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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [187] संस्कार की है तो उसे पोंछ देती है। अन्त में कुछ ही अनुभव रेखाएँ अपना गहरा या उथला अस्तित्व कायम रखती हैं। इसी तरह आज जो राग-द्वेषादिजन्य संस्कार उत्पन्न होते हैं और कर्मबन्धन करते हैं; वे दूसरे ही क्षण शील, व्रत और संयम आदि की पवित्र भावनाओं से धुल जाते हैं या क्षीण हो जाते हैं। यदि दूसरे ही क्षण अन्य रागादिभावों का निमित्त मिलता है, तो पूर्वबद्ध पुद्गलों में और भी काले पुद्गलों का संयोग तीव्रता से होता जाता है। इस तरह जीवन के अन्त में कर्मो का बन्ध, निर्जरा, अपकर्षण (हानि), उत्कर्षण (वृद्धि), संक्रमण (एक दूसरे के रुप में बदलना) आदि होते-होते जो कर्मराशि अवशिष्ट रहती है वही सूक्ष्म कर्म-शरीर के रुप में परलोक तक जाती है। जैसे तेज अग्नि पर उबलती हुई बटलोई में दाल चावल, शाक आदि जो भी डाला जाता है उसकी ऊपर-नीचे अगल-बगल में उफान लेकर अन्त में एक खिचडीसी बन जाती है, उसी तरह प्रतिक्षण बँधनेवाले अच्छे या बुरे कर्मो में, शुभ भावों से शुभ कर्मो में रस-प्रकर्ष और स्थिति वृद्धि होकर अशुभ कर्मों में रसहीनता और स्थितिच्छेह हो जाता है। अन्त में एक पाकयोग्य स्कन्ध बच रहता है, जिसके क्रमिक उदय से रागादि भाव और सुखादि उत्पन्न होते हैं। अथवा जैसे पेट में जठराग्नि से आहार का मल, मूल, स्वेद आदि के रुप से कुछ भाग बाहर निकल जाता है, कुछ वहीं आत्मसात् होकर रक्तादि रुप से परिणत होता है और आगे जाकर वीर्यादि रुप बन जाता है। बीच में चूर्ण आदि आदि के संयोग से उसकी लघुपाक (शीघ्रता से पचना), दीर्धपाक (कठिनता से पचना) आदि अवस्थाएँ भी होती हैं, पर अन्त में होनेवाले परिपाक के अनुसार ही भोजन सुपाच्य या दुष्पाच्य कहा जाता है, उसी तरह कर्म का भी प्रतिसमय होनेवाले अच्छे और बुरे भावों के अनुसार तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मध्यम, मृदुतर और मृदुतम आदि रुप से परिवर्तन बराबर होता रहता है और अन्त में जो स्थिति होती है, उसके अनुसार उन कर्मो को शुभ या अशुभ कहा जाता है। यह भौतिक जगत् पुद्गल और आत्मा दोनों से प्रभावित होता है। जब कर्म का एक भौतिक पिण्ड, जो विशिष्ट शक्ति का स्रोत है, आत्मा से सम्बद्ध होता है, तो सूक्ष्म और तीव्र शक्ति के अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते हैं और प्राप्त सामग्री के अनुसार उस संचित कर्म का तीव्र, मन्द और मध्यम आदि फल मिलता है। इस तरह यह कर्मचक्र अनादि काल से चल रहा है और तब तक चालू रहेगा जब तक कि बन्धकारक मूल रागादिवासनाओं का नाश नहीं कर दिया जाता। बाह्य पदार्थो के - नोकर्मो के समवधान के अनुसार कर्मो का यथासंभव प्रदेशोदय या फलोदय रुप से परिपाक होता रहता है। उदयकाल में होनेवाले तीव्र, मध्यम और मन्द शुभाशुभ भावों के । अनुसार आगे उदय में आनेवाले कर्मो के रसदान में भी अन्तर पड जाता है। तात्पर्य यह कि कर्मों का फल देना, अन्य रुप में देना या न देना, बहुत कुछ हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। इस तरह जैन दर्शन में यह आत्मा अनादि से अशुद्ध माना गया है और प्रयोग से यह शुद्ध हो सकता है। एक बार शुद्ध होने के बाद फिर अशुद्ध होने का कोई कारण नहीं रह जाता। 8. चारित्र का व्यवहारिक स्वरुप: यह तो संसार के स्वरुप से ही स्पष्ट है कि संकल्पतः धारणीय चारित्र निगोद से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक संभव ही नहीं है क्योंकि वहाँ कर्तव्याकर्तव्य का विवेक हो नहीं सकता। किन्तु संज्ञी अवस्थाओं में भी देवयोनि में यह चारित्र धारण नहीं किया जाता। चारित्र धारण करने के लिए मनुष्य योनि और तिर्यञ्च संज्ञी पंचेन्द्रिय योनि ही बचती हैं। अर्थात् जहाँ एक ओर चारित्र का उपादान आत्मा का स्वरुप है वहीं दूसरी ओर निमित्त भी तदनुरुप आवश्यक है। यदि चारित्र के प्रवृत्तिपक्ष और निवृत्तिपक्ष देखे जायें तो यह हस्तमालकवत् स्पष्ट हो जाता है कि वर्जनापक्ष मनुष्य योनि के लिए ही कहा गया है। चाहे वह असत्य वचन का त्याग हो या परस्त्री गमन या वेश्यावृत्ति का त्याग हो अथवा परिग्रह का त्याग या परिमाण - ये सब के सब मनुष्य योनि से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार प्रवृत्तिपक्ष में चतुर्विशति स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि सब मानव के करणीय हैं। यद्यपि तिर्यग्योनि में भी अनेक जीवों के अमुक व्रतरुप चारित्र धारणा किये जाने के अनेक दृष्टान्त पुराणों में आये है किन्तु उन सबका सम्बन्ध किसी न किसी रुप में मानव योनि के जाति-स्मरण (पूर्वजन्म के स्मरण) से जुड़ा हुआ है। संक्षेप में हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि चारित्रधारण का सीधा सम्बन्ध मनुष्य योनि से है। जब हम इस चारित्र के विकास की भूमिकाओं की ओर दृष्टिपात करते हैं तो हमें एक अन्य निमित्त की जानकारी मिलती है कि अशुभोपयोग और शुभोपयोग के समूल नाश के लिए मनुष्य योनि में भी वज्रऋषभनाराच संहनन का होना आवश्यक है। इसके अभाव में जीव के राग-द्वेष भाव नष्ट नहीं हो पाते। इसका कारण यह है कि शरीर संहनन की दृढता के बिना पौद्गलिक प्रभावों से मन शीघ्र ही प्रभावित हो जाता है और मन की एकाग्रता नहीं हो पाती। मन ही बन्ध और मोक्ष में निमित्त कारण हैं। सिद्धान्त को समझने का विस्तार बहुत है, जैसे - एकाग्र होने के साथ चिन्ता का रोकना ध्यान कहलाता है38; इस ध्यान के प्रकार, उनमें कषायों की तरतमता (लेश्या), उनके साथ-साथ कर्मों की क्षयोपशम की स्थिति, परिषहजय आदि चारित्र का ही विस्तार है। किन्तु संक्षेप में इसे रागद्वेषनिवृत्तिमूलक अहिंसा कहा जाता है। 9. चारित्र का आधार : जैसा कि पूर्व में कहा गया है, जीव के दो तरह के परिणाम होते हैं : स्वभाव परिणाम और विभाव परिणाम । विभाव परिणाम भी शुभ और अशुभ रुप से दो प्रकार के हैं, इन्हीं दो वर्गों में समस्त विकारी भाव समाये हुए हैं। इन्हें दूसरे प्रकार से (पर्यायवाची नामों से नहीं) राग और द्वेष के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जाता है। न्यायदर्शन में रागद्वेषमोह रुप त्रैराश्य में मोह को भी सम्मिलित किया गया है। जैन सिद्धान्त में मोह को तो प्रथमतः ही घातक माना गया है (दर्शनमोह और चारित्रमोह नाम से इसका बहुत विस्तार से विवेचन है), इसके 37. क. धन्यकुमार चरित्र, सुनन्दा-रुपसेन अधिकार, जीव-विचार प्रकरण -महेसाणा प्रकाशन ख. कल्पसूत्र बालावबोध, पंचम व्याख्यान, चंडकौशिक सर्प उपसर्गाधिकार 38. क. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् आ मुहूर्तात् । -तत्त्वार्थसूत्र 9/27-28 ख. तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्। - पातञ्चलयोगदर्शन 3/2 39. तत्रैराश्यं रागद्वेषमोहार्थान्तराभावात् । न्यायदर्शन 4/1/3 40. तत्त्वार्थसूत्र 8/10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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