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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावला का अनुशालन चतुथ पारच्छ६... [301 स्वस्थता की शिक्षा प्राप्त करते हैं, नवकार मंत्र के जाप से पंच परमेष्ठी शुभदिन मङ्गल वस्त्रादि धारण कर पूर्वसंघपति या सुप्रतिष्ठित भाग्यशाली की उपासना करते हैं, धंधा-व्यापार में नीति-कोमलता का ध्यान धार्मिक व्यक्ति के द्वारा (नये संघपति को) संघपति रुप में तिलक रखकर मार्गानुसारी जीवन यापन करते हैं, संयम की भावना प्रगट करवाकर प्रयाण करते हैं। करने/टिकाने के लिए अनित्यादि भावनाओं से मन को भावित करते तीर्थयात्रा में रास्ते में संघ की देख-रेख-सुरक्षा-सार-संभाल हैं, पाप से डरते हैं, बचते हैं, सांसारिक कार्यों में भी निष्ठूर भाव करते हुए संघपति प्रत्येक ग्राम-नगर में स्रात्रपूजा-चैत्य परिपाटी (जिन या अति आसक्ति के भाव नहीं लाते ।..इत्यादि अनेक गुणों से मंदिर दर्शन) - जिन मंदिरों में आवश्यक पूजन सामग्री भेट करना, युक्त होने से साधर्मिक भक्ति अमीतफलदाता धर्म माना जाता हैं यथाशक्ति जीर्ण मंदिरों के उद्धारादि कराने का चिन्तन करते हुए 'तीर्थ' अतः सार्मिक की भक्ति करना/भोजन कराना - यह अत्यंत सफल को प्राप्त करते हैं। कार्य हैं। तीर्थदर्शन होने पर रत्न-मोती-सोना-चाँदी-अक्षत-रुपये आदि 18. व्यवहार शुद्धि : से तीर्थ को बधाते हैं। तीर्थ में स्नात्रपूजा, अष्टप्रकारी पूजा, महापूजन, व्यवहार में शुद्धि रखना श्रावक का परम कर्तव्य है क्योंकि ध्वज प्रदान गीत-नाटक-नृत्य-वादित्रपूर्वक भक्ति सहित रात्रि जागरणक्रमशः व्यवहार से अर्थ (धन) की, धन से आहार की, उससे देह पूर्वक तीर्थ में उपवास-छट्ठ (दो उपवास) आदि तपपूर्वक तीर्थभूमि की शुद्धि होती हैं। देह शुद्धि से श्रावक धर्मयुक्त होता हैं जिससे पर देव-गुरु-संघ के सानिध्य में विधिपूर्वक 'तीर्थमाल' (स्त्रात्रमाल) उसका समस्त आचार, व्यवहार एवं आराधना सफल होती हैं। धारण करते हैं। जिन मंदिरों में पूजा योग्य उपकरण भेट करते हैं। व्यवहार शुद्धि नहीं रखने पर श्रावक स्व-पर एवं धर्म की तीर्थोद्धार-देवकुलिकादि निर्माण जीर्णोद्धारादि हेतु द्रव्य (धन) समर्पित निंदा करवाता है जिससे अबोधि (मिथ्यात्व) की प्राप्ति होती है, अतः करते हैं। तीर्थाशातना निवारण, तीर्थरक्षण, तीर्थ सम्मान (प्रचार-प्रसार), श्रावक को चाहिए कि, वह सर्वात्मना प्रयत्नपूर्वक धर्महेलना को रोकें ।143 दान, सार्मिक भक्ति, स्वामी वात्सल्य, गुरु एवं चतुर्विध श्री संघ 19. रथयात्रा : की भक्ति आदि उचित कार्य करते हैं। स्व-गह आकर श्री संघ जिन-जन्म कल्याणकादि विशेष महोत्सव प्रसंग पर को भोजनादि करवाकर बहुमान-सत्कारपूर्वक उनका विसर्जन करते स्नात्रपूजादिपूर्वक जिन प्रतिमा को श्रृंगारित रथ में विराजमानकर हैं। यथाशक्ति प्रतिवर्ष तीर्थमाल के दिन उपवास करते हैं। महोत्सवपूर्वक पूरे नगर में घुमाना 'रथयात्रा' कहलाती हैं। 44 __ सम्यग्दर्शन मोक्ष का अङ्ग है और पूर्वोक्तानुसार तीर्थयात्रा रथयात्रा जिनशासन प्रभावना का कारण हैं।145 दीन-दुःखी करने से सम्यग्दर्शन की विशुद्धि होती है, जैन शासन को प्रभावना को दान देते हुए, तपादिपूर्वक भावविशुद्धि युक्त होकर, उत्तम वस्त्र- होती है, जो परम्परा से मोक्षदायी है, अतः शक्ति सम्पन्न सुश्रावक विलेपन-माला-पुण्य-अलंकारादि से देह को सुशोभित कर, सुशोभित को यथाशक्ति जीवन में तीर्थयात्रा करनी चाहिए और संपन्न श्रावक स्त्रियों के द्वारा मंगल स्तुति, स्तोत्र, गीत-गान एवं वादित्रपूर्वक, धार्मिक को तीर्थयात्रा अवश्य करवानी भी चाहिए।148 नाटक-प्रेक्षण युक्त राजादि के द्वारा अनुशासनपूर्वक अमारिप्रवर्तनपूर्वक 21. उपशम149 :की जाती हैं।146 क्रोध, क्लेश, कायादि का त्याग करना, क्रोधादि का निग्रह, श्री जिनरथयात्रा से इसलोक में शत्रुकृत उपद्रवादि दोष माध्यस्थ परिणाम, शान्त अतस्था, राग-द्वेष के अभावरुप इन्द्रिय उपशम, नहीं होते; गुणप्रशंसा होती हैं; सज्जनता प्राप्त होती हैं; सम्यग्दर्शन कर्मों का उपशम होना,तृष्णा-नाश, रोगादि उपद्रव की शान्ति - 'उपशम' की प्राप्ति होती हैं। जिन शासन पक्षपात, शुभ अध्यवसाय, शासन कहलाता है। कषाय परिणति से होनेवाले कटुकर्मविपाक का विचार के प्रति बहुमान उत्पन्न होता है; रथयात्रा संपदा का मूल कारण है; कर श्रावक अपराधी के ऊपर भी कोप-त्याग हेतु प्रयत्न करता है निर्वाण फलदायी हैं।147 और राग-द्वेष जनक स्थितियों में भी समभाव धारण करने का प्रयत्न 20. तीर्थयात्रा : करता हैं और ज्ञान से, धर्मकथा से, सम्यक्त्व से या दैवप्रतिबोध श्री शत्रुञ्जय-गिरनारादि तीर्थ तथा तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, से उपशम को प्राप्त करता है। केवलज्ञान, निर्वाण एवं विहार भूमियाँ भी भव्य जीवों के शुभ उपशम का फल दर्शाते हुए आचार्यश्रीने कहा है-"जो भाववृद्धि संपादक होने के कारण संसार-समुद्र से तारक होने से उपशम करता है, उसकी आराधना, (सार्थक/सफल) है।" कहा तीर्थ कहलाते हैं । सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिए तीर्थ में विधिपूर्वक भी है - 'उवसमसारं खु सामण्णम्।' जिनभक्ति-महोत्सव करना 'तीर्थयात्रा' हैं। 22. विवेक :तीर्थ यात्रा की विधि - मुख्यतया तीर्थयात्रा छ:री पालक श्रावक कल्प्याकल्प्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय का विवेकपूर्वक (इसका वर्णन प्रथम परिच्छेद पृ. 15 पर किया गया है) होकर करनी विचार कर अकल्प्य-अभक्ष्यादि का त्याग करता है। शास्त्रज्ञान एवं चाहिए। सामान्यतया श्रावक राजादि को ज्ञात करके उनकी अनुज्ञा प्राप्त करके, यात्रा के लिए देवालय बनवाते हैं; पट, मण्डप, जल 143. अ.रा.पृ. 6/935 संग्रह के साधनादि वाहनादि सज्ज करते हैं, गुरु-संघ और स्वजनों 144. अ.रा.पृ. 6/493 को निमंत्रत करते हैं, अमारी (अहिंसा) प्रवर्तन कराते हैं, जिनालयों 145. अ.रा.पृ. 1/367 146. अ.रा.पृ. 1/368 में महापूजादि महोत्सव करते हैं, दीन-दुःखी को दान देते हैं, छ:रिधारकों 147. अ.रा.पृ. 1/369 को प्रोत्साहनपूर्वक सहयोग करते हैं, शूरवीर रक्षकों को बुलाते हैं, 148. अ.रा.पृ. 4/2246 गीत-नृत्य-वादित्र करते हैं और स्वजनादि को भोजनादि करवाकर 149. अ.रा.पृ. 2/1055 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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