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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [359] अहिंसा108, ब्रह्मचर्य109, स्वभाव!10, फलनिरपेक्ष प्रवृत्ति।।। जैनेन्द्र 4. सविकार वचन त्याग :सिद्धांत कोश में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत को शील कहा श्रावक विकारयुक्त, विकारजनक, रागद्वेषोत्पादक, क्लेशजनक, गया हैं ।112 कर्कश वचन नहीं बोलते । यदि श्रावक एसी भाषा बोले तो लोक शील के प्रकार : में धर्म की निंदा होती हैं कि, परपीडाहारक धार्मिक मनुष्य भी एसी अभिधान राजेन्द्र कोश में शील के अनेक प्रकार दर्शाये हल्की भाषा बोलते हैं; इससे लोग उस व्यक्ति के साथ-साथ धर्म हैं, जो संक्षेप में निम्नानुसार हैं - द्रव्य शील और भाव शील, देशशील का भी उपहास करते हैं और कर्कश बोलने पर दूना या चार गुना और सर्वशील। सुनाते भी हैं। 1. दव्य शील - किसी भी पदार्थ या व्यक्ति का किसी भी 5. बाल-क्रीडा का त्याग :प्रकार के फल की अपेक्षा रहित केवल अपने स्वभाव से श्रावक बालिश (अज्ञ) लोक योग्य द्यूत-क्रीडा, शतरंज, ही प्रावरण (वस्त्र), अलंकार आभरण, भोजनादि में प्रवृत्ति होना चौपड, पशुयुद्ध, हास्य-विनोद, नाटक-प्रेक्षणादि बालक्रीडा का अथवा चेतन-अचेतन पदार्थों का अपना स्वभाव द्रव्य शील त्यागी होता हैं क्योंकी ये क्रीडाएँ मोह का मूल एवं अनर्थदण्डकारी कहलाता है।13 होती हैं। 2. भाव शील - दो प्रकार का हैं - (क) ओघशील और (ख) 6. सामादि नीतिपर्वक स्वकार्य साधना :आभीक्ष्ण्य सेवा शील। श्रावक स्वयं के प्रयोजनों / कार्यों को बुद्धिपूर्वक मधुर क. ओघशील-सामान्य से सावद्ययोगविरत (साधु) अथवा विरताविरत वाणी एवं मधुर नीतिपूर्वक (सामपूर्वक) सिद्ध करता हैं। (देशविरत श्रावक) ओघशीलवान् कहलाते हैं ।।14 7. शील का महत्त्व :ख. आभीक्ष्ण्य सेवा शील- धर्म के विषय में सतत अपूर्व ज्ञानार्जन, सज्जनों को देव, मनुष्य एवं मोक्ष संबंधी सुखों की प्राप्ति विशिष्ट तप करना, अनेक प्रकार के अभिग्रह करना - हेतु सदा 'शील' का पालन करना चाहिए ।।18 शील से देवगति प्रशस्त आभीक्ष्ण्य सेवा विषयक शील हैं और स्वधर्मबाह्य प्राप्त होती हैं।।19 निरतिचार शीलव्रतपालन से तीर्थंकर नामकर्म का क्रोधादि कषाय युक्त प्रवृत्ति, चोरी-अभ्याख्यान-कलहादि बंध होता हैं ।120 अप्रशस्त आभीक्षण्य-सेवा विषयक शील कहलाता है।।15 सूत्रकृताङ्ग में कहा है कि, "जलती हुई आग में प्रवेश देशशील और सर्वशील - गृहस्थ के सम्यक्त्व युक्त बारह करना अच्छा, परंतु चिरसंचित व्रतों का भङ्ग करना अच्छा नहीं। व्रत 'देश शील' और साधु के यावज्जीव 18000 शीलांगो सुविशुद्धमनपूर्वक (शुद्ध भावपूर्वक ) मृत्यु अच्छा परन्तु शील से च्युत का पालन 'सर्वशील' हैं।।16 (व्रत से पतित) होकर जीना अच्छा नहीं 1121 श्रावक के शील : 8. तप :अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने श्रावक के छ: शीलों का वर्णन श्रावक को यथाशक्ति 12 प्रकार के तप करना चाहिए (तप निम्नानुसार किया हैं।17 का विस्तृत वर्णन 310 से 336 पर किया गया हैं)। 1. आयतन सेवन : 9. भाव :जहाँ बहुत साधर्मिक, शीलवान्, बहुश्रुत, चारित्राचार-संपन्न लोग रहते हो, उसे 'आयतन' कहते हैं। श्रावक एसे ही स्थान में किसी भी प्रकार की क्रिया बिना भाव के सफल नहीं निवास करते हैं। इससे मिथ्यात्वादि घटते हैं, क्षय होते हैं और ज्ञानादि होती, अतः श्रावक को भावधर्म की आराधना करनी चाहिए (भावधर्म गुणों की वृद्धि होती है। भीलपल्ली, चोरों का आश्रयस्थान, पर्वतीय का वर्णन परिच्छेद 4 क (1) में एवं 154 एवं 310 पर किया गया स्थानो पर पहाडी लोगों के बीच, हिंसक-दुष्ट-दुराचारी-कुसङ्गी लोगों के साथ सज्जनों के द्वारा निंदित स्थान, जहाँ सम्यक्त्व और चारित्र 10. स्वाध्याय :का नाश होता हो, जहाँ बार-बार युद्धादि होते हो - एसे स्थान श्रावक को प्रतिदिन वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा महापापकारी होने से अनायतन अर्थात् श्रावक के रहने योग्य नहीं है, अतः श्रावक एसे स्थानों में निवास नहीं करता। -यह श्रावक 108. वही, प्रश्नव्याकरण-संवरद्वार-1 का प्रथम शील हैं। 109. वही 110. अ.रा.पृ. 7/901 2. परगृहप्रवेश त्याग : 111. अ.रा.पृ. 7/898, 901 श्रावक गुरुतर (अत्यावश्यक) कार्य के बिना दूसरों के घर 112. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-पृ.-4/30 नहीं जाता। इसमें भी जहाँ अकेली स्त्री हो वहाँ अकेलापुरुष या 113. अ.रा.पृ. 7/898 जहाँ अकेला पुरुष हो वहाँ अकेली स्त्री कभी भी नहीं जाते। इससे 114. अ.रा.पृ. 7/898 जीवन निष्कलंक और निर्मल रहता हैं। 115. अ.रा.पृ. 7/899 3. अति उद्भट वेष त्याग : 116. वही, धर्मरत्र-2/6/110-111 117. अ.रा.पृ. 7/899 श्रावक मर्यादापूर्ण वेशभूषा धारण करता है, अति-उद्भट्ट 118. अ.रा.पृ. 7/899 विकारजनक, देश-कुलाविरुद्ध अङ्गोपाङ्गदर्शक वेशभूषा का त्यागी 119. वही, सूत्रकृताङ्ग-1/12 होता है। इससे शील निर्मल रहता हैं । 120. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-पृ.-4/30 121. अ.रा.पृ. 7/899, सूत्रकृताङ्ग-1/1/2 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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