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________________ [70]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन के बाद उपोद्घात को रखा गया है परंतु उपोद्घात प्रस्तावना के पूर्व वह वाक्य सापेक्ष कथन को सूचित करता है। यद्यपि जैनागमों में लिखा जा चुका था। यही कारण है कि उपोद्घात में आयी हुई प्रयुक्त सभी वाक्यों में 'स्यात्' यह विशेषण देखने को नहीं मिलता अन्य सामग्री प्रस्तावना से अत्यन्त भिन्न है। फिर भी जैन शासन का समग्र कथन 'स्यात्' के ही अधिकार उपोद्घात प्रारंभ करते हुए यह बताया गया है कि संसार में होता है इसलिए इसकीअनुवृत्ति सभी वाक्यों में होती रहती है। के सभी प्राणी संसार के क्लेशों से अपने आप को बचाना चाहते उपोद्घात में स्याद्वाद' के सातों भङ्गों को सोदाहरण समझाया गया हैं परंतु हेयोपादेय में विवेक न कर सकने के कारण सही हानोपाय का अनुसरण नहीं कर पाते । धर्म के बिना कोई भी उपाय नहीं है ऊपर सातों भागों के नाम दिये जा चुके हैं। इन सातों परंतु इस समय सैंकडों मत चल रहे हैं तो यह कैसे पता चले भङ्गों के मूल में तीन भङ्ग है - (1) स्याद् अस्ति (2) स्याद कि कौन सा तो सही धर्म है और कौन सा धर्माभास है ? नास्ति और (3) स्याद् अवक्तव्य । - उपोद्धात में भङ्गों के जैन दर्शन में धर्म की कसौटी रखी गयी हैं कि जो राग- उदाहरण में निम्नाङ्कित उदाहरण दिया गया है - सभी 'कुम्भ' आदि द्वेष से रहित अहिंसा है, वही परम धर्म है; राग-द्वेष को जीतने वाले पदार्थ स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के रुप में अस्त्यात्मक है और परत्रिकालवर्ती सभी पदार्थो को एकसाथ ही प्रत्यक्ष जानने वाले वर्धमान द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से नास्ति रुप है। यही द्रव्यभगवान का यह शासनकाल है और उनका सिद्धांत है - "अहिंसा यही पदार्थ सत् और असत् के युगपत् कथन की अशक्यता के कारण परम धर्म है।" जो लोग हिंसा गर्भित अहिंसा को अपनाने का उपदेश कथंचित् अवक्तव्य भी है। करते हैं, वे मधुलिप्त असिधार को जीभ से चाटने का उपदेश करते सप्तभङ्गों का स्पष्टीकरण करने के बाद 'स्याद्वाद' हैं। जैन दर्शन में हिंसा और अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन किया गया सिद्धांत की सिद्धि आचार्यश्री मल्लिषेण सूरि विरचित 'स्याद्वादमञ्जरी' है जिसे विभिन्न दृष्टांतों से भी यत्र-तत्र समझाया गया है। अभिधान टीका (अन्ययोगव्यच्छेदद्वात्रिंशिका - आचार्य हेमचंद्रसूरि) के अनुसार राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग में 'अद्दगकुमार' और 'अहिंसा' शब्दों की गयी है। वहाँ पर नैयायिको को सर्वथा अनित्य प्रतीत में उपलब्ध विस्तार से जैनों की अहिंसा का एक चित्र खींचा जा होने वाले दीपक में भी नित्यानित्यत्व-रुप विरोधी धर्मयुगल सकता हैं। की सिद्धि की गयी है। और सर्वथा नित्य माने जानेवाले उपोद्घात में यद्यपि अभिधान राजेन्द्र कोश के निर्माण का आकाश का भी नित्यानित्यत्व सिद्ध किया गया है। इसका मूल आधार अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका की निम्नांङ्कित कारिका प्रयोजन और प्रचार-प्रसार की आवश्यकता का उल्लेख भी किया गया है जो कि साधारण बात है कि कहीं प्रस्तावना में तो कहीं पुष्पिका "आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । में इन दोनों बिन्दुओं पर अवश्य कुछ न कुछ लिखा हुआ मिलता तन्नित्यमेवैकमानित्य मन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः। ॥" है परंतु इसको अत्यन्त संक्षिप्त करते हुए संशोधक महोदय अपने मूल प्रतिपाद्य की ओर बढ़ जाते हैं और दार्शनिक विमर्श का प्रारंभ करते उपोद्घात में नित्यानित्यत्व का कारण पदार्थ के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य बताये गये हैं। जैन दर्शन का यह प्रमुख सिद्धांत हुए सभी विषयों का उद्देश-कथन करते हैं - नाम-कथनकरने के बाद संशोधक महोदय सबसे पहले 4. वही, उपोद्घात प्रथम अनुच्छेद, पृ. । सप्तभड़ी को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि "एक ही वस्तु 5. ....... भगवतो वर्धमानस्यैवाऽऽसन्नोपकारित्वेनानेकान्त-जयपताका में एक-एक धर्म के बारे में प्रश्न पूछे जाने के कारण बिना किसी प्रादुर्भूयात् । यतस्त एव विमलके वलालो के न कालत्रय वर्तिसामान्यविशेषात्मक निखिलपदार्थसार्थवेत्तारः, ..अवितथवस्तुविरोध के पृथक् और एकत्रित विधि-निषेधों की कल्पना से 'स्यात्' तत्त्वप्रवक्तारः... रागद्वेषविजयकर्तारः, ...तेषामहिंसा परमो धर्म इति । -इस पद से अंकित सात प्रकार का वाक्य-प्रयोग 'सप्तभङ्गी' कहा यद्यपि पृथग्भूतेष्वितो धर्माभासेष्वपि किंपाकपाकोलिप्त-पायसदेश्या जाता है। उपोद्घात में कहा है हिंसागर्भिताऽहिंसा भगवती यत्र तत्र विलोक्यते तस्या विधृक्षा एकत्र वस्तुन्यकै कधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः मधुदिग्धधाराकरा करवालाग्रलोलरसनानामिव जनानां न सुखाकरोतीति एकत्रामत्रे संपृक्तविषमधूकल्पेव न युक्ता । जन्मादिदुः खमुमुक्षूणां प्राधान्येन समस्तयो विधिनिषेधयो: कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तया कारणता तस्या नोपलभयते, अपि तु यद्यंशतस्तत्र दयाऽभिनिविष्टा, हिंसाऽपि वाक्यप्रयोगः सप्तभङ्गी। तय॑न्यांशतो जागर्ति, यथा संसारमोचकानामिदमैदंपर्यम् यदि सप्तभङ्गी: नरपशुशकुनिष्वन्यतमः कोऽपि भवेऽस्मिन् संसारवेदनामनुभवति, तर्हि तस्येतो देहतः पृथक्करणमेव दयापरवशानां कर्त्तव्यमिति । सप्ततन्तुप्रवणानां यज्वानां 1. स्याद् अस्ति 2. स्याद नास्ति तु ताद्दक्षमवसरमासाद्य दयापात्राणामनन्यगतिकानां छागतिकानां विशसनमेवो 3. स्याद् अस्तिनास्ति 4. स्याद् अवक्तव्य वंगतिप्रापणमित्यादि ग्रन्थेऽस्मिन्नेव प्रथमभागे 'उद्दगकुमार' 'अहिंसा' 5. स्याद् अस्ति अवक्तव्य 6. स्याद् नास्ति अवक्तव्य शब्दयोरुपरि विशेषस्तिर: प्रेक्षणीयो जिज्ञासूनामिति । अ.रा.भा.1, उपोद्घात पृ. । 7 स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य । 6. वही, उपोद्घात पृ.2 तृतीय अनुच्छेद 'स्याद्वाद' शब्द में दो शब्द हैं -'स्याद्' और 'वाद'। 7. वही, चतुर्थ अनुच्छेद यहाँ पर 'स्याद्' का अर्थ अनेकांत से हैं। स्यात् (कथिचित्) अर्थात् 8. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 2, अंतिम अनुच्छेद किसी अपेक्षा से। किसी भी वाक्य में 'स्याद' विशेषण देने पर 9. वही, उपोद्घात पृ. 2, 3 10. अ.रा.भा.1, उपोद्घात, पृ. 3, 4; अन्ययोग व्यवच्छेदिका कारिका-5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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