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[2]... प्रथम परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जीवन परिचय :
विक्रम संवत् 1893 में भरतपुर में अकाल होने से कार्यवश माताजन्म स्थान एवं माता-पिता-परिवार :
पिता के साथ आये रत्नराज को उदयपुर में आचार्य श्री प्रमोदसूरि
जी के प्रथम दर्शन एवं परिचय हुआ। उसी समय उन्होंने रत्नराज 'श्रीराजेन्द्रसूरिरास' एवं 'श्रीराजेन्द्रगुणमंजरी' के अनुसार वर्तमान
की योग्यता देखकर ऋषभदासजी से रत्नराज की याचना की। लेकिन राजस्थान प्रदेश के भरतपुर शहर में दहीवाली गली में पारिख परिवार
ऋषभदास ने कहा कि "अभी तो बालक है, आगे अवसर पर बडा के ओसवंशी श्रेष्ठी ऋषभदास रहते थे। आपकी धर्मपत्नी का नाम
होगा और उसकी भावना होगी तब देखा जायेगा।"14 केशरबाई था जिसे अपनी कुक्षि में श्रीराजेन्द्रसूरि जैसे व्यक्तित्व को धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रेष्ठी ऋषभदास की तीन
गृहस्थजीवनवृत्त - सन्ताने थो; दो पूत्र : बडे पुत्र का नाम माणिकचन्द एवं छोटे पुत्र
यात्रा एवं विवाह विचार :का नाम 'रतनचन्द' था, एवं एक कन्या थी जिसका नाम प्रेमा था।'
जीवनप्रभा एवं राजेन्द गुणमंजरी के अनुसार रत्नराज के सांसारिक यही 'रतनचन्द' आगे चलकर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि नाम जीवन के व्यापार-व्यवहार के शुभारंभ हेतु मांगलिक स्वरुप से प्रख्यात हुए।
तीर्थयात्रा कराने का परिवार में विचार हुआ। माता-पिता की आज्ञा वंश : पारख परिवार की उत्पत्ति :
लेकर बड़े भाई माणेकचंद के साथ धुलेवानाथ-केशरियाजी तीर्थ की आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि के अनुसार वि.सं. 1190
पैदल यात्रा करने हेतु प्रयाण किया। पहले भरतपुर से उदयपुर आये,
वहाँ से अन्यत्र यात्रियों के साथ केशरियाजी की यात्रा प्रारंभ की। में आचार्यदेव श्री जिनदत्तसूरि महाराज के उपदेश से राठौड वंशीय
तब रास्ते में पहाडियों के बीच आदिवासी भीलों ने हमला कर दिया। राजा खरहत्थ ने जैनधर्म स्वीकार किया। उनके तृतीय पुत्र भेंसाशाह
उस समय रत्नराज ने यात्रियों की रक्षा की। साथ ही नवकार मंत्र के पांच पुत्र थे। उनमें तीसरे पुत्र पासुजी आहेडनगर (वर्तमान आयड
के जाप के बल पर जयपुर के पास अंबर ग्राम निवासी सेठ शोभागमलजी उदेपुर) के राजा चंद्रसेन के राजमान्य जौहरी थे। उन्होंने विदेशी व्यापारी
की पुत्री रमा को व्यंतर के उपद्रव से मुक्ति भी दिलायी। सभी के हीरे की परीक्षा करके बताया कि "यह हीरा जिसके पास रहेगा
के साथ केशरियाजी की यात्रा कर वहाँ से उदयपुर, करेडा पार्श्वनाथ उसकी स्त्री मर जायेगी।" ऐसी सत्य परीक्षा करने से राजा पासुजी
एवं गोडवाड की पंचतीर्थी की यात्रा करके वापिस भरतपुर आये।15 के साथ 'पारखी' विरुद से व्यवहार करने लगे। बाद में 'पारखी'
ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि सेठ सोभागमलजी ने रत्नराज शब्द का अपभ्रंश 'पारिख' शब्द बना। पारिख पासुजी के वंशज वहाँ से मारवाड, गुजरात, मालवा, उत्तरप्रदेश आदि जगह व्यापार
के द्वारा अपनी पुत्री रमा को व्यंतर दोष से मुक्त किया जाने के हेतु गये। उन्हीं में से दो भाईयों के परिवार में से एक परिवार भरतपुर
कारण रमा की सगाई रत्नराज के साथ करने हेतु बात की थी लेकिन आकर बस गया था।
वैराग्यवृत्ति रत्नराज ने इसके लिए इंकार कर दिया।16
व्यापार :जन्मविषयक निमित्तसूचक स्वप्नदर्शन :
रत्नराज के पिता श्रेष्ठी ऋषभदास का हीरे-पन्ने आदि जेवरात ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्यश्री के जन्म के पहले
एवं साथ ही सोने-चांदी का वंश परम्परागत व्यापार था ।17 रत्नराज एक रात्रि में उनकी माता केशरबाई ने स्वप्न में देखा कि एक तरुण
ने भी 14 साल की छोटी सी उम्र में चैत्र सुदि प्रतिपदा के दिन व्यक्ति ने प्रोज्जवल कांति से चमकता हुआ रत्न केशरबाई को दिया -
परम्परागत हीरा-पन्ना आदि का व्यापार शुरु किया ।18 और केवल "गर्भाधानेऽथ साऽदक्षीत् स्वप्ने रत्नं महोत्तम्म्। निकट के
दो महीने में ही व्यापार का पूरा अनुभव प्राप्त कर लिया। तत्पश्चात् स्वप्नशास्त्री ने स्वप्न का फल भविष्य में पुत्ररत्न की प्राप्ति होना
अधिक व्यापार हेतु बडे भाई के साथ भरतपुर से पावापुरी, समेतशिखरजी बताया।
आदि तीर्थों की यात्रा कर कलकत्ता पहुंच गये। थोडे समय तक जन्म समय :
वहाँ व्यापार करके वहाँ से जलमार्ग से व्यापार हेतु सीलोन (श्रीलंका) आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरि के अनुसार वि.स. 1883 पहुंचे। वहाँ ढाई से तीन साल तक व्यापार करके न्याय-नीतिपूर्वक पौष सुदि सप्तमी, गुरुवार, तदनुसार 3 दिसम्बर ईस्वी सन् 1827
कल्पनातीत धन उपार्जन किया। व्यापार में अत्यधिक व्यस्तता एवं को माता केशरबाई ने देदीप्यमान पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्वोक्त
5. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 2, 5; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 7; जीवनप्रभा स्वप्न के अनुसार माता-पिता एवं परिवारने मिलकर नवजात पुत्र का नाम 'रत्नराज' रखा।। श्री राजेन्द्रसूरिरास में 'रतनचंद' नाम
जीवनप्रभा पृ. 4; राजेन्द्र ज्योति, खण्ड 2, पृ. 6 रखा - ऐसा भी पाठ मिलता हैं।12
7. जीवनप्रभा पृ. 3-4; राजेन्द्र ज्योति, खण्ड 2, पृ.6 व्यवहारिक शिक्षा :
जीवनप्रभा किञ्चिद्वक्तव्य पृ. 1, 2 आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरि एवं मुनि गुलाबविजय के
श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी, श्लोक 30, पृ.8
श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ.9, श्लोक 32, 33; जीवनप्रभा पृ.। अनुसार योग्य उम्र में पाठशाला में प्रविष्ट हुए मेधावी रत्नराज ने केवल
जीवनप्रभा पृ. 2; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 9 10 वर्ष की अल्पायु में ही समस्त व्यवहारिक शिक्षा अर्जित की।
श्री राजेन्द्रसूरि का रास-पूर्वार्ध खण्ड, 1 ढाल-3 साथ ही धार्मिक अध्ययन में विशेष रुचि होने से धार्मिक अध्ययन
जीवनप्रभा पृ. 4; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ.11, 12 में प्रगति की। और अल्प समय में ही प्रकरण और तात्त्विक 14. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पूर्वार्ध ढाल-5, पृ.11 ग्रंथों का अध्ययन कर लिया। तीव्र क्षयोपशम के कारण प्रखरबुद्धि
जीवनप्रभा पृ. 5, 6; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 13, 14
16. जीवनप्रभा पृ. 6; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 14 बालक रत्नराज 13 वर्ष की छोटी सी उम्र में अतिशीघ्र विद्या एवं
17. धरती के फूल पृ. 35 कला में प्रविण हो गए। श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार उसी समय 18. विरल विभूति, पृ. 7 Jain Education International
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13.
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