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[250]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिस्थितियों में शुद्ध आहार प्राप्त नहीं होने पर साधु के द्वारा आधाकर्मी
साधु के निमित्त से 1. पूर्व का विवाहादि बाद में करना 2. या औद्देशिक आहार भी ग्रहण किया जा सकता है।"
बाद में होने वाले विवाहादि पहले करने से यह दोष दो प्रकार से हैं। 3. पूतिकर्म दोष :
तथा गृहस्थ के द्वारा यह दोष 1. प्रकट और 2. अप्रकट रखने से भी दो
प्रकार से है28____ पवित्र (शुद्ध) आहारादि में अशुद्ध/आधाकर्मादि दोष से दूषित आहारादि मिलाना या शुद्ध आहारादि को आधाकर्म दोषयुक्त करना
7. प्रादुष्कर दोष :'पूतिकर्म दोष' कहलाता हैं।20 द्रव्य और भाव से पूतिकर्म दोष दो
गृहस्थ के द्वारा अँधेरे में रखी हुई आहार सामग्री मणिरत्न, प्रकार का है।
अग्नि, बिजली आदि या दीपक/बेट्री आदि का प्रकाश करके खोजकर यह द्रव्य से 'छगण धार्मिक' अर्थात् दुग्धादि विषयक एवं
साधु को देना 'प्रादुष्करण दोष' हैं।29 भावपूर्वक सूक्ष्म-बादर द्रव्य की शुद्ध आहार में पूर्ति करना भाव पूतिकर्म 8. क्रीत दोष :कहलाता हैं।
गृहस्थ या साधु के द्वारा गृहस्थ से, बाजार से या ग्रामान्तर से पूतिकर्म दुष्ट आहारादि के ग्राह्याग्राह्य विषयक वर्णन करते हुए कोई वस्तु खरीदकर लाकर साधु को देना 'क्रीत दोष' हैं। यह दोष द्रव्य आचार्यश्री ने कहा है कि, "साधु पूतिकर्म दोष दुष्ट आहारादि तीन दिन से और भाव से दो प्रकार से हैं और वे दोनों भी आत्मक्रीत और परक्रीत बाद ग्रहण कर सकते हैं।''22
के भेद से दो-दो प्रकार से हैं। 4.मिश्रजात दोष :
9. प्रामित्यक दोष :गृहस्थ और साधु-साध्वी दोनों के लिए प्रथम ही धारणा
गृहस्थ के द्वारा दूसरों के यहाँ से उधार लाकर साधु-साध्वी करके आहारादि बनाना 'मिश्रजात दोष' कहलाता है। यह तीन प्रकार
को आहारादि प्रदान करना 'प्रामित्यक दोष' कहलाता है। यह दोष से है24 -
लौकिक और लोकोत्तर भेद से दो प्रकार का है।। (1) यावदर्थिक - गृहस्थ और भिक्षाचरों के लिए
लौकिक रुप से गृहस्थ के द्वारा साधु निमित्त उधार लाने पर (2) पाखण्डिमिश्र - गृहस्थ और पाखण्डी (अन्यदर्शनी संन्यासी
वस्तुदाता के द्वारा उसका द्रव्य मांगने पर क्लेश होता है, उधार लाकर
देने वाला गृहस्थ दरिद्र होने पर कर्ज में फंसकर कभी-कभी बंधुआ आदि) के लिए।
मजदूर जैसी स्थिति में आ जाता हैं। लोकोत्तर रुप से साधु के द्वारा (3) साधुमिश्र - गृहस्थ और साधु-साध्वी के लिए।
गृहस्थ से सीधा ही वस्त्रादि उधार ग्रहण करने पर क्लेश, राग, उपधि जैन साधु के लिए इन तीनों प्रकार के मिश्रजात दुष्ट आहार
की वृद्धि, प्रमाद एवं संयम में दोष लगता हैं। अतः दोनों प्रकार का ग्रहण करने का निषेध हैं।
'प्रामित्यक दोष' त्याज्य हैं। 5.स्थापना दोष :
10. परावर्तित दोषः :गृहस्थ के द्वारा साधु-साध्वी को देने के लिए खीर, दूध,
अपने पास रहे हुए धान्य, शस्त्र आदि को दूसरों से परिवर्तित दहीं, भोजनादि अलग बर्तन में रखने पर 'स्थापना दोष' उत्पन्न होता
कर (बदले में दूसरी वस्तु लेकर) साधु-साध्वी को देना, 'परावर्तित हैं।25 यह दो प्रकार का हैं-6- (1) स्वस्थान (गृहस्थ के स्वयं के घर)
दोष' हैं। यह दोष लौकिक-लोकोत्तर भेद से दो प्रकार से हैं। तथा उसी संबंधी, और (2) परस्थान (अन्य के घर) संबंधी। इन दोनों के अनंतर
द्रव्य के और अन्य द्रव्य के परावर्तन के भेद से वह एक-एक भेद दोऔर परंपर एसे दो-दो प्रभेद हैं
दो प्रकार से हैं। उदाहरण - जैसे (1) चावल के बदले चावल लेना (2) (क) अनंतर - स्थापित द्रव्य उसी रुप में रहने पर - जैसे दूध का
कोद्रव के बदले चावल लेना। दूध रुप में रहना।
परावर्तित दोषयुक्त आहारादि ग्रहण करने पर साधु के निमित्त (ख) परंपर-स्थापित द्रव्य को अन्य रुप में परिवर्तित करके रखना।
19. अ.रा.पृ. 2/849%; दूध को दही, घी आदि रुप में
20. अ.रा.पृ. 5/1069, दशवैकालिक-5/1, पञ्चाशक-विवरण-1/11, परिवर्तित करके रखना।
उत्तराध्ययन-अध्ययन-24 स्वस्थान स्थापना दोष भी स्थान और भाजन के भेद से
अ.रा.पृ. 5/1069; पिंड नियुक्ति-243 प्रत्येक के दो-दो प्रकार का हैं। इन सभी प्रकार से स्थापना दोष से 22. अ.रा.पृ. 5/1072 दूषित आहार साधु के लिए त्याज्य हैं।
23. अ.रा.पृ. 6/303 6. प्राभृतिका दोष :
24. अ.रा.पृ. 6/303, 304; पिंड नियुक्ति-271 साधु-साध्वी को भी विवाह या करियावर के मिठाई प्रमुख
25. अ.रा.पृ. 4/1682-83
26. अ.रा.पृ. 4/1683 प्रदान करने में उपयोग में आयेगा - एसी भावना से साधु-साध्वी के
27. अ.रा.पृ. 5/914 नगर में उपस्थित होने के समय साधु-साध्वी को विवाहादि के मीठाई
वही पृ. 5/915 प्रमुख देने के निमित्त से पहले या बाद में होने वाले विवाह, करियावर
*29. अ.रा.पृ. 5/816,817 आदि का उस समय अवसर न होने पर भी विवाहादि करने पर उस
30. अ.रा.पृ. 3/563 विवाहादि के मिठाई प्रमुख ग्रहण करने में साधु को 'प्राभूतिका दोष' 31. अ.रा.पृ. 5/853 लगता हैं।
32. अ.रा.पृ. 5/853 से 855 33. अ.रा.पृ. 5/627, आचारांग-2/1/1/8
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