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[146]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कहा है- जीवाहारो भण्णइ आयारो।' आचार व्यक्ति के जीवन का दर्शन कराने वाला दर्पण है।
आचारहीन साधना निष्प्राण शरीरवत् है अत: अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है - न नाणमित्तेण कज्ज निष्फत्ति ।। अर्थात् (आचारहीन) मात्र ज्ञान प्राप्त करने से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती। आचारहीन ज्ञान मात्र एक बोझ है। इसी बात को कहते हुए आचार्यश्रीने कहा है
"जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी, न हु चंदणस्सा।
एवं खु णाणी चरणेण हीणो, णाणस्स भागी, न हु सुग्गइए।"" सुश्रुत संहिता में भी इसी संदर्भ में कहा है
"यथा खरश्चन्दनभारवाही भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य ।
एवं हि शास्त्राणि बहून्यधीत्य चार्थेषु मूढाः खरवद् वहन्ति ॥"12 पाश्चात्य विचारक स्वीनोंकने आचाररहित ज्ञान को केवल दिखाने के लिए रखी उपयोग रहित शीशे की आँख के समान कहा है। इसी संदर्भ में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा है - 'चारित्रहीन बौद्धिक ज्ञान सुगन्धित शव के समान है।13
चारित्रहीन साधक की स्थिति बताते हुए राजेन्द्र कोश में कहा है - 'चरणगुण विष्पहीणो बुडुइ सुबुहुंपि जाणंतो ।।4 अर्थात् चारित्रहीन साधक बहुत से शास्त्र पढ लेने पर भी संसार समुद्र में डूबता है। क्योंकि
सुबहुंपि सुयमहियं, कि काही चरणविप्पहीणस्स?
अंधस्स जह पलीत्ता, दीवसय सहस्स कोडिवि ॥15 अर्थात् जैसे प्रज्वलित करोडों दीपक अंधे को प्रकाश नहीं दे सकता वैसे ही चारित्रहीन शास्त्रज्ञानी को ढेर सारे शास्त्रों का अध्ययन भी किसी काम का नहीं है।
इससे विपरीत जिस प्रकार देखते व्यक्ति को एक दीपक भी काफी प्रकाश देते है, उसी प्रकार सच्चरित्रवान साधक को अल्पज्ञान भी प्रकाश देनेवाला होता है। इसी बात के संदर्भ में राजेन्द्र कोश में कहा है
"अप्पं पि सुयमहीयं, पयासयं होइ चरणजुत्तस्स ।
इक्को वि जह पईवो, सचक्खुअस्सो पयासेइ ॥6 इसी बात को चीन के विचारक कन्फ्युशियसने निम्न शब्दों में कहा है
उत्तम व्यक्ति शब्दों से सुस्त और चारित्र से दृढ होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं की ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। ज्ञान का फल विरति अर्थात् त्यागमय आचार है।। राजेन्द्र कोश में ज्ञानयुक्त क्रिया का महत्त्व बताते हुए आचार्यश्री ने ज्ञान-क्रिया के समन्वय पर प्रकाश डालते हुए कहा है
नाणकिरियाहिं मोक्खो। ज्ञान और क्रिया (ज्ञानयुक्त आचरण) से ही मोक्ष होता है इतना ही नहीं अपितु "हयनाणं कियाहीणं' 20 अर्थात् आचारहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञानहीन आचार नष्ट होता है। इसी बात को ओर अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है
"संजोग सिद्धीइ फलं वयंति, न हे (ह) एग चक्केण रहो पयाइ।
अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपत्ता नगरं पविट्ठा ।।। अर्थात् संयोग-सिद्धि ही फलदायिनी होती है। जैसे अंधा और पंगु मिलकर वन के दावानल से बचकर नगर में पहुँच गये वैसे ही ज्ञान-क्रिया युक्त साधक भी मोक्ष को प्राप्त करता है।
सामान्यतया साहित्य जगत् एवं व्यवहारिक जगत में आचार शब्द आचार या 'सदाचरण' अर्थ में प्रयुक्त है परन्तु जैनागमों में अनेक भावनाओं से युक्त आचार शब्द बायामी व्यापक अर्थ रखता है अतः आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार शब्द के अनेक अर्थ प्रस्तुत किये हैं। 9. अ.रा.पृ. 3/1343; दशवैकालिक नियुक्ति 215 10. अ.रा.पृ. 4/1989; आवश्यक नियुक्ति 1151 11. अ.रा.पृ. 6/443; आवश्यक नियुक्ति 100; संबोधसत्तरी प्रकरण - 81 12. सुश्रुत संहिता, सूत्र स्थान 4/4 13. जैन दर्शन वाटिका, पृ. 101 14. अ.रा.पृ. 6/442; आवश्यक नियुक्ति 97 15. अ.रा.पृ. 6/442; आवश्यक नियुक्ति 98; चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक-66 16. अ.रा.पृ. 6/443; आवश्यक नियुक्ति 99 17. जैन दर्शन वाटिका पृ. 99 18. ज्ञानस्य फल विरतिः। अ.रा. पृ. 6/337; प्रशमरति प्रकरण 72 19. अ.रा.पृ. 3/1126 20. अ.रा.पृ. 6/443; संबोधसत्तरि प्रकरण, आवश्यक नियुक्ति 101 21. अ.रा.पृ. 6/443-444; एवं पृ. 4/19888; आवश्यक नियुक्ति-102
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