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________________ [362]... चतुर्थ परिच्छेद बुद्धिविज्ञानपूर्वक हेय - उपादेय की परीक्षापूर्वक हेय का त्याग एवं उपादेय का ग्रहण करता है। 150 23. संवर : श्रावक जिसके द्वारा प्राणातिपातादि का त्याग हो, एसे निर्मल जीवदयामय परिणाम को धारण करता हैं और पाँचो आस्रवों का निरोध करता हैं; 5 समिति, 3 गुप्ति, 10 यतिधर्म, 12 भावना, 22 परिषह सहन और 5 चारित्र ये संवर के 57 भेद हैं। इनका ज्ञान प्राप्त करना, यथाशक्ति पालन करने की भावना रखना 'संवर' हैं। 151 24. भाषा समिति का पालन करना : श्रावक के द्वारा क्रोधादि कषाय, या हास्य, भय या मुखरता पूर्वक भी सावद्य वचन का त्याग करना, विकथा का त्याग करना 'भाषा समिति' हैं। 152 इसका पृ. 286 पर विस्तृत वर्णन किया जा चुका हैं। 25-30. षड्जीवनिकाय पर करुणा 153 : करुणा गुण के कारण मोह से, दुःखी जीवों के दर्शन से, संवेग से या स्वभाव से दीन दुःखी के प्रति अनुकम्पा को करुणा कहते हैं, दुःखी के दुःख को दूर करना, ग्लान को पथ्य वस्तु / आहार / औषध प्रदान करना, दीनादि को लोक-प्रसिद्ध आहार-वस्त्र-शयनआसनादि देना, संवेगपूर्वक मोक्ष की अभिलाषा से सांसारिक रुप से सुखी जीवों के प्रति प्रीतिभाव से सांसारिक दुःखों से उनकी रक्षा की इच्छा, निःस्वार्थ भाव से जीवमात्र के प्रति अनुग्रह (उपकार) परायणता एवं केवली भगवंतादि महामुनियों की सर्व जीवों को दुःख से मुक्त करने की इच्छा को करुणा कहते हैं । यद्यपि श्रावक मात्र निरपराधी त्रस जीवों को संकल्पपूर्वक नहीं मारने की प्रतिज्ञा करता है तथापि स्थावर जीवों के भी निरर्थक हिंसा नहीं करता, अपितु पृथ्वी - अप् (जल), तेजस् (अग्नि), वायु, वनस्पति और त्रस काय के जीवों के प्रति कृपादृष्टि और अनुकम्पा हैं I रखता 31. धार्मिक जनों से सत्संग : श्रावक सदैव धार्मिक लोगों के साथ संबंध रखता है क्योंकि संसर्ग से ही गुणदोष उत्पन्न होते हैं। 154 गुणीजनों के साथ किया गया सत्संग कुमति को नष्ट करता है, मोह का नाश करता है, विवेक को जागृत करता है, प्रेम को विस्तृत करता/ बढाता है, नीति को उत्पन्न करता है, गुणश्रेणी को बढाता है, यश को फैलाता है, धर्म को धारण करता है, दुर्गति को अपवर्ग के सुखों की प्राप्ति कराता है। 155 लोक में भी प्रसिद्ध है कि, "पण्डित मंडनमिश्र के संसर्ग / सत्संग से उनके घर रहे पालतू तोता आदि पक्षी भी दार्शनिक चर्चा करते थे। चरम तीर्थंकर परमात्मा महावीर के सत्संग से रोहिणेय चोर साधु बन गया; चार हत्या करनेवाला दृढप्रहारी भी आत्म कल्याण कर गया; चंडकौशिक सर्प देवलोक पाया, पार्श्व प्रभु के संग से नाग धरणेन्द्र बना, महावीर के सत्संग से श्रेणिक राजा आनेवाली चौवीसी में उनके समान तीर्थंकर बनेंगे। सत्संग से ही वालिया लूटेरा वाल्मिकी बना । फूल के संग से ही कीट भी देव के मस्तक पर चढ़ता है। सुमेरु के संग से घास सुवर्णपना धारण करती है, कश्मीर की भूमि के संग से ही घास केशर की सुगंध प्राप्त करती है । सूक्तमुक्तावली में आचार्य सोमप्रभसूरिने कहा है "सद्गुणी मनुष्यों का संगम दुर्बुद्धि को नष्ट करता है, मोह को दूर करता है, Jain Education International अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तत्त्व - अतत्त्व में विवेक करता है, संतोष को प्राप्त कराता है, नीति को जन्म देता है, गुण समूह को विस्तृत करता है, यश फैलाता है, धर्मयुक्त बनाता है और दुर्गति को दूर करता है। अतः सद्बुद्धि के समूह 'को प्राप्त करने तु, चलने हेतु, कीर्त्ति प्राप्ति हेतु, धर्माचरण हेतु, स्वर्ग तथा मोक्ष की लक्ष्मी के लिये तथा आपत्ति, दुःख, दुर्जनता और पाप के फल से बचने के लिए सत्संग करना चाहिए।'' 155 32. करणदमन : करण अर्थात् इन्द्रिय | अनियंत्रित इन्द्रियाँ आत्मा को कुमार्ग में ले जाती है, कृत्याकृत्य का विवेक नष्ट करती है, जीवित का नाश करती है, पुण्यरुपी वृक्ष के टूकडे करती है, प्रतिष्ठा को नष्ट करती है, न्याय मार्ग से भ्रष्ट करती है, अकृत्य कराती है, तप से वैर होता है, विपत्तिओं को बुलाती है अतः दोषों के स्थानरुप इन्द्रियों का दमन करके उसे वश में करना चाहिए। 156 अपने-अपने विषयों में दौड़ती इन्द्रियों का निग्रह करना या उपशम करना, उसे वशमें करना या निंदनीय कार्यो का त्याग करना, मन को ध्येय में स्थिर करना 'करण दमन' कहलाता हैं। 157 33. चरण परिणाम : चरण परिणाम अर्थात् चारित्र अध्यवसाय 158 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने गमन, अतिशय गमन, विहार, अवस्थान, संयम अनुष्ठान, सेवन, मूलोत्तर गुणरुप आचरण, आसेवन, श्रमणधर्म, सर्ववि और देशविरति चारित्र और यति समाचारि को 'चारित्र' कहा है। 159 'परिणाम' अर्थात् दीर्धकाल के अनुभव सेउत्पन्न होनेवाला विशिष्ट आत्म धर्म, स्वभाव धर्म, अध्यवसाय या मनोभाव को परिणाम कहते हैं। 160 श्रावक चरण परिणाम अर्थात् चारित्र के अध्यवसाय (भावना) युक्त होता हैं । वह प्रतिदिन मन में चिंतन करता है कि कब एसा शुभ दिन हो जब मैं सर्वविरति चारित्र अंगीकार कर मुनि बनूं । 161 34. संघ के ऊपर बहुमान : ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय, प्रभावनादि गुणों से रञ्जित होकर जो प्रीति का प्रतिबंध होता है, उसे बहुमान कहते हैं। 162 श्रावक साधु-साध्वी- श्रावक-श्राविका रुप चतुर्विध संघ के प्रति प्रीति धारण करता हैं । जैसे वे धन्य हैं, वे वंदनीय हैं उनके द्वारा तीनों लोक पवित्र किये गये हैं, इनके द्वारा तीनों भुवन में क्लेशकारक काममल्ल पराजित किया गया हैं, इत्यादि । 163 150 अ.रा.पू. 6/1250, 1251 151. अ.रा. पृ. 7/237 152. अ.रा. पृ. 6/1555 153. अ.रा. पृ. 3/382 154. अ.रा. पृ. 7/244 155 सूक्त मुक्तावली - 66, 67 156. वही 69, 70 157. अ. रा. पृ. 3/371 158. अ.रा. पृ. 3/1128 159. अ.रा. पृ. 3/1125-26 160. पाईय सद्द महण्णव पृ. 556 161. अ.रा. पृ. 3/1128 162. अ.रा. पृ. 5/1304 163. वही पृ. 5/1303 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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