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चतुर्थ परिच्छेद
आचारपरक शब्दावली का आकलन एवं अनुशीलन क. साधुपरक शब्दावली
समस्त भारतीय धर्मप्रचारक उपदेष्टा होने के साथ-साथ दार्शनिक भी थे। वे अपने उपदेश में जिन सिद्धांतो की प्ररुपणा करते थे अपने जीवन में उन्हें आचारान्वित भी करते थे। श्रमणपरम्परा के तीर्थंकरोंने अपने केवलज्ञान के दिव्यप्रकाश में जो जाना, देखा और उनमें से जिन सिद्धांतों का उपदेश दिया, उनका अपने जीवन में आचरण में पालन भी किया। धर्म आचरण की वस्तु है और जैनधर्म तो विशेषतया श्रुत और चारित्र (ज्ञानपूर्वक आचरण) मय है। अभिधानराजेन्द्र कोश में जैनागम ग्रन्थों के पारिभाषिक शब्दों का विवेचन किया गया है। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का विषय भी 'अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन' है। अतएव प्रस्तुत शोध की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली के अनुशीलन के पूर्व हम यहाँ पर प्रसंग प्राप्त जैनधर्म, उसका उद्देश्य, लक्ष्य, लक्ष्य(मोक्ष) प्राप्ति का मार्ग, सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र और चारित्र (आचार) का सैद्धांतिक पक्ष एवं चारित्र की क्रमिक शुद्धि एवं मोक्ष की परम्परागत प्राप्तिरूप गुणस्थानक आदि विषयों की चर्चा करेंगे । तत्पश्चात् चारित्र के व्यवहार पक्ष में मुनि एवं श्रावकों की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का यथा प्रसंग विवेचन/ अनुशीलन प्रस्तुत किया जायेगा।
'आचार' भारतीय साधना का प्राण है। भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान है और जीवन की सार्थकता आचार में निहित है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने कहा है- एगे चरेज्ज धम्मां' - अर्थात् भले ही कोई साथ न दे, अकेले ही सद्धर्म का आचरण करना चाहिए। उपनिषत् काल में भी पठित स्नातक को कुलपति प्रयाणकाल में 'धर्मं चर' - यह निर्देश करते थे। तथागत बुद्ध भी आचार को प्राथमिकता देते थे। जैनागमों में 'आयारो पढमो धम्मो कहा है। मनुस्मृति में भी कहा है - 'आचारः प्रथमो धर्मों नृणां श्रेयस्करो महान् । - उत्तम आचार ही सबसे श्रेष्ठ धर्म है और मनुष्यों के लिए कल्याणकारी है। आचार का महत्त्व:
मानव जीवन की विविध साधनाओं में आचार का अत्यन्त महत्व है। आचार जीवन को सौम्य, निर्मल, सात्त्विक एवं सर्वांगपूर्ण बनाने की दिव्य साधना है जिससे जीव आध्यात्मिक परिपूर्णता प्राप्त करके जन्म-जरा-मरण से मुक्त होकर परम पद की प्राप्ति करता है।
वस्तुतः आचार साधना का मूलाधार है। जैन साधना-पद्धति आचार-प्रधान है। जैन-दर्शन के अनुसार आचारविहीन ज्ञान निरर्थक है। आचार ही मानव को मानवता के श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन करता है। विश्व के प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय या समाज की अपनी-अपनी परम्परा रही है परन्तु जैन धर्म एवं दर्शन में आचार के स्वरुप, भेद-प्रभेद, साधना-प्रक्रिया आदि को लेकर जितना सूक्ष्म एवं गंभीर चिन्तन किया गया है, उतना अन्यत्र विरल ही है। जैन मनीषियों ने आचार पर चिन्तन के साथ ही उसे अपने जीवन में उतारने हेतु विशेष बल भी दिया इसलिये जैन-संस्कृति की आचार-संहिता अत्यधिक कठोरतम है। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने आचार के संबंध में व्यापक चिन्तन किया है जिसे हमने इस शोध प्रबन्ध में यथास्थान वर्णित किया है।
जब तीर्थकर धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं; तब सर्वप्रथम वे आचार का ही उपदेश देते हैं क्योंकि आचार ही परम और चरम कल्याण का साधकतम हेतु माना गया है। जैन साधना पद्धति में मानव-जीवन में चरम एवं परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति, सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण-इन तीनोंके समन्वय से होती है। आचार्य उमास्वातिने कहा भी है- 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः। तथापि जैन साधना में आचार की प्रधानता को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। अभिधान राजेन्द्र कोश में सम्यक् चारित्र को मोक्ष का प्रधान कारण कहा है -'तस्मात् चारित्रमेव प्रधानं मुक्तिकारणम्।" क्योंकि आचारविहीन श्रद्धा या ज्ञान से कार्य नहीं चल सकता अतः इन दोनों को क्रियात्मक रुप देने हेतु श्रद्धा व ज्ञान की अपेक्षा आचार अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसलिये आचार्यश्रीने अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है - चरणाहितो मोक्खो अर्थात् चारित्र से ही मोक्ष होता है। इतना ही नहीं राजेन्द्र कोश में आचार को जीवात्मा का मूल आधार बताते हुए 1. अ.रा.पृ. 1/544; प्रश्न व्याकरण-2/3 2. 'आयारो पढमो धम्मो।' - आचारांग सूत्र 3. मनुस्मृति 4. सव्वेसि आयरो तित्थस्स पवत्तणे पढमया। आचारांग नियुक्ति, गाथा 8 5. आचारशास्त्रं सुविनिश्चितं यथा जगाद वीरो जगते हिताय यः। अ.रा. पृ.2/376 एवं 389 6. तत्त्वार्थ सूत्र -1/1 7. अ.रा.पृ. 3/1143; आवश्यक बृहदृत्ति, अध्ययन-3 8. अ.रा.पृ. 6/337; आचारांग वृत्ति-1/211
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