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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 'आचार' शब्द की व्युत्पत्तिः 'आचार' शब्द को प्राकृत में आयार और संस्कृत में 'आचार' कहा है। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'आचार' शब्द का व्युत्पतिलभ्य अर्थ बताते हुए आचार्यश्री ने कहा है- 'आचार' शब्द 'आ' उपसर्गपूर्वक 'चरगतिभक्षणयोः' धातु से निर्मित है। 'आ' उपसर्गपूर्वक गतिभक्षणार्थक 'चर' धातु में घञ् प्रत्यय जोडने पर 'आचार' शब्द बनता है। 22 आ - मर्यादया वाऽऽचारो - विहारः आचार: 23 आ - उपसर्ग, 'चार' चरणं चारः । अनुष्ठाने परिभ्रमणे 124 आ - मर्यादायां चरणं चारः मर्यादया काल-नियमादि लक्षणया चार आचार: 125 अर्थात् काल-नियमादि लक्षण से मर्यादापूर्वक चलना 'आचार' आचार का लक्षण: अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार का लक्षण बताते हुए आचार्यश्रीने कहा है - आ मज्जाया वयणो, चरणं चारोत्ति तीए आयारो । सो होई नाण दंसण चारित्ततवविरियवियप्पो 126 अर्थात् आचार का लक्षण 'मर्यादापूर्वक चलना' / जीवन बीताना है और वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य पाँच प्रकार हैं। जैन मर्यादा में जो अनुष्ठान, जीवन व्यवहार या आचरण ज्ञानादि पंचविध आचारों अनुकूल हों, वह आचार कहलाता है और जो इनसे प्रतिकूल हों वह अनाचार । परिभाषा: शास्त्रीय दृष्टि से ‘आचार' की परिभाषा बताते हुए राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने कहा है 'आचारो मोक्षार्थमनुष्ठानविशेष' इति । आचारः शास्त्रविहितो व्यवहार इति 17 अर्थात् जो अनुष्ठान अथवा प्रवृत्ति मोक्ष के लिये हों, या जो आचरण या व्यवहार अहिंसादि धर्म से सम्मत एवं शास्त्रविहित हों, वह आचार है और इसके विपरीत जो हो वह अनाचार है । आचार की परिभाषा को बताते हुए राजेन्द्र कोश में और भी कहा हैआचरणमाचारः । आचर्य्यते इति वाडडचारः । पूर्वपुस्प्राचरिते ज्ञानाद्यासेवनविधौ । 28 आचर्य्यते गुणवृद्धये इत्याचारः 129 इस प्रकार मोक्षलक्षी प्रवृत्ति, शास्त्रविहित व्यवहार, पूर्वपुरुषों के द्वारा आचरित ज्ञानादि आसेवनविधि, और गुणवृद्धि हेतु किया जाने वाला आचरण भी 'आचार' कहा जाता है। आचरण शब्द के विविध अर्थ: उपर्युक्त परिभाषाओं के अतिरिक्त 'आचार' शब्द के विविध अर्थ बताते हुए राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने कहा है 1. ‘आचारो ज्ञानाचारादिः पञ्चाधा आमर्यादया वा चारो विहार आचार: । '30' आचारे साधु सामाचार्य्या विषये' इति । ' आचारो ज्ञानादिविषयमनुष्ठानमिति 2 2. श्रुतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादीनि आचरणीये आचारे | 3 3. साध्वाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिरिति भावार्थ: 14 आचरणमाचारोऽनुष्ठानं इति 1 35 अर्थात् अभिधान राजेन्द्र कोश में ज्ञानाचारादि पंचविध आचारों में मर्यादापूर्वक चलने के अर्थ में, साधु-समाचारी विषयक आचरण के अर्थ में, ज्ञानादि आसेवनरुप अनुष्ठान विशेष के अर्थ में, श्रुतज्ञानादि विषयक आसेवनरुप अनुष्ठान विशेष जो काल-अध्ययन आदि विषयक आचरण के अर्थ में, साधुओं द्वारा आचरित ज्ञानादि आसेवन विधि के अर्थ में, अनुष्ठान विशेष के अर्थ में किये जानेवाले आचरण के अर्थ में, इत्यादि विभिन्न अर्थो में 'आचार' शब्द प्रयुक्त है। 22. अ. रा. पृ. 2/368; भगवती सूत्र सटीक पथम शतक, प्रथम उद्देशक 23. (चार) इति 'चर' गतिभक्षणयो:, भावे घञ् (चर्येति) 'गदमद' चरयं चानुपसर्गे । इत्यनेन कर्मणि ध । भावे वा यत् (चरणमिति) भावे ल्युट्ा । अ. रा.पू. 3/1172; आचारांग 1/5/1 24. अ. रा. पृ. 6/368; आवश्यक मलयगिरि 25. अ. रा. पृ. 2 / 330; एवं 368; विशेषावश्यक वृत्ति एवं स्थानांग सटीक 5 वाँ ठाणां; आउर पच्चखाण पयन्ना, 24, 33, 66 26. अ. रा. पृ. 2/368; आचारोंग सूत्र सटीक, 1/3, गच्छाचार पयन्ना चतुर्थ परिच्छेद... [147] 27. अ. रा. पृ. 2/368; नन्दीसूत्र वृत्ति 28. अ. रा. पृ. 2/368; यशोविजयजी कृत अष्टक - सटीक 29. अ.रा. पृ. 2/368; भगवतीसूत्र सटीक 1/1 30. अ. रा. पृ. 2/368; प्रश्नव्याकरणसूत्र सटीक, संवर द्वार-3 31. अ. रा. पृ. 2/368; ज्ञाताधर्मकथा सूत्र सटीक 32. अ. रा. पृ. 2/368; भगवतीसूत्र सटीक 2 / 1, आवश्यक बृहद्दत्ति 33. अ. रा. पृ. 2/368; भगवतीसूत्र सटीक 1/1 34. अ. रा. पृ. 2/368; सूत्र कृतांग सूत्र सटीक 2/5 35. अ.रा. पृ. 2/368; दशवैकालिक सूत्र सटीक, 3 रा अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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