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________________ [408]... पञ्चम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन | 4. बौद्ध परम्परा और जैनाचार बौद्ध धर्म यों ते एक पृथक् मार्ग है, किन्तु दार्शनिक समीक्षकों के अनुसार इसे श्रमणपरम्परा के अन्तर्गत माना गया है। वस्तुतः वैदिक धर्म की विसंगतियों और जैनधर्म के साधना मार्ग की कठोरता के कारण महात्मा बुद्ध ने एक मध्यम मार्ग प्रतिपादित किया। किन्तु इसमें न तो वेद के मूलभूत तत्त्वों को छोडा गया और न ही जैनधर्म की सत्यता की उपेक्षा की गयी। बौद्ध धर्म में भी समकालिक धर्मतत्त्वों को भी पूर्ववत् ही मान्यता दी गयी है, अन्तर केवल इतना है कि साधना मार्ग की कठोरता इसमें कम हो गयी है। आगे के अनुच्छेदों में अहिंसा आदि जैनमार्ग में स्वीकृत तत्त्वों की बौद्धधर्म में उपलब्ध स्थिति का दिग्दर्शन कराया जा रहा है। बौद्ध धर्म में अहिंसा का स्थान : बौद्धधर्म में प्रतिपादित दश शीलों में अहिंसा का स्थान प्रथम है। चतुःशतक में कहा है कि "तथागत ने संक्षेप में केवल 'अहिंसा' इन अक्षरों में धर्म का वर्णन किया है। भगवान् बुद्ध के अनुसार सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन करनेवाला ही आर्य कहा जाता है। अंगुत्तरनिकाय के अनुसार हिंसक व्यक्ति नारकीय जीवन का और अहिंसक व्यक्ति स्वर्गीय जीवन का सृजन करता है। बुद्धने सभी प्राणियों को आत्मतुल्य मानकर किसी का वध करने या करवाने का निषेध किया है। किन्तु यदि कोई जीव अपने आप मरा हुआ पडा है तो उसे भोजन में लेने में दोष नहीं लगतामांसाहार के विषय में बौद्धो की ऐसी मान्यता है। उन्होंने आगे कहा है कि जो व्यक्ति अहिंसामय संयमित जीवन यापन करता है, उसे अच्युत पद की प्राप्ति होती है। वहाँ पहुँचकर वह कभी दु:खी नहीं होता । बौद्ध मत में दश प्रकार के धर्मों में अहिंसा को प्रथम धर्म कहा है। इतना ही नहीं, अपितु जैन परम्परा के महाव्रतों के समान बौद्ध परम्परा में भी पाँच शीलों की प्रतिज्ञा कृत, कारित और अनुमोदन के रुप में अंगीकार की जाती है।' बौद्ध परंपरा एवं व्रतविधान : जैन परम्परा के पाँच महाव्रत / अणुव्रत की तरह ही बौद्ध परम्परा में पाँच सामान्य शीलो का वर्णन निम्नानुसार है(1) अहिंसा शील (प्राणातिपात विरमण) (2) अचौर्य शील (अदत्तादान विरमण) (3) ब्रह्मचर्य या स्वपत्नी संतोष (मैथुन विरमण/स्वदारा संतोष व्रत) (4) अमृषावाद शील (मृषावाद विरमण) (5) मद्यपान विरमण शील जैन परम्परा में गृहस्थ के पौषध व्रत की तरह बौद्ध परम्परा में 'उपोषथ' व्रत का वर्णन है। (1) रात्रिभोजन एवं विकालभोजन त्याग (2) माल्यगंधविरमण और (3) उच्चशय्या विरमण (काष्ठ, जमीन या सतरंजी पर लेटना) - ये तीन उपोषथ शील हैं। जैन परम्परा में वर्णित श्रावक के अतिथिसंविभाग व्रत की तरह बौद्ध परम्परामें 'भिक्षु संघ संविभाग' वर्णित है। यद्यपि बौद्ध परम्परा में गृहस्थ के लिए परिग्रह - परिमाण को जैनपरम्परा जितना अधिक महत्व नहीं दिया है, तथापि बुद्ध के निम्नांकित वचन परिग्रहमर्यादा का स्पष्ट संकेत करते हैं - "जो मनुष्य खेती, वास्तु (मकान), हिरण्य (स्वर्ण, चांदी), गो, अश्व, दास, बन्धु इत्यादि की कामना करते हैं उसे वासनाएँ दबाती हैं और बाधाएँ मर्दन करती हैं, तब वह पानी में टूटी नाव की तरह दुःख में पडता है।" जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा में भी गृहस्थ उपासक के लिए 1. शस्त्रास्त्र व्यापार 2. प्राणी व्यापार 3. मांस का व्यापार 4. मद्य का व्यापार और 5. विष का व्यापार - ये पाँच व्यापार वर्जित हैं। बौद्ध परम्परा और पाँच समितियाँ : बौद्ध परम्परा में यद्यपि 'समिति' शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है जिस अर्थ में जैनपरम्परा में व्यवहत है, फिर भी 'समिति' का जो आशय जैनपरम्परा में है वह बौद्धपरम्परा में भी पालन किया जाता है। संयुत्तनिकाय में बुद्ध कहते हैं, "भिक्षुओ, भिक्षु आने-जाने में सचेत रहता है, देखने-भालने में सचेत रहता है, समेटने-पसारने में सचेत रहता है; संघाटी, पात्र और चीवर धारण करने में सचेत रहता है, पाखाना-पेशाब करने में सचेत रहता है; जाते, खडे होते, बैठते, सोते, जागते, कहते, चुप रहते सचेत रहता है। भिक्षुओं इस तरह भिक्षु सम्प्रज्ञ होता है। मुनि की आवागमन की क्रिया के विषय में विनयपटक में उल्लेख है कि मुनि सावधानीपूर्वक मंथर गति से गमन करें। गमन करते समय वरिष्ठ भिक्षुओं के आगे न चले, चलते समय दृष्टि नीचे रखे तथा जोर-जोर से हँसता हुआ और बातचीत करता हुआ न चले । सुत्तनिपात में मुनि की भिक्षावृति के संबंध में बुद्ध के निर्देश उपलब्ध हैं। वे कहते हैं कि रात्रि के बीतने पर मुनि गाँव में पैठे। वहाँ न तो किसी का निमंत्रण स्वीकार करे न किसी के द्वारा गाँव से लाये गये भोजन को। चुपचाप भिक्षा 1. चतुःशतक 298 2. धम्मपद 270, 19/15 3. अंगुत्तरनिकाय 3/153 4. सुत्तनिपात 3/3/7/27; धम्मपद 10/1, 10/4 5 धम्मपद, कोषवग्गो 5 6. दरेक धर्मनी दृष्टिए अहिंसानो विचार, पृ.23 7. सुत्तनिपात्त 37/27 8. सुत्तनिपात्त 26/19-23 9. वही, 26/24-26 10. वही, 26/28 11. सुत्तनिपात-29/4-5 12. सुत्तनिपात 25/29; अंगुत्तरनिकाय, निपात 5, पृ. 401 13. संयुत्त निकाय 34/5/1/7 14. विनय पिटक 8/4/4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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