________________
[186]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तो अवश्य पहुँच सकता है जब साधारण संयोग बना रहने पर भी आत्मा की दशा :आत्मा उससे निस्संग और निर्लेप बन जाता है।
आज का विज्ञान हमें बताता है कि जीव जो भी विचार आज इस अशुद्ध आत्मा की दशा अर्धभौतिक जैसी हो करता है उसकी ढेडी-सीधी; और उथली-गहरी रेखाएँ मस्तिष्कमज्जा रही है। इन्द्रियाँ यदि न हों तो सुनने और देखने आदि की शक्ति में खिंचती जाती हैं, और उन्हीं के अनुसार स्मृति तथा वासनाएँ उबुद्ध रहने पर भी वह शक्ति जैसी-की-तैसी रह जाती है और देखना और होती हैं। जैसे अग्नि से तपे हुए लोहे के गोले को पानी में छोडने सुनना नहीं होता। विचारशक्ति होने पर भी यदि मस्तिष्क ठीक नहीं पर वह गोला जल के बहुत से परमाणुओं को अपने भीतर सोख है तो विचार और चिन्तन नहीं किये जा सकते। यदि पक्षाघात हो लेता है और भाप बनाकर कुछ परमाणुओं को बाहर निकालता है। जाय तो शरीर देखने में वैसा ही मालूम होता है पर सब शून्य हो
जब तक वह गर्म रहता है, पानी में उथल-पुथल पैदा करता है। जाता है। निष्कर्ष यह कि अशुद्ध आत्मा की दशा और इसका सारा कुछ परमाणुओं को लेता है, कुछ को निकालता है, कुछ को भाप विकास बहुत कुछ पुद्गल के अधीन हो रहा है। और तो जाने दीजिए, बनाता, यानी एक विचित्र ही परिस्थिति आसपास के वातावरण में जीभ के अमुक-अमुक हिस्सों में अमुक-अमुक रसों के चखने की उपस्थित कर देता है। उसी तरह जब वह आत्मा राग-द्वेष आदि निमित्तता देखी जाती है। यदि जीभ के आधे हिस्से में लकवा मार से उत्तप्त होता है; तब शरीर में एक अद्भूत हलन-चलन उत्पन्न करता जाय तो शेष हिस्से से कुछ रसों का ज्ञान हो पाता है, कुछ का
है। क्रोध आते ही आँखे लाल हो जाती हैं, खून की गति बढ जाती नहीं। इस जीवन के ज्ञान, दर्शन, सुख, राग, द्वेष, कला, विज्ञान
है, मुँह सूखने लगता है, और नथने फडकने लगते हैं। जब कामवासना आदि सभी भाव बहुत कुछ इसी जीवन पर्याय के अधीन हैं।
जागृत होती है तो सारे शरीर में एक विशेष प्रकार का मंथन शुरु एक मनुष्य जीवन भर अपने ज्ञान का उपयोग विज्ञान या
होता है, और जब तक वह कषाय या वासना शान्त नहीं हो लेती धर्म के अध्ययन में लगाता है, जवानी में उसके मस्तिष्क में भौतिक
तब तक यह चहल-पहल और मंथन आदि नहीं रुकता। आत्मा उपादान अच्छे और प्रचुर मात्रा में थे, तो उसके तन्तु चैतन्य को जगाये
के विचारों के अनुसार पुद्गल द्रव्यों में भी परिणमन होता है और रखते थे। बुढापा आने पर जब उसका मस्तिष्क शिथिल पड जाता
उन विचारों के उत्तेजक पुद्गल आत्मा के वासनामय सूक्ष्म कर्मशरीर है तो विचार शक्ति लुप्त होने लगती है और स्मरण मन्द पड जाता
में शामिल होते जाते हैं। जब-जब उन कर्म पुद्गलों पर दबाव पडता है। वही व्यक्ति अपनी जवानी में लिखे गए लेख यदि बुढापे में
है तब-तब वे फिर रागादि भावों को जगाते हैं। फिर नये कर्म पुद्गल पढता हैं तो उसे स्वयं आश्चर्य होता है। कभी-कभी तो उसे यह
आते हैं और उन कर्म पुद्गलों के परिपाक के अनुसार नूतन रागादि विश्वास ही नहीं होता कि यह उसीने लिखा होगा। मस्तिष्क की
भावों की सृष्टि होती है। इस तरह रागादि भाव और कर्म पुद्गलों
के संबंध का चक्र तब तक बराबर चालू रहता है, जब तक कि यदि कोई ग्रंथि बिगड जाती है तो मनुष्य पागल हो जाता है। दिमाग
अपने विवेक और चारित्र से रागादि भावों को नष्ट नहीं कर दिया का यदि कोई केन्द्र अतिक्रियाशील या निष्क्रिय हो गया तो उन्माद,
जाता। सन्देह, विक्षेप और उद्वेग आदि अनेक प्रकार की धाराएँ जीवन को
सारांश यह कि जीव की ये राग-द्वेषादि वासनाएँ और पुद्गल ही बदल देती है। मस्तिष्क के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार के
कर्मबन्ध की धारा बीज-वृक्षसन्तति की तरह अनादि से चालु है। चेतन भावों को जागृत करने के विशेष उपादान रहते हैं।
पूर्वसंचित कर्म के उदय से इस समय राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते आज भिन्न भिन्न भावों को उत्तेजित करने के लिए भिन्न
हैं और तत्काल में जो जीव की आसक्ति होती है, वही नूतन कर्मबन्ध भिन्न प्रकार की रासायनिक दवाएँ प्रयुक्त की जाती हैं और उनसे
कराती है। यह आशंका करना कि 'जब पूर्वकर्म से रागादि और रागादि राग, द्वेष, निद्रा, मद, मोह आदि भाव उत्पन्न होते हुए भी देखे जाते
से नये कर्म का बन्ध होता है तब इस चक्र का उच्छेद कैसे हो हैं। इन भावोत्तेजक भौतिक द्रव्यों के प्रभाव को देखकर हम इस
सकता है?' उचित नहीं है; कारण यह है कि केवल पूर्व कर्म के निश्चित परिणाम पर तो पहुँच ही सकते हैं कि हमारी सारी पर्याय
फल का भोगना ही नये कर्म का बन्धक नहीं होता, किन्तु उस शक्तियाँ जिनमें ज्ञान, दर्शन, सुख, धैर्य, राग, द्वेष और कषाय आदि
भोग काल में जो नूतन रागादि भाव उत्पन्न होते हैं, उनसे बन्ध होता शामिल हैं, इस शरीर पर्याय के निमित्त से विकसित होती है। शरीर
है। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि के पूर्वकर्म के भोग नूतन रागादि के नष्ट होते ही समस्त जीवन भर में उपार्जित ज्ञानादि पर्याय शक्तियाँ
भावों को नहीं करने से निर्जरा के कारण होते हैं जब कि मिथ्यादृष्टि प्रायः बहुत कुछ नष्ट हो जाती है। परलोक तक इनके कुछ सूक्ष्म
नूतन रागादि से बंध ही बंध करता है। सम्यग्दृष्टि पूर्वकर्म के उदय संस्कार ही साथ में जाते हैं।
से होनेवाले रागादिभावों को अपने विवेक से शांत करता है और व्यवहार से जीव मूर्त भी है :
उनमें नई आसक्ति नहीं होने देता। यही कारण है कि उसके पुराने जैनदर्शन में व्यवहार से जीव को मूर्त मानने का अर्थ है कर्म अपना फल देकर झड जाते हैं और किसी नये कर्म का उनकी कि अनादि से यह जीव शरीर सम्बद्ध ही मिलता आया है। स्थूल जगह बन्ध नहीं होता। अतः सम्यग्दृष्टि तो हर तरफ से हल्का हो शरीर छोडने पर भी सूक्ष्म (कार्मण) शरीर सदा इसके साथ रहता चलता है; जब कि मिथ्यादृष्टि नित्य ही नयी वासना और आसक्ति है। इसी सूक्ष्मशरीर के नाश को ही मुक्ति कहते हैं। चार्वाक का के कारण तीव्रता से कर्मबन्धनों में जकडता जाता है। देहात्मवाद देह के साथ ही आत्मा की समाप्ति मानता है जब कि
जिस प्रकार हमारे भौतिक मस्तिष्क पर अनुभवों की सीधी, जैन के देह परिमाण-आत्मवाद में आत्मा की स्वतंत्र सत्ता होकर भी टेढी, गहरी, उथली आदि असंख्य रेखाएं पडती रहती हैं, जब एक उसका विकास अशुद्ध दशा में देहाश्रित यानी देहनिमित्तिक माना प्रबल रेखा आती है तो वह पहले की निर्बल रेखा को साफ कर उस गया है।
जगह अपना गहरा प्रभाव कायम कर देती है और यदि विजातीय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org