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________________ [360]... चतुर्थ परिच्छेद और धर्मकथारुप पाँचो प्रकार का स्वाध्याय करना चाहिए (इसका विस्तृत वर्णन पृ. 332 पर किया गया हैं ) । अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 18000 शीलांगो के निरतिचार अखंड पालन रुप संयम क्रिया 138, ईर्यासमितिपूर्वक गमनागमन को 139 'जयणा' कहते हैं । जयणा धर्म की माता, रक्षिका, तपोवृद्धिकारिणी और एकान्त (मोक्ष) सुखकारिणी हैं। शास्त्रों में जयणायुक्त वर्तन करने वाली आत्मा श्रद्धा और ज्ञानपूर्वक क्रिया करने के कारण सम्यक्त्व - ज्ञान - चारित्र से युक्त भाव होने से आराधक कहा गया हैं। 140 इसलिए साधु की तरह श्रावक को भी सर्व कार्यो में जयणा प्रधान प्रवृत्ति करनी चाहिए अन्यथा श्रावक अनर्थदण्ड के पाप का भागीदार होता है। यहाँ तक कि जिनभवनादि निर्माण में भी जयणापूर्वक वर्तना चाहिए। 141 14-16. जिन पूजा, जिन स्तवन, गुरु स्तवन : जिनपूजा आदि का विवरण आगे आने वाले उपशीर्षक के अन्तर्गत (पृ. 363, गुरु स्तव पृ. 368) दिया जा रहा हैं। 17. साधार्मिक वात्सल्य : जो समान धर्म का आचरण करते हैं, उनहें 'साधर्मिक' कहते हैं। साधर्मिकों को भोजन में निमंत्रण करना, प्रतिवर्ष स्वामिवात्सल्य या एक-दो आदि साधर्मिकों की यथाशक्य भक्ति करना, प्रतिदिन या पुत्र जन्म-विवाहोत्सव या अन्य भी एसा मांगलिक प्रसङ्ग पर साधर्मिकों को विनयपूर्वक घर बुलाकर उनका पाद- प्रक्षालन कर, भक्तिपूर्वक उचित आसन पर बैठाकर उत्तम भाजन (बर्तन) में रखकर उत्तम भोजन - पानी - ताम्बूलादि एवं वस्त्राभूषण देना, संकटग्रस्त साधर्मिकों का उद्धार करना, उनको धर्म में स्थिर करना, उनकी सार संभाल कर उन्हें धर्म में प्रेरित करना, उनके साथ कलह नहीं करना - 'साधर्मिक वात्सल्य' हैं।142 यह बृहत्कर्मक्षयकारी होने से महानिर्जरा का कारण हैं। 11. नमस्कार : मस्तक पर दोनों हाथों से अञ्जलिबद्ध शिरोनमन प्रणाम, अरिहंतादि को प्रणाम 'नमस्कार' कहलाता हैं। 122 विशुद्ध मन से, उपयोगपूर्वक, मन-वचन-कायापूर्वक 123 देह से प्रणामादि, वचन से गुरुमुख से सूत्रादि की वाचना, श्रवण करना या अर्हदादि का गुणगान और भाव से ज्ञानावरणादि के क्षयोपशम रुप लब्धिपूर्वक नमस्कार किया जाता हैं। 124 नमस्कार क्यों ? गुणराशि, ज्ञानादिगुणयुक्त पूजनीय एवं मुक्ति का हेतु होने से अरिहंतो को, शाश्वत होने से तथा शाश्वत सुख का कारण होने से सिद्धों को, आचारपालक-प्रख्यापक होने से आचार-प्राप्ति हेतु आचार्यों को, विनय हेतु उपाध्यायों को और भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग की आराधना में सहायक होने से साधु भगवंतो को नमस्कार किया जाता हैं 125 फल : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने भाव - नमस्कार का फल बताते हुए कहा है कि, अरिहंतादि को किया गया नमस्कार को अनन्त भवों से मुक्तकर मोक्ष की प्राप्ति कराता हैं, बोधिलाभ कराता है 126, संसार समुद्र से तिराता हैं। 127 नमस्कार महामंत्र का एक पद भी समस्त मोहजाल का उच्छेदक होने से संपूर्ण द्वादशाङ्गारुप है क्योंकि वह जीव में संवेग उत्पन्न कर निर्जरा कराता है। 128 अतः प्रत्येक श्रावक को जिनदर्शनवंदन, गुरुवंदनादि एवं नमस्कार (नवकार महामंत्र का 108 बार जाप अवश्य करना चाहिए । श्री देवेन्द्रसूरि महाराजने कहा है कि, "श्री नवकारमंत्र आलोकपरलोक में सर्वत्र सहायक होने से सच्चे बन्धु समान एवं प्राप्त गुणों की रक्षा करनेवाला और अप्राप्तगुणों की प्राप्ति करानेवाला होने से जगत के नाथरुप हैं । 129" कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्यने कहा है कि, "आठ पंखुडीवाले श्वेत कमल में वर्णसहित अरिहंतादि की स्थापना करके श्री नवकार महामंत्र का ध्यान करनेवाला साधु भोजन करते हुए भी चोथभक्त (आगे-पीछे एकासणा सहित उपवास) का फल प्राप्त करता हैं। ''130 यह फल तो जाप की प्रवृत्ति मात्र से है, परमार्थ से तो श्री नवपद के जाप का फल स्वर्ग और मोक्ष कहा है। 131 अपने दाहिने हाथ की अंगुलियों पर जो नंदावर्तादि आवर्त्तो से पंचमहामंगल / नवकार मंत्र को 108 बार गिनता है, उसे दुष्ट पिशाच आदि परेशान नहीं करतें। 132 बंधन (जेल) आदि प्रसंग उपस्थित होने पर आवर्त्तो को या अक्षरों का या पदों का 1 लाख या उससे अधिक बार उल्टा जाप करने पर बंधन-संकटादि कष्ट तत्काल नष्ट होते हैं। 33 । 12. परोपकार : इसका वर्णन पूर्व पृ. 350 एवं 353 पर किया जा चूका हैं। 13. जयणा : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 'जयणा' की व्याख्या करते हुए कहा है 134 कि स्वशक्ति के अनुसार अक्ल्प्य का त्याग 35, यत्न 136, पृथ्वीकायादि जीवों के हिंसा आरम्भ के त्याग का प्रयत्न 137, Jain Education International साधर्मिक भक्ति से लाभ : साधर्मिक बारह व्रतों (उपलक्षण से सामायिकादी एकादि व्रत) का पालन करते हैं, पूजा सामायिक आदि शुभ क्रिया करते हैं, दानादि चारों धर्म की यथाशक्ति आराधना करते हैं, प्रभुभक्ति एवं गुरुभक्ति द्वारा धन्य होते हैं, प्रवचन श्रवण से समता-समाधि 122. अ.रा. पृ. 4/1819 1821 123. अ.रा. पृ. 4/1837, 1840 124. अ.रा. पृ. 4/1820 125. अ.रा. पृ. 4/1837-38-39 126. अ. रा. पृ. 4/1840 127. अ.रा. पृ. 3/1319; 4/1850 128. अ.रा. पृ. 4/1840 129. श्राद्ध दिनकृत्य-गाथा - 9 130. योग शास्त्र- प्रकाश 8/35 131. वही 8/40 132. नमस्कार - पंचविंशति- 16 133. धर्मसंग्रह का भाषांतर - भा.1, पृ. 345 134. अ.रा. पृ. 4/1423 135. अ.रा. पृ. 4/1423; आवश्यक चूर्णि, अध्ययन 6 136. अ.रा. पृ. 4/1423; निशीथचूर्णि उद्देश - 1 137. अ. रा.पृ. 4/1423; दशवैकालिक, अध्ययन-4 138. अ.रा.पृ. 4/1423; महानिशीथ सूत्र, चूर्णि - 2 139. अ.रा. पृ. 4/1423; आचारांग 2/3/1; उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 24 140. अ.रा. पृ. 4/1423; प्रतिमाशतक 50, 51 141. अ.रा.पू. 4/1423; धर्मसंग्रह, अधिकार 2 142. अ.रा. पृ. 7/799 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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