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________________ [36]... प्रथम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक मूर्तिपूजक जैन श्वे. श्री संघ समिति, आहोर (राज.) से प्रकाशित हुआ हैं। के प्रत्येक गाँव-नगर में श्री पर्दूषण महापर्व में भादवा वदि अमावस्या 13. गणधरवादः(बडा कल्प) से संवत्सरी महापर्व तक सभा में इस ग्रंथ के वाँचन गणधरवाद' इन्द्रभूति गौतम आदि उन ग्यारह वैदिक विद्वानों श्रवण की परंपरा हैं। के संशयों के समाधानों का संकलन है जो सर्वज्ञ तीर्थंकर महावीर प्रथमावृत्ति छापने वाले श्रावक भीमसिंह माणेक ने इसमें के शिष्य बनने और गणधर पद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व जिज्ञासु कथादि में वृद्धि करके इसे ग्यारह हजार (11,000) श्लोक प्रमाण के रुप में अपना पांडित्य प्रदर्शन एवं भगवान की सर्वज्ञता का परीक्षण कर दिया ।203 जिससे इसे नव वाचना के नियत समय में पढकर करने की आंकाक्षा से उनके समवसरण में उपस्थित हुए थे। पूर्ण करने में अतिशय कष्ट होने द्वितीयावृत्ति में आचार्य श्रीमद्विजय लोकोत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के गण (समूह) को धारण यतीन्द्रसूरिने अनावश्यक विस्तृत बातें टिप्पणी में देकर संशोधन किया।204 करने वाले तथा तीर्थंकर के प्रवचन को सर्वप्रथम सूत्ररुप में संकलित इस ग्रंथ की प्रथमावृत्ति आचार्यश्री की उपस्थिति में निर्णयसागर प्रेस, करने वाले महापुरुष 'गणधर' कहलाते हैं। जैनानुश्रुति के अनुसार मुंबई से ई.स. 1888, वि.सं. 1944 के फाल्गुन सुदि अष्टमी सोमवार वर्तमान अवसर्पिणी काल के 24 वें तीर्थंकर महावीर का शासन वर्तमान को सियाणा, वागरा तथा आहोर के श्रीसंघों की ओर से प्रकाशित में चल रहा हैं। अतः यहाँ 'गणधरवाद' में भगवान महावीर व उनके की गयी थी।205 गणधरों का प्रसंग वर्णित हैं। आपके प्रशिष्य वर्तमान गच्छाचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन गणधर का नाम शंका सूरीश्वरजीने वि.सं. 2055 में कुक्षी चातुर्मास में इसका हिन्दी अनुवाद (1) इन्द्रभूति (गौतम स्वामी) - जीव का अस्तित्व किया और वि.सं. 2054 में थराद (गुजरात) में गुजराती अनुवाद किया (2) अग्निभूति कर्म का अस्तित्व है जो वहीं से प्रकाशित भी किया गया हैं। (3) वायुभूति तज्जीव-तच्छरीर अर्थात् 10. केसरियानाथ विनंतीकरण बृहत्स्तवन: जीव और शरीर का एकत्व आचार्यश्रीने इस बृहत् स्तवन की रचना वि.सं. 1954 में (4) व्यक्त भूतों का अस्तित्व रतलाम (चातुर्मास) में की थी। 39 गाथा प्रमाण इस स्तवन में आचार्यश्रीने (5) सुधर्मा इहभव-परभव का सादृश्य धुलेवा (राज.) स्थित प्रथम तीर्थंकर केशरीयानाथ श्री ऋषभदेवजी (6) मण्डित बंध-मोक्ष का अस्तित्व के गुण एवं प्रभावों का वर्णन करते हुए अंत में उपालंभ देते हुए (7) मौर्यपुत्र - देवों का अस्तित्व परमात्मा को इस संसार समुद्र से पार उतारने हेतु विनंती की हैं ।206 (8) अकम्पित नारकों का अस्तित्व आचार्यश्रीने इसके अलावा वि.सं. 1956 एवं वि.सं. 1959 में फाल्गुन (9) अचलभ्राता पुण्य-पाप का अस्तित्व पूर्णिमा के दिन धूलेवा की यात्रा के समय भी केशरियाजी के अन्य (10) मेतार्य परलोक का अस्तित्व लघु स्तवनों की रचना की हैं। (11) प्रभास - मोक्ष (निर्वाण) का अस्तित्व 11. खर्परतस्कर प्रबंध : गणधरवाद संबंधी आगमों में वर्णन:परदुःखभंजक महाराजा विक्रमादित्य के शासनकाल में खर्पर' समवयांग में गणधरों के नाम और उनकी आयु संबंधी नामक एक चोर अवन्ती और उके निकटवर्ती प्रदेश की प्रजा को कतिपय बातों का वर्णन किया गया हैं। कल्पसूत्र (बारसा सूत्र) अपने अधम कृत्यों से परेशान करता था। उसे येन-केन प्रकारेण की टीकाओं में गणधरवाद का प्रसंग वर्णित हैं। 'आवश्यक नियुक्ति' परास्त करने का प्रयत्न राजा एवं राजकर्मचारी सभी ने किये, परन्तु में ग्यारह गणधरों के नाम, शिष्य संख्या, संशय का विषय, उनका वे विफल ही रहे। अंत में स्वयं राजा विक्रम ने महाभगीरथ प्रयत्नों वेद पद के अर्थ का अज्ञान और "मैं वेद पद का सही अर्थ प्रकट से उसे परास्त कर ही दिया। उक्त प्रबंध में आचार्य श्रीमद्विय राजेन्द्र करता हूँ" ऐसा भगवान का कथन, इतनी बातों का संकेत किया सूरीश्वरजीने इसी ऐतिहासिक बात का संस्कृत में 800 पद्यों (श्लोकों) गया है। श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यक भाष्य में वर्णन किया हैं । 207 में पूर्वपक्ष-उत्तर पक्ष की व्यवस्थित प्रणाली का अनुसरण करके गणधरवाद संभवत: इसी ग्रंथ का नाम उपाध्याय मुनिश्री गुलाबविजयजी की रचना की हैं। ने 'हरिविक्रमनृपचरित्र' लिखा है ।208 यह ग्रंथ अमुद्रित हैं। आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने इन्हीं विशेषावश्यक 12. गच्छाचारपयन्ना-वृत्ति भाषान्तर: भाष्य एवं कल्पसूत्र की प्राचीन टीकाओं के आधार पर 'गणधरवाद' 'श्रीगच्छाचारपयन्ना' मूलग्रंथ (1) आचार्य स्वरुप (2) यति नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें भगवान महावीर ने गौतमादि गणधरों स्वरुप और (3) साध्वी स्वरुप - ये तीन अधिकारों में विभाजित होकर 137 श्लोक प्रमाण हैं। इस पर वि.सं. 1634 में विमलविजय 203. कल्पसूत्र बालावबोध प्रथमावृत्ति, प्रस्तावना पृ. 11 गणिने 5850 श्लोक प्रमाण टीका बनाई है। उसी टीका का भाषान्तर 204. कल्पसूत्र बालावबोध द्वितीयावृत्ति, प्रस्तावना पूज्य आचार्यश्रीने वि.सं. 1944 के पौष महीने में सौराष्ट्र (गुजरात) 205. कल्पसूत्रबालावबोध, प्रथमावृत्ति, प्रस्तावना के पहले मुखपृष्ठ में किया था। भाषान्तर में कहीं कहीं टीका से भी अधिक विवेचन 206. प्रभुस्तवन सुधाकर किया गया है जिसका स्पष्टीकरण गुरुदेव ने मंगलाचरण में ही कर 207. श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 90 208. श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 128, श्लोक 414 दिया हैं।209 यह ग्रंथ श्रमण और श्रमणी संघ के समस्त आचार 209. गच्छाचारप्रकीर्णस्य टीका लोकसुभाषया । विचारों का मुख्य विवेचक हैं। प्रत्येक साधु व साध्वी को एक कुर्वे वृत्त्यनुसारेण चाधिका कुत्ररित्यपि ।।2।। - गच्छाचारपयन्ना वृत्तिबार यह ग्रंथ अवश्य पढने योग्य हैं। यह ग्रंथ श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य भाषान्तर, मंगलाचरण - पक्ष H Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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