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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [3] मुनाफा होने के बावजूद भी माता-पिता के वृद्धत्व एवं गिरते स्वास्थ्य बडी दीक्षा :का समाचार पाकर दोनों भाई व्यापार समेटकर वापिस कलकत्ता होकर वि.सं. 1909 में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि त्रीज) के भरतपुर आ गये। दिन श्रीमद्विजय प्रमोद सूरि जी ने उदयपुर (राजस्थान) में आपको वैराग्यभाव : बडी दीक्षा दी। साथ ही श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरि जी एवं श्री देवेन्द्रसूरि माता-पिता की वृद्धावस्था एवं दिन-प्रतिदिन गिरते स्वास्थ्य जी ने आपको उस समय पंन्यास पद भी दिया । 28 के कारण दोनो भाई माता-पिता की सेवा में लग गए। अंतत: रत्नराज अध्यापन :ने उनको अंतिम आराधना करवाई एवं एक दिन के अंतर में माता आपकी योग्यता और स्वयं की अंतिम अवस्था ज्ञातकर पिता दोनों ने समाधिभाव से परलोक प्रयाण किया।20 श्रीपूज्य श्री देवेन्द्रसूरिने अपने बाल शिष्य धरणेन्द्रसूरि जी (धीर विजय) माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् उदासीन रत्नराज आत्म को अध्ययन कराने का मुनि श्री रत्नविजयजी को आदेश दिया।" चिन्तन में लीन रहने लगे। नित्य अर्ध-रात्रि में, प्रात: काल में कायोत्सर्ग, गुर्वाज्ञा व श्रीपूज्यजी के आदेशानुसार आपने वि.सं. 1914 से 1921 ध्यान, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन आदि में समय व्यतीत करते रहे। तक धीरविजय आदि 51 यतियों को विविध विषयों का अध्ययन सुषुप्त वैराग्यभावना के बीज अंकुरित होने लगे। इतने में उसी समय करवाया और स्व-पर दर्शनों का निष्णात बनाया ।30 (वि.सं. 1902) में पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी का चातुर्मास भरतपुर में श्रीपूज्यश्री धरणेन्द्रसूरिने भी विद्यागुरु के रुप में सम्मान हुआ। आपका तप-त्याग से भरा वैराग्यमय जीवन एवं तत्त्वज्ञान से हेतु आपको 'दफ्तरी' पद दिया। दफतरी पद पर कार्य करते हुए ओत-प्रोत वैराग्योत्पादक उपदेशामृतने रत्नराज के जिज्ञासु मन का समाधान आपने वि.सं. 1920 में राणकपुर तीर्थ में चैत्र सुदि 13 (महावीर किया जिससे रत्नराज के वैराग्यभाव में अभिवृद्धि हुई। फलस्वरुप जन्मकल्याणक) के दिन पांच वर्ष में क्रियोद्धारकरने का अभिग्रह उनकी दीक्षा-भावना जागृत हुई और वे भागवती दीक्षा (प्रवज्या) किया। ग्रहण करने हेतु उत्कंठित हो गये। वि.सं. 1922 का चातुर्मास प्रथम बार स्वतंत्र रुप से 21 साधुजीवनवृत्त - यतियों के साथ झालोर में किया । इसके बाद वि.सं. 1923 का दीक्षा : चातुर्मास श्रीपूज्यश्री धरणेन्द्रसूरि के आग्रह से घाणेराव में उन्हीं के दीक्षा को उत्कण्ठित रत्नराज में उपादान उछल रहा था, केवल । साथ हुआ। निमित्त की उपस्थिति आवश्यक थी। निमित्त का योग विक्रम सं. आचार्य पद पर आरोहण : पष्ठभूमि और प्रक्रिया1904 वैशाख सुदि 5 (पंचमी) को उपस्थित हो गया और इस ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि वर्षाकाल में ही घाणेराव प्रकार अपने बडे भ्राता माणिकचन्द्रजी की आज्ञा लेकर रत्नराज ने में 'इत्र' के विषय में मुनि रत्नविजय का श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि से उदयपुर (राज.) में पिछोला झील के समीप उपवन में आम्रवृक्ष विवाद हो गया। श्री रत्नविजय जी साधुचर्या के अनुसार साधुओं के नीचे श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरि जी से यतिदीक्षा ग्रहण की। इस को 'इत्र' आदि उपयोग करने का निषेध करते थे जबकि धरणेन्द्रसूरि प्रकार आपके दीक्षा गुरु आचार्य श्री प्रमोद सूरि जी थे। अब 19. श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ. 15, जीवनप्रभा पृ. 16 नवदीक्षित मुनिराज 'मुनि श्री रत्नविजयजी' के नाम से पहचाने 20. विरल विभूति, पृ. 8 से 11; जीवनप्रभा पृ. 7; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 15 जाने लगे। श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 16 से 18; जीवनप्रभा पृ. 6, 7, 8 अध्ययन : जीवनप्रभा पृ. 9; धरती के फूल पृ. 55; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 18; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 6 "पढमं नाणं तओ दया23 अर्थात् ज्ञान के बिना संयम दशवैकालिकसूत्र मूल 4/10 जीवन की शुद्धि एवं वृद्धि नहीं हैं। -इस बात को निर्विवाद सत्य जीवनप्रभा पृ. 10-11 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 17; राजेन्द्रगुणमञ्जरी, समझकर गुरुदत्त-ग्रहण-आसेवन शिक्षा के साथ साथ मुनि श्री पृ. 19; राजेन्द्र सूरि अष्टप्रकारी पूजा 4/1, 4 25. जीवनप्रभा पृ. 11 रत्नविजयजीने दत्तवित्त होकर अध्ययन प्रारंभ किया। व्याकरण, काव्य, श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 17 अलंकार, न्याय, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, कोश, आगम आदि विषयों श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी पृ. 4; जीवनप्रभा पृ. 11; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, का सर्वांगीण अध्ययन आरम्भ किया। पृ. 19 मुनि रत्नविजयजीने गुर्वाज्ञा से खरतरगच्छीय यति श्री श्री कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी पृ. 4; जीवनप्रभा पृ. 11; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 20 सागरचंदजी के पास व्याकरण,साहित्य, दर्शन अदि का अध्ययन श्री राजेन्द्रगुणमञ्चरी पृ. 21; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 18 किया (वि.सं. 1906 से 1909) 14 तत्पश्चात् नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, जीवनप्रभा पृ. 14-15; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 18 टीका, वृत्ति आदि पंचागी सहित जैनागमों का विशद अध्ययन यो हि योग्यग्रामादौ चतुरो मासान् स्थातुं यतीनादिशेत्, अपराधिनाममीषामुचितं दण्डयेत कस्मैचित् पंन्यासोपाध्यायाधुपाधिप्रदाने वि.सं. 1910-11-12-13 में श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरि के पास किया। प्रमाणपत्र वितरेत, श्री पूज्यस्याऽऽयव्ययकोषांश्च प्रबन्धयेत, स एवं 'दफतरी' इनकी अध्ययन जिज्ञासा और रुचि देखकर श्री देवेन्द्रसूरि ने इन्हें निगद्यते। सम्मान्यते चैष तत्पसंप्रदाये महामात्यसाम्येन । विद्या की अनेक दुरुह और अलभ्य आमनायें प्रदान की 125 श्री - कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनीगतो जीवनपरिचयः पृ. 5 टिप्पणी ____32. जीवनप्रभा पृ. 19; श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 25, 28, 33 राजेन्द्रसूरि रास (पूर्वाद्ध) के लेखक रायचन्दजी के अनुसार मुनि रत्नविजय विरल विभूति, पृ. 33 . ने ज्योतिषका अभ्यास जोधपुर(राजस्थान) में चंद्रवाणी ज्योतिषी जीवनप्रभा पृ. 15, राजेन्द्रगुणमञ्चरी, पृ. 23 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, के पास किया।26 पृ. 32, 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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