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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पञ्चम परिच्छेद... [411] 1. अनित्य भावना :- धम्मपद में अनित्य भावना का वर्णन इसलिए भिक्षु को सदैव इस संबंध में स्मृतिवान् (सावधान) करते कहा है - संसार के सब पदार्थ अनित्य हैं, इस तरह रहना चाहिए। जब बुद्धिमान् पुरुष जानता है, तब वह दुःख नहीं पाता 160 8. निर्जरा भावना :- बुद्ध ने कहा है कि जिनकी चेतना शरीर यही विशुद्धि का मार्ग है। संयुत्तनिकाय में भी कहा है - के प्रति जागरुक रहती है, जो अकरणीय आचरण नहीं करते भिक्षुओं ! चक्षु-श्रोत्र-ध्राण-जिह्वा-काय और मन (सब) अनित्य और निरन्तर सदाचरण करते हैं, ऐसे स्मृतिवान् और सचेत मनुष्यों हैं। जो अनित्य है वह दुःख हैं।61 के आस्रव नष्ट हो जाते हैं। एकत्व भावना :- धम्मपद में एकत्व भावना का वर्णन 9. धर्म भावना :- धम्मपद में कहा है कि धर्म के अमृतरस करते कहा है- अपने से किया हुआ, अपने से उत्पन्न हुआ, का पान करनेवाला सुख की नींद सोता है। चित्त प्रसन्न रहता पाप ही दुर्बुद्धि मनुष्य को विदीर्ण कर देता है, जैसे 'वज्र' है । पण्डित पुरुष आर्यो द्वारा प्रतिपादित धर्म मार्ग पर चलता पत्थर की मणि को काट देता है 162 अपने पापों का फल मनुष्य हुआ आनंदपूर्वक रहता है। मनुष्य सदाचार धर्म का पालन स्वयं भोगता है। पाप न करने पर वह स्वयं शुद्ध रहता है। करे, बुरा आचरण न करे, धर्म का आचरण करनेवाला इस प्रत्येक पुरुष का शुद्ध या अशुद्ध रहना स्वयं उस पर निर्भर लोक में और परलोक में सुखपूर्वक रहता है। है। कोई किसी दूसरे को शुद्ध नहीं कर सकता।63 10. बोधिदुर्लभ भावना :- धर्मबोध की दुर्लभता का वर्णन 3. अशुचि भावना :- धम्मपद में कहा है कि यह शरीर हड्डियों करते हुए बौद्ध धर्म में कहा गया है कि "मनुष्यत्व की प्राप्ति का घर है, जिसे मांस और रुधिर से लेपा गया है, जिसमें दुर्लभ है, मानव जन्म पाकर भी जीवित रहना दुर्लभ है, कितने बुढापा, मृत्यु, अभिमान और मोह निवास करते हैं।64 विशुद्धि तो अकाल में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। मनुष्य बनकर सद्धर्म मार्ग में भी कहा गया है कि "यदि इस शरीर के अंदर का का श्रवण दुर्लभ है और बुद्ध होकर उत्पन्न होना तो अत्यन्त भाग बाहर आ जाय तो अवश्य ही डण्डा लेकर कौवों और दुर्लभ है। कुत्तों को रोकना पडे।"65 मैत्र्यादि चार भावनाएँ :अशरण भावना :- धम्मपद में कहा है कि "पुत्र तथा बौद्ध परम्परा में मैत्री, प्रमोद (मुदिता), करुणा और उपेक्षा पशुओं में आसक्त मनवाले मनुष्य को लेकर मृत्यु इस तरह (माध्यस्थ) भावना का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। बुद्ध ने इन्हें चली जाती है, जैसे सोये हुए गाँव को महान जल-प्रवाह बहा 'ब्रह्मविहार' कहा है। ये चारों भावनाएँ चित्त की सर्वोत्कृष्ट और दिव्य ले जाता है। मृत्यु से पकडे हुए मनुष्य की रक्षा के लिए अवस्थाएँ हैं। चित्त-विशुद्धि का उत्तम साधन है। जो इनकी भावना न पुत्र, न पिता, न बन्धु आ सकते हैं। किसी संबंधी से करता है, वह सद्गति अथवा निर्वाण प्राप्त करता है। बौद्धों के अनुसार रक्षा नहीं हो सकती । इस तरह मृत्यु के वश में सबको जानकर मैत्री का राग, प्रमोद की सौमनस्यता (रति), करुणा का शोक, और सम्यग् अनुष्ठान करनेवाला बुद्धिमान् पुरुष शीघ्र ही निर्वाण के माध्यस्थ भावना की अज्ञानयुक्त उपेक्षा निकटतवर्ती शत्रु है तथा मैत्री मार्ग को स्वच्छ करें।66 अंगुत्तरनिकाय में भी कहा गया है कि का द्वेष, प्रमोद का अरति (अप्रीति), करुणा का विहिंसा और माध्यस्थ अल्प आयु जीवन को (खींचकर) ले जाती है। बुढापे द्वारा भावना के राग और द्वेष दूरवर्ती शत्रु है। इस प्रकार बौद्ध साहित्य (खींचकर) ले जाये जाने वाले के लिए कोई शरण स्थान नहीं में भी जैनागम वर्णित भावनाओं का सम्यग्वर्णन प्राप्त होता है। है। मृत्यु के इस भयभीत स्वरुप को देखकर मनुष्य को चाहिए बौद्ध परम्परा और परीषह :कि वह सुखदायक पुण्य कर्म करे। भगवान् बुद्धने भी भिक्षु जीवन में आनेवाले कष्टों को 5. संसार भावना :- बुद्धने संसार का वर्णन करते कहा है - समभावपूर्वक सहन करने का निर्देश दिया है। अंगुत्तरनिकाय में वे "जैसे मनुष्य पानी के बुलबुले को देखता है, और जैसे वह मृगमरिचिका को देखता है वैसे वह इस संसार को देखे । इस । 60. धम्मपद 277 प्रकार देखने वालों को यमराज नहीं देखता 168 यह हँसना कैसा 61. संयुत्तनिकाय 34/I/I/I और यह आनन्द कैसा, जब चारों तरफ बराबर आग लगी हुई 62. धम्मपद 161 63. वही 165 हो? अंधकार से घिरे हुए तुम लोग प्रकाश को क्यों नहीं खोजते 64. धम्मपद 148-150 हो ?69 संसार की दुःखमयता का यह चिन्तन ही बौद्ध दर्शन 65. विशुद्धिमग्ग 6/93 का प्रथम आर्य सत्य - 'सर्व दुःखम्' है। 66. धम्मपद 287-289 आस्त्रव भावना :- बुद्धने धम्मपद में कहा है कि "जो 67. अंगुत्तरनिकाय 3/51 कर्तव्य को बिना किये छोड़ देते हैं और अकर्तव्य करते हैं, 68. धम्मपद 170 69. वही, 146 ऐसे उद्धत तथा प्रमत लोगों के आस्रव बढ़ जाते है। आस्रव 70. धम्मपद 292 भावना की तुलना बौद्ध आचार दर्शन के द्वितीय आर्य सत्य 71. वही, 360, 361 'दुःख का कारण' से की जा सकती है। 72. वही, 293 7. संसार भावना :- बुद्ध का कथन है - आँख-कान-प्राण 73. वही, 179 जीभ-काया-वाणी और मन तथा सब इन्द्रियों का संवर उतम 74. धम्मपद 169 75. वही, 182 है। जो सर्वत्र संवर करता है, वह दुःखों से छूट जाता है। 76. संयुत्तनिकाय 39/7 तथा 40/8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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