________________
[252]... चतुर्थ परिच्छेद
इन सोलह दोषों को उद्गम दोष कहते हैं, जो आहारादि देने वाले गृहस्थों से होते हैं। आहारादि ग्रहण करते समय साधु-साध्वी को ये दोष अवश्य टालने चाहिए।
सोलह उत्पादना दोष's :
:
"
"धाई दूइ निमित्ते, आजीव वणीमगे विगिच्छिा य । कोहे माणे माया, लोभे य हवंति दस एए ॥ पुपिच्छासंथव, विज्जा मंते य चुन्न जोगे य । अप्पाणाइ दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य ॥" ये सोलह दोष साधु-साध्वी के द्वारा आहार लेने संबंधी हैं, अतः इन्हें 'उत्पादना दोष' कहते हैं।
1. धात्री पिण्ड दोष- साधु-साध्वी के द्वारा गृहस्थ के बालकों को दूध पिलाना, स्नान कराना, श्रृंगार कराना, खिलाना, गोद में बैठाना - इत्यादि कार्य करके आहारादि ग्रहण करना 'धात्री पिण्ड दोष' कहलाता है। इससे मुनि के प्रति गृहस्थ को राग, प्रद्वेष एवं लोक में मुनि के चारित्र में शङ्का, अवर्णवाद, उड्डाह, प्रवचन मालिन्यादि होता हैं।46 2. दूती पिण्ड दोष मुनि के द्वारा एक गाँव से दूसरे गाँव या उसी गाँव मेंदूत या दूती की तरह प्रकट या गुप्त समाचार कह करके आहारादि वस्तु ग्रहण करना दूती पिण्ड दोष' कहलाता हैं। 47 इससे परस्पर वैर, साधु के ऊपर द्वेष और प्रवचनमालिन्य होता हैं।
-
3. निमित्त पिण्ड दोष भौम, उत्पात, स्वप्न, आन्तरिक्ष, अङ्गस्फुरण, स्वर, लक्षण, व्यञ्जन इन आठ निमित्त शास्त्रों के आधार से भूतभविष्य या वर्तमान संबंधी लाभ - अलाभ, सुख-दुःख या जीवितमरण इत्यादि फल बताकर आहारादि वस्तु ग्रहण करना 'निमित्त पिण्ड 'दोष' हैं। इससे शंका, प्रद्वेष, जीव हिंसा, मिथ्यात्व आज्ञा विराधना इत्यादि होता है, अतः साधु को निमित्तफल नहीं बताना 148 4. आजीव पिण्ड दोष मुनि के द्वारा अपने जाति, कुल, गण, कर्म, शिल्प, तप, श्रुत आदि का उत्कर्ष दिखाकर या उनको प्रकट कर आहारादि ग्रहण किया जाना 'आजीव पिण्ड दोष' हैं। इससे दाता को मुनि के प्रति राग-द्वेष होता है। अन्य मुनियों को आहारादि दुर्लभ होने की भी संभावना रहती हैं। 49
-
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 8. मान पिण्ड दोष • मुनि के द्वारा साधुओं के समक्ष अभिमान पूर्वक 'मैं लब्धिवाला हूँ। मैं अमुक गृहस्थ के घर से आप सबको सर आहार लाकर देऊँ तब मुझे लब्धिधारी जानना।' -एसी प्रतिज्ञा करके गृहस्थ को पीडा पहुँचाकर आहार ग्रहण करना 'मान पिण्ड दोष' कहलाता हैं 54 इससे गृहस्थो में आपस में प्रद्वेष और क्लेश के कारण यदि स्त्री आत्मविपत्ति (आत्महत्या) करे तो प्रवचन उड्डाह (शासन निंदा) होता हैं 155 अतः मान पिण्ड त्याज्य हैं।
-
-
5. वनीपक पिण्ड दोष मुनि के द्वारा अपनी दीनता या गरीबी दिखलाकर या अन्य धर्मी के समक्ष मैं तुम्हारे साधुओं का भक्त हूँ - एसा कहकर उनके ब्राह्मणादि भक्तों से आहारादि वस्तु के लिए याचना करना 'वनीपक पिण्ड दोष' कहलाता हैं। इससे साधु के प्रति राग, प्रद्वेष, मिथ्यात्व की प्रशंसा, मिथ्या धर्म स्थिरता, सम्यक्त्व में अतिचार इत्यादि दोष उत्पन्न होते हैं 150
Jain Education International
6. चिकित्सा पिण्ड दोष मुनि के द्वारा गृहस्थ को विविध प्रकार की औषधि बताकर अथवा रोगादि का उपाय बता कर या चिकित्सा करके आहारादि ग्रहण करना 'चिकित्सा पिण्ड दोष' हैं 51 इससे मुनि के संयम प्राणों का नाश, पृथ्वीव्यादि जीवों का नाश, रोग बढने पर साधु की निंदा एवं प्रवचन मालिन्य होता है 152
-
-
7. क्रोध पिण्ड दोष मुनि के द्वारा गृहस्थ को अपना विद्या प्रभाव, तपः प्रभाव, राजमान्यता ज्ञात करवाकर अथवा शाप देकर, डराकर आहार ग्रहण करना 'क्रोध पिण्ड दोष' हैं 153 इससे मिथ्यात्व और धर्मविराधना होती हैं।
-
9. माया पिण्ड दोष मुनि के द्वारा माया कपटपूर्वक अलग-अलग वेश तथा भाषा बदलकर आहारादि वस्तु ग्रहण करना 'माया पिण्ड' कहलाता हैं । कषायों से मुक्त होने हेतु यद्यपि मुनि के लिए माया पिण्ड का निषेध है तथापि विशेष परिस्थितियों में ग्लान, तपस्वी, अन्य स्थान विहार करके आये हुए मुनि, स्थविर (वृद्ध) या संघ के विशेष कार्य • अपवाद मार्ग से मुनि माया पिण्ड दोषयुक्त आहार ग्रहण भी कर सकते हैं 156
10. लोभ पिण्ड दोष उत्तम भोजनादि मिलने की लालसा से गृहस्थों के घर, दुकान आदि में घूमते रहना 'लोभ पिण्ड दोष' हैं। इससे चित्त भ्रम, अति लोभ, आहार लालसा, समय का अपव्यय और शासननिन्दा की संभावना होने से दूषिताहार त्यज्य है। 57
11. पूर्वपश्चात्संस्तव दोष- गृहस्थ के माता-पिता सास-ससुर इत्यादि की प्रशंसा कर या उनसे अपना संबंध या परिचय बताकर आहारादि ग्रहण करना 'पूर्वपश्चात्संस्तव दोष' हैं 8 मुनि को गृहस्थ का विनय, प्रशंसादि करना निषिद्ध है। अतः संस्तवदूषिताहार त्याज्य हैं। 59 12. विद्या पिण्ड दोष देवताष्ठित विद्या के बल से या गृहस्थ को विद्या सिखाकर या उसकी साधना बताकर या व्याख्यान के बदले में आहार ग्रहण करना 'विद्या पिण्ड दोष' हैं। 60
इससे प्रद्वेष, स्तम्भन, उच्चाटन, मारण, लोक जुगुप्सा, राजभय इत्यादि की संभावना होने से विद्या पिण्ड दोष से दुष्ट आहार त्याज्य हैं । 61
45.
46.
47.
48.
49.
50.
51.
अ.रा. पृ. 2/864 पिण्डनिर्युक्ति-408, 409
अ.रा. पृ. 4/2739
अ.रा. पृ. 4/2740-41
अ.रा.पू. 4/2082-83; आचारांग 2 // 1 /9; निशीथ चूर्णि - 13 वाँ उद्देश, गाथा 142 से 147
अ. रा. पृ. 2 /116
अ. रा. पृ. 2/ 114-15
अ. रा. पृ. 6/816-17
अ.रा. पृ. 4/2237-38-39
अ. रा. पृ. 3/686
अ. रा. पृ. 6/240
अ. रा.पू. 6/242; पिण्ड निर्युक्ति- 473
52.
53.
54.
55.
56. अ. रा. पृ. 6/253
57.
अ. रा. पृ. 6/253
58.
अ. रा. पृ. 6/753, 754
59.
अ. रा. पृ. 5/1065
60.
अ.रा.पु. 6/1148
61. अ.रा. पृ. 6/1145, 1148
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
17