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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [253]
13. मंत्र पिण्ड दोष- भिक्षा प्राप्त करने के लिए मुनि के द्वारा नाना प्रकार के मंत्र, तंत्र और उसके साधन की विधि बतायी जाना। इससे उपरोक्त सभी भयों की संभावना होने से मंत्र पिण्ड निषिद्ध है परन्तु शासन प्रभावना के या श्री संघ के विशिष्ट प्रसङ्ग या कार्य हेतु मंत्र प्रयोग किये जाते हैं। 62 14.चूर्ण पिण्ड दोष - मुनि के द्वारा वशीकरण, मारण, उच्चाटन, कार्मण आदि के चूर्ण या उनकी विधि बताकर या अञ्जन आदि के । प्रयोगपूर्वक आहारादि ग्रहण करना । राजभय, लोक निंदा, शासन उडाहादि उपस्थित होने की संभावना होने से चूर्णपिण्ड निषिद्ध हैं।63 15. योग पिण्ड दोष - वशीकरण, सौभाग्य या दुर्भाग्यकारक शरीर लेप, पादलेप, नेत्राञ्जन या तिलक आदि के प्रयोग एवं उनको तैयार करने का उपाय बताकर या सिखाकर आहारादि लेना 'योग पिण्ड दोष' हैं। सामान्यतया निषेध होने पर भी 'असिव' आदि प्रसङ्गो की उपस्थिति में योगपिण्ड ग्रहण करने में दोष नहीं हैं।66 16. मूलकर्म पिण्ड दोष - गर्भपात, गर्भस्तम्भन, गर्भप्रसव, क्षतयोनिकरण, अक्षतयोनिकरण, रक्षाबंधन आदि के उपाय बता या सिखाकर आहारादि ग्रहण करना 'मूलकर्म पिण्ड दोष' कहलाता है। इससे जीव हिंसा, मैथुन संततिः (मैथुन परंपरा), प्रवचन मालिन्य आत्म विनाश, यावज्जीव भोगान्तराय इत्यादि दोष उत्पन्न होते हैं अतः मुनि के लिए मूलकर्म एवं मूलकर्म पिण्ड दोष से दूषित आहार सर्वथा निषिद्ध हैं।
आहार ग्रहण करते समय साधु-साध्वी को इन दोषों को टालने में अवश्य सावधानी रखनी चाहिए। दस एषणा दोष :
निम्नांकित दस दोष आहार ग्रहण करते समय साधु और गृहस्थ दोनों के संयोग से लगते हैं, अतः इन्हें टालने में पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए।
संकियमक्खियनिक्खित्ते,पिहिय साहरियदायगुम्मीसे । अपरियण लित्त ड्डिय, एसण दोसा दस हवन्ति ।।
- पिण्ड नियुक्ति 520 1.शंकित दोष - आधाकर्मादि 16 और प्रक्षिप्तादि 9 इस प्रकार कुल 25 दोषों से दूषित होने की शंका सहित आहार ग्रहण करना 'शंकित दोष' है। मुनि को कभी भी शंकित होकर आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि शुद्धाहार भी शंकित दोष से अशुद्ध हो जाता है और निःशंकित होने पर अशुद्ध भी शुद्धाहार माना जाता हैं।68 (श्रुतज्ञान का उपयोग होने से श्रुत के प्रामाण्य से)।
श्रुतज्ञानी छद्मस्थ साधु श्रुतज्ञान से जिस आहार को शुद्ध जानकर ग्रहण करे, वह आहार केवलज्ञानी की द्रष्टिमें अशुद्ध होने पर भी वे वापरते हैं क्योंकि यदि केवलज्ञानी न वापरे तो श्रुतज्ञान में अविश्वास उत्पन्न होता है, श्रुतज्ञान अप्रमाण होने से समस्त क्रिया निष्फल होती हैं। क्योंकि छद्मस्थ जीव को श्रुतज्ञान के बिना यथायोग्य सावधनिरवद्य, पाप-अपाप, विधि-निषेध आदि क्रिया का ज्ञान नहीं हो सकता। (श्रुतज्ञान अप्रमाण होने से चारित्र का अभाव और उससे मोक्ष का अभाव होता है। मोक्ष का अभाव होने से दीक्षा की समस्त प्रवृत्ति नष्ट होती है क्योंकी दीक्षा का मोक्ष के अलावा अन्य कोई प्रयोजन नहीं है।
2.प्रक्षिप्त दोष - सचित पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय या माँस, वसा. खन, मदिरा आदि निन्दनीय पदार्थो, मूत्र, उच्चारादि से स्पृष्ट संघद्रित आहारादि ग्रहण करना 'प्रक्षिप्त दोष' हैं।70
प्रक्षिप्त दोष से दोषित आहार ग्रहण करने पर जीव हिंसा और लोक निंदा होने से प्रवचन उड्डाह होता है। अत: मुनि के लिए एसा आहार त्याज्य हैं। 3.निक्षिप्त दोष - सचित पृथ्वी (या नमक), जल, अग्नि, वनस्पति
आदि पर रखे हुए अचित्त आहारादि को रखना 'निक्षिप्त दोष' हैं।2 निक्षिप्त दोष दुष्ट आहार ग्रहण करने पर सचित संघट्टन (स्पर्श) होने से जीव हिंसा होती हैं। अतः अनन्तर सचित निक्षिप्त आहार का मुनि को त्याग करना चाहिए और परम्परा सचित संघट्ट आहार को ग्रहण करने में यतनापूर्वक वर्तना चाहिए। 4.पिहित दोष - सचित पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति आदि से ढंकी हुई आहारादि वस्तु को लेना 'पिहित दोष' है। अर्थात् शुद्ध आहार भी सचित पानी या उससे भरे हुए घडे आदि से काष्ठपीठादि से, पत्थर से, लेप से या अन्य सचित पदार्थ से या जलती हुई अग्नि से अनन्तर ढंका हुआ हो तो मुनि के लिए त्याज्य है; परंपरा से हो तो जयणापूर्वक वर्तना चाहिए। 5. संहृत दोष - देने लायक पात्र में रखे हुए आहारादि को दूसरे पात्र में लेकर साधु-साध्वी को देना, 'संहृत दोष' कहलाता हैं। यदि बहुत बडे पात्र में देय आहार हो (जिसे उठाना संभव न हो) और वह सामने हो
और उसमें से छोटे बर्तन में निकालकर देवें तब तो वह आहार ग्राह्य हैं, क्योंकि बडा बर्तन उठाने में आहार नीचे गिरने की, उष्ण हो तो जलने की, जीव हिंसा की संभावना है। परन्तु यदि मुनि अधिक मात्रा में न माँग ले या ज्यादा न देना पडे - एसी बुद्धि से दाता अन्य आहार को सचित्तादि में रखकर देय आहार को दूसरे पात्र में रखकर देवें तो उस आहार को ग्रहण करने में संहत दोष लगता है। इसमें अप्रीति, अभाव, पात्र में संवरण करते समय आहारादि नीचे गिरने से जीव हिंसादि दोष लगते हैं। अतः एसा आहार त्याज्य हैं। 6.दायक दोष - 1. आठ वर्ष से कम उम्र वाला बालक 2. वृद्ध 3. मत्त (नसायुक्त) 4. उन्मत (पागल) (5) कंपमान 6. ज्वर पीडित 7. नेत्रविकल (अंध या कम देखने वाला) 8. गलत् कुष्ठी 9. जूते पहना हुआ 10. बेडी वाला (कैदी) 11-12. हाथ-पैर से छिन (लूला, लँगडा) 13. नपुंसक 14. सगर्भा 15. बालवत्सा (स्तनपान कराती हुई स्त्री) 16. भोजन बनाती या करती हुई 17. दही बिलोवती हुई 18. स्फोटक कार्य
62. अ.रा.पृ. 6/1146 63. अ.रा.पृ. 6/24 64. अ.रा.पृ. 3/1196 65. अ.रा.पृ. 4/1640 66. वही, निशीथ चूर्णि-13 वाँ उद्देश 67. अ.रा.पृ. 6/338, पिण्ड नियुक्ति-5/2 68. अ.रा.पृ. 7/800, 3/54,55 69. पिण्ड नियुक्ति -524, 425 70. अ.रा.पृ. 6/37, 3/55, 56 71. अ.रा.पृ. 3/56 72. अ.रा.पृ. 4/2023 73. अ.रा.पृ. 4/2025, 3/58 74. अ.रा.पृ. 3/59, 5/940
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