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हैं।210
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
प्रथम परिच्छेद... [37] के मन में रही हुई शंकाओं को स्वयं प्रकट कर वेद के पदों का
ये स्तवन प्रभुस्तवन सुधाकर में मुद्रित है। वि.सं. 1938 सही अर्थ करते हुए वेद के पदों से ही उनकी शंकाओं का समाधान में प्रथम भाद्रपद मास में राजगढ (म.प्र.) चातुर्मास में आचार्यश्री किया - इस प्रसंग का वेद-पद एवं उनके अर्थ सहित वर्णन किया ने इन तीनों चतुर्विशतिका की रचना की हैं।215
19. जिनोपदेश मंजरी:'कल्पसूत्र-बालावबोध' के षष्ठ व्याख्यान में 'गणधरवाद'
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'श्री जिनोपदेश मंजरी' वर्णित है एवं आचार्य श्रीमद् विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी ने 'मिला की रचना वि.सं. 1954 में खाचरोद (म.प्र.) में की थी। इसकी प्रकाश खिला वसंत' ग्रंथ में गणधरवाद का विस्तृत वर्णन किया पृष्ठ संख्या 70 हैं। इस पुस्तक में रोचक कथानकों से जिनेश्वर देव
प्रणीत तत्त्वों को यथार्थ रुप से समझाया गया हैं। इसके प्रत्येक 14. चैत्यवंदन चतुर्विशतिका:
कथानक की शैली उस समय की लोक भोग्य शैली है। यह पुस्तिका आचार्यश्री ने इसमें वर्तमान चौबीसी के 24 तीर्थंकरों के राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय, खुडाला (राज.) से प्रकाशित की गयी हैं।216 गुण वर्णन स्वरुप संक्षिप्त काव्यों की तीन तीन श्लोक में रचना की 20. ज्ञान पंचमी देववंदन:है जो चैत्यवंदन, देववंदन, प्रतिक्रमणादि धार्मिक क्रियाओं में उपयोगी
प्रस्तुत ज्ञानपंचमी के देववंदन में 51 खमासमण के पद होती हैं।
एवं पाँच ज्ञान के (मतिज्ञान आदि) पाँच चैत्यवंदन - स्तवन एवं 15. चोपड खेलन (क्रीडा) सज्झायः
स्तुति दी है।217 आराधक लोग कार्तिक शुक्ला-5/ज्ञानपंचमी के दिन आचार्यश्री द्वारा रचित इस सज्झाय का स्थान एवं समय ज्ञान के सामने इस क्रिया (विधि) को करते हैं। ज्ञात नहीं है। इसमें 18 गाथा में शतरंज की क्रीडा के दांव-पेंच 21. तत्त्वविवेका:का वर्णन कर आत्मा को उद्देशित कर संसार के दाव-पेच से बचकर
श्री अभिधान राजेन्द्र कोशः विशेषांक शाश्वत धर्म के अनुसार शुद्ध संयम जीवन पालन करके अयोगी गुणस्थानक प्राप्त कर सिद्ध इस ग्रंथ की रचना वि.सं. 1945 तदनुसार ईस्वी सन् 1888 में वीरमगाम स्वरुप प्राप्त करने की प्रेरणा दी हैं।212 यह 'प्रभु स्तवन सुधाकर'
चातुर्मास में की गयी थी। में पृ. 232 से 234 पर मुद्रित हैं।
___ इसमें आचार्यश्री ने सुदेव-सुगुरु एवं सुधर्म - इन तीन 16. चौमासी देववंदन:
तत्त्वों पर श्रेष्ठतम विवेचन बालगम्य भाषा में किया हैं। सरल रीति इस देववंदन माला की रचना आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र होने के कारण साधारणज्ञानी व्यक्ति को भी त्रितत्त्व समझने के लिये सूरीश्वरजीने खाचरोद में वि.सं. 1953 में अषाढ सुदि सप्तमी को की यह अत्युत्तम ग्रंथ हैं। इसकी पृष्ठ संख्या 128 हैं। यह ग्रंथ खुडाला है।।
(राजस्थान) से मुद्रित हुआ है। इस देववंदन में प्रथ चौबीसों तीर्थंकरों का एक चैत्यवदंन, 22. द्वादश पर्वनी कथा (संग्रह):तत्पश्चात् वर्तमान चौवीसी के श्री आदिनाथ से महावीर तक के 24 ___ आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने इस ग्रन्थ में प्राचीन तीर्थंकरों में से यथाक्रम श्री आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ
जैनागम साहित्य एवं अन्य प्रकरणादि ग्रंथों से लोकोत्तर जैन पर्वो एवं महावीर स्वामी के देववंदन और शेष जिनेश्वरों के एक चैत्यवंदन
की आराधनाविधि एवं फलदर्शक प्राचीन जैन पर्व कथाओं का बाल एवं एक स्तुति पूर्वक चैत्यवंदन है। इसके बाद श्री सिद्धाचल,
जीवों के बोध हेतु लोकभाषा में विभिन्न राग-रागिनियों में रचना सम्मेतशिखर, अष्टापद, आबू एवं गिरनार तीर्थ के चैत्यवंदन - स्तवन
कर संग्रह किया हैं।219 मुनि देवेन्द्र विजयजीने इसी पर आधारित स्तुति और अंत में सर्वतीर्थो नामपूर्वक श्री सर्वतीर्थ चैत्यवंदन-स्तवन 'श्री पर्व कथा संचय' नामक हिन्दी ग्रंथ की रचना की हैं। 220 एवं स्तुति है। इसमें कुल 31 चैत्यवंदन, 40 स्तुतियाँ और 11 स्तवन
इस ग्रंथ में (1) ज्ञानपञ्चमी (2) कार्तिक पूर्णिमा (3) मौन
एकादशी (4) पौष दशमी (5) मेरु-त्रयोदशी (6) चैत्री पूर्णिमा (7) 17. जिनस्तुति चतुर्विशतिका4:
अक्षयतृतीया (8) रोहिणी तप (9) पर्युषण (10) दीपमालिका (11) इसमें आचार्यश्री ने 24 तीर्थंकरों के आश्रित कर उनके गुणों चातुर्मास (12) रजः पर्व (होली) - इन द्वादश पर्व संबंधी कथाओं का वर्णन करते हुए एक-एक स्तुति की रचना की है। यह भी का वर्णन हैं। धार्मिक क्रियाओं में अतीव उपयोगी हैं।
210. गणधरवाद का परिचय, 'मिला प्रकाश खिला वसंत' - से उद्धत 18. जिनस्तवन चतुर्विशतिका:
211. प्रभुस्तवन सुधाकर प्रसिद्ध अध्यात्मक योगी श्री आनंदघनजी की तरह आचार्यश्री
212. प्रभुस्तवन सुधाकर ने भी 24 तीर्थकरों के गुणगान करते हुए, विविध देशी गेय राग- 213. देववंदन माला पृ. 222, चौमासी देववंदन रागिनियों में भजनस्वरुप 24 स्तवनों की रचना की हैं। इन स्तवनों 214. प्रभुस्तवन सुधाकर में आचार्यश्री ने प्रभु भक्ति के माध्यम से जैनदर्शन एवं जैनधर्म
संवर्त अड-द्वि-नव-शशि, प्रथम भाद्रव प्रसिद्ध ।
सुखकर सूरि राजेन्द्रनी, राजगढे भई ऋद्ध - ||5|| अंतिम बधाई, के सिद्धांत जैसे-देवाधिदेवत्व, नयवाद एवं प्रमाण, सप्तभंगी, स्याद्वाद,
प्रभुस्तवनसुधाकर, पृ. 205 चारों निक्षेप, तीर्थकसे का महादेवत्व, उनके अतिशय-गुण वर्णन,
216. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ, पृ. 88 से 92 प्रतिक्रमण, नव तत्त्व, षड्द्रव्य, कर्म सिद्धांत, आत्मा का स्वरुप, 217. देववन्दनमाला, ज्ञानपंचमी देववन्दन अनेकांतवाद, सम्यक्त्व, नास्तिकवाद का खंडन, जिनप्रतिमा की महिमा, 218. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 88 से 92 चारित्र, ब्रह्मचर्य, अवतारवाद का खंडन आदि अनेक विषयों पर रोचक 219. धरती के फूल, पृ. 264 प्रकाश डाला है।
220. श्री पर्वकथासंचय, प्रस्तावना, पृ. ।
215.
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