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[412]... पञ्चम परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कहते हैं - भिक्षुओ ! जो दुःखपूर्ण, तीव्र, प्रखर, कटु, प्रतिकूल, अर्थात् पापचरण की आलोचना करने पर व्यक्ति पाप के भार से हल्का बैरी, प्राणहर शारीरिक वेदनाएँ हों, उन्हें सहन करने का प्रयत्न करना हो जाता है।82 बौद्ध आचार दर्शन में प्रवारणा के नाम से पाक्षिक चाहिए। सुत्तनिपात में भी वे कहते हैं कि धीर, स्मृतिवान, संयत प्रतिक्रमण की परम्परा स्वीकार की गई है। बोधिचर्यावतार में तो आचरणवाला भिक्षु डसनेवाली मक्खियों से, सर्पो से, यानी मनुष्यों आचार्य शान्तिदेवने पापदेशना के रुप में दिन और रात्रि में तीनके द्वारा दी जानेवाली पीडा से तथा चतुष्पदों से भयभीत न हो। तीन बार प्रतिक्रमण का निर्देश किया है। वे लिखते है कि तीन दूसरी सभी बाधाओं का सामना करें। रोग-पीडा, भूख-वेदना तथा बार रात में और तीन बार दिन में त्रिस्कन्ध (पापदेशना, गुण्यानुमोदना शीत-उष्ण को सहन करें। अनेक प्रकार से पीडित होने पर भी वीर्य और बोधि परिणामना) की आवृत्ति करनी चाहिए, इससे अनजाने में व पराक्रम को दृढ करें। संयुत्तनिकाय में भिक्षु के सत्कार परीषह हुई आपत्तियों का शमन हो जाता है।83 के संबंध में कहा गया है कि जिस प्रकार केले का फल केले को जैन और बौद्ध परम्परा में श्रमणी-संघ व्यवस्था :नष्ट कर देता है, उसी प्रकार सत्कार-सम्मान पुरुष को नष्ट कर देता
यद्यपि श्रमणों की संघ-व्यवस्था अति प्राचीन काल से है। अतः सत्कार पाकर भिक्षु प्रसन्न न हो।" इस प्रकार बौद्ध- प्रचलित थी। लेकिन श्रमणियों के संघ की व्यवस्था सामान्यतया परम्परा में भी भिक्षु का कष्ट सहिष्णु होना आवश्यक है, इतना ही सर्वप्रथम जैन परम्परा में ही प्रचलित हुई। बुद्धने अपने भिक्षु-संघ नहीं, भगवान् बुद्धने भी इस हेतु जैनों की तरह 'परीषह' शब्द का में स्त्रियों की प्रवेश की अनुमति बहुत ही अनुनय-विनय के पश्चात् प्रयोग भी किया है।
प्रदान की। यद्यपि जैन और बौद्ध परम्पराएँ इस विषय में एकमत बौद्ध परम्परा में प्रायश्चित विधाना :
है कि भिक्षुणी संघ को भिक्षु संघ के अधीन ही रहना चाहिए, दोनों जैन परम्परा के समान बौद्ध परम्परा में भी भिक्षुओं के द्वारा ही भिक्षुणी संघो में स्त्रीप्रकृति को ध्यान में रखते हुए कुछ विशिष्ट विभिन्न नियमों को भंग करने पर प्रायश्चित का विधान है। सामान्यतया नियमोंका प्रतिपादन हुआ है। बुद्ध ने इस संबंध में निम्नांकित अष्टगुरुधर्मो बौद्ध परम्परा में आठ प्रकार के प्रायश्चितों का विधान उपलब्ध होता। का निर्देश किया है। है - 1. पाराजिक 2. संघादिशेष 3. नैसर्गिक 4. पाचितिय 5. अनियत (1) भिक्षुणी संघ में चाहे जितने वर्षों तक रही हो, तो भी वह 6. सेखिय 7. प्रतिदेशनीय 8. अधिकरण समय ।
छोटे-बड़े सभी भिक्षुओं को प्रणाम करे। पाराजिक प्रायश्चित प्रमुख रुपसे हिंसा और चोरी के लिए (2) जिस गाँव में भिक्षु न हो वहाँ भिक्षुणी न रहे। दिया जाता है। बौद्ध परम्परा में भी पाराजिक प्रायश्चित में व्यक्ति
हर पखवाडे में उपोसथ किस दिन है और धर्मोपदेश सुनने भिक्षुसंघ से पृथक् कर दिया जाता है। सामान्यतया पाराजिक प्रायश्चित
के लिए कब आना है - ये बातें भिक्षुणी 'भिक्षुसंघ' से के योग्य अपराध निम्न हैं
पूछ लें। (1) संघ में रहकर मैथुन सेवन करना।
चातुर्मास्य के बाद भिक्षुणी को भिक्षुसंघ और भिक्षुणी-संघ (2) बिना दी हुई वस्तुएँ ग्रहण करना जिससे चोर समझा जाय। दोनों में प्रवारणा करनी चाहिए। (3) मनुष्य आदि की हत्या करना।
(5) जिस भिक्षुणी से संघादिशेष आपत्ति हुई हो उसे दोनों संघो (4) बिना जाने और देखे भौतिक बातों का दावा करना ।
में पन्द्रह दिनों का प्रायश्चित लेना चाहिए। जैन और बौद्ध परम्पराओं में पाराञ्चित एवं पाराजिक प्रायश्चित (6) जिसने दो वर्ष तक अध्ययन किया हो ऐसी श्रामणेरी को के संबंध में समान दृष्टिकोण है।
दोनो संघ उपसम्पदा दे दें। जिस प्रकार जैन परम्परा में अनवस्थाप्य प्रायश्चित का विधान (7) किसी भी कारण से भिक्षुणी भिक्षु के साथ गाली-गलौज है, उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में संघादिशेष प्रायश्चित का विधान है। न करें.
बौद्ध परम्परा के अन्य प्रकार अनियत नैसर्गिक और पाचित्तिय (8) भिक्षु ही भिक्षुणी को उपदेश दें । है। जिन्हें बौद्ध परम्परा की पारिभाषिक शब्दावली में विसग्गीय पाचित्तिय
उपरोक्त प्रतिपादन से यह स्पष्ट है कि बौद्धधारा में भी जैन धम्म कहा जाता है उनकी तुलना जैन परम्परा के सामान्यतया आलोचना सिद्धान्तों को समान रुप से स्वीकृत किया गया है। इतना ही नहीं, और प्रतिक्रमण से की जाती है। विसग्गीय पाचित्तिय धम्म में सामान्यतया
अपितु व्यावहारिकता की दृष्टि से संघ व्यवस्था का प्रतिपादन भी जैनों वस्त्र पात्र संबंधी 30 नियम आते हैं और उनका उल्लंघन करने पर श्रमण
की संघ व्यवस्था के तुल्य है। बौद्धधारा में तो बुद्धं शरणं गच्छामि, विसग्गीय पाचित्तिय अपराध का दोषी माना जाता है। अन्य भाषण,
धम्मं शरणं गच्छामि, के बाद 'संघं शरणं गच्छामि' कह कर संघ का निवास, आहार आदि संबंधी 192 नियम पाचित्तिय धम्म कहे जाते हैं और उनका उल्लंघन करने पर भिक्षु पाचित्तिय धम्म का दोषी माना जाता
और भी अधिक महत्त्व प्रतिपादित कर दिया गया है। है। प्रतिदेशनीय, सेखीय और अधिकरण समय-शिक्षाएँ हैं।
77. अंगुत्तरनिकाय 3/59
78. सुत्तनिपात 54/10-12 इस प्रकार जैन एवं बौद्ध दोनों परमपराओं में भिक्षु जीवन एवं श्रमण-संस्था को पवित्र बनाये रखने के लिए विभिन्न नियमो
80. सुत्तनिपात 54/6 और प्रायश्चितों का विधान है।
81. विनयपिटक, पातिमोक्ख के नियम, जैन-बौद्ध-गीता के आचार दर्शनों बौद्ध परम्परा और प्रतिक्रमण :
का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 2, पृ. 382, 383 बौद्ध धर्म में प्रतिक्रमण के स्थान पर प्रतिकर्म, प्रवारणा
82. वही पृ.- 383
83. उदान - 5/5 और पाप-देशना नाम मिलते है। बुद्ध की दृष्टि में पापदेशना का
84. बोधिचर्यावतार 5/98 महत्वपूर्ण स्थान है। वे कहते हैं खुला हुआ पाप लगा नहीं रहता
85. भगवान् बुद्ध, पृ. 168, 169; विनयपिटक, चूलवग्ग 10/1/2
(4)
79. संयुत्तनिकाय 1/6/12
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