की शुचिता है।" 18. सुत्तनिपात 4/3 वस्तुत: इस प्रकार बुद्ध भी श्रमण साधक के लिए मन, वचन और । 19. अंगुत्तरनिकाय, निकाय 3/118 शरीर की अप्रशस्त प्रवृत्तियों को रोकने का निर्देश करते हैं।20 20 वही, 3/20 बौद्ध परम्परा और कल्पविधान : 21. विनयपिटक, महावग्ग - 1/2/6 जैन श्वेताम्बर परम्परा मान्य आचेलक्य-कल्प का 'अल्प 22. विनयपिटक, चूलववग्ग - 10/1/2 वस्त्र धारण करना' - अर्थ बौद्ध परम्परा में भी मान्य है। बौद्ध भिक्ष 23. जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भागदीक्षित होने के समय अल्प और जीर्ण वस्त्रों में ही संतुष्ट रहने का 2 पृ. 365 नियम करता है। कृतिकर्म कल्प के संबंध में बौद्ध परम्परा में 24. बुद्धिज्म, पृ.77-78 भी दीक्षा-वय में ज्येष्ठ भिक्षु के आने पर उसके सम्मान में खडा 25. जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भागहोना तथा ज्येष्ठ भिक्षुओं का वंदन करना आवश्यक है। इतना ही 2 पृ. 366 26. अंगुत्तरनिकाय, निकाय 1/12 नहीं, बुद्ध ने दीक्षावृद्ध श्रमणी के लिए भी छोटे-बड़े सभी भिक्षुओं 27. संयुत्तनिकाय 10/12 को वंदन करने का विधान किया है। भिक्षुणी के आठ गुरु धर्मो 28. धम्मपद 184; बोधिचर्यावतार 6/2 में सबसे पहला नियम यही है। जिस प्रकार जैन परम्परा में व्रत 29. सुत्तपिटक; धम्मपद 1/5 कल्प के रुप में पाँच महाव्रतों का महाविधान है उसी प्रकार बौद्ध 30. संयुत्तनिकाय 1/11/24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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