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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
द्वितीय परिच्छेद... [69] द्वितीय आवृत्ति : प्रस्तावना:
जैन दर्शन में कारणवाद का निषेध नहीं है। अभिधान राजेन्द्र अभिधान राजेन्द्र कोश की द्वितीय आवृत्ति की अपनी अलग
कोश में ही कार्य-कारणवाद पर एक विशाल संकलन उपलब्ध होता
है। हो सकता है कुछ जैनमतावलम्बी भी अन्य शाखाओं से प्रभावित कहानी है। आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी द्वारा 'सर्वजनहिताय' और 'सर्वजन सुखाय' रचित अभिधान राजेन्द्र
होकर ईश्वर की उपादानता इत्यादि मानते हों, पर वे सच्चे जैन नहीं
कहे जा सकते; भले ही उनकी क्रिया या उनका चारित्र जैनानुकूल कोश, निःसंदेह सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक परम्परा के
क्यों न हों। जैन दर्शन अपने कल्याण और अकल्याण में लिये अत्यन्त गौरव का ग्रंथ है। परन्तु लेखक और संशोधकों
आत्मा को ही उपादान मानता है । इसी प्रकार कार्य होते समय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह ग्रंथ न केवल त्रिस्तुतीक परम्परा
जिसकी उपस्थिति सहायक के रुप में होती है, उसे जैन दर्शन निमित्तकारण केलिये, न केवल श्वेताम्बर आम्नाय के लिए, न केवल जैन संप्रदाय
मानती है। केवली प्रणीत धर्म प्रत्येक संसारी जीव को ईश्वरत्व के लिए, न केवल दार्शनिकों के लिए है, अपितु, इसका व्यक्तित्त्व ज्योतिष, भूगोल, गणित, इतिहास, भाषा विज्ञान और व्याकरण विधाओं
प्राप्त करने में निमित्त रुप है। उस धर्म में प्रवेश के लिये के लिए भी इनके अध्येताओं और संशोधकों एवं संसार के समस्त
सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी सहायक कारण है और आज जब विद्वद् जगत् के लिए उपयोगी है। ये शब्द बहुत सीमित हैं और
प्राकृत भाषा या अर्ध-मागधी भाषा प्रचलन में नहीं है तब अभिधान राजेन्द्र कोश का हार्द बहुत अधिक है, इसलिए शब्दों में जिनवाणी का रहस्य जानने के लिये अभिधान राजेन्द्र कोश सामर्थ्य न होने पर भी यह कहा जा सकता है कि संसार के समस्त कुंजी के समान है। इस बात को आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन प्राणियों का कल्याण करने में यह ग्रंथ समर्थ हैं।
सूरीश्वरजी ने द्वितीय आवृत्ति की प्रस्तावना में स्पष्ट किया है। अतः यह ज्ञात हुआ कि इस परम उपयोगी ग्रंथराज की अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 1 का उपोद्घात:आवश्यकता बहुत अधिक है और प्रकाशक-त्रिस्तुतिक संघ के पास
श्री अभिधान राजेन्द्र कोश के संशोधकोंने ग्रंथ का परिचय इसकी प्रतियाँ नहीं हैं, जैसे इस बात की हलचल हुई, वैसे ही
कराने के उद्देश्य से संस्कृत में एक विस्तृत 'उपोद्घात' लिखा है वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी (तत्कालीन मुनिराज
जो कि अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग में प्रस्तावना के बाद श्री जयन्त विजयजी) के सामने इस कोश को पुनः प्रकाशित करने
निबद्ध है। या प्रकाशित करने की अनुमति देने का प्रस्ताव कुछ लोगों क द्वारा रखा गया। उस समय आचार्यश्री दक्षिण देश के विहार में थे। वे
प्रस्तावना और उपोद्घात को देखने से ऐसा ज्ञात होता है जब चातुर्मासार्थ मद्रास में विराजमान थे उस समय, तत्काल बाद
कि प्रस्तावना के प्रथम अनुच्छेद की सामग्री उपोद्घात के प्राथमिक गुरुसप्तमी के दिन आयोजित विद्वद्गोष्ठी में इस ग्रंथ के पुनर्मुद्रण की 9(नौ) अनुच्छेदों की सामग्री से मिलती-जुलती है। इसलिए यह आवश्यकता पर जोर दिया गया परंतु कुछ अपरिहार्य कारणों से प्रकाशन प्रश्न अवश्य आता है कि संशोधक महादयों ने प्रस्तावना लिखने का कार्य प्रारंभ होते ही स्थगित करना पड़ा।
के बाद उपोद्घात लिखने का विचार क्यों किया? और यदि उसी इस मजबूरी का अनुचित लाभ दिल्ली के लोकेस प्रेसके
से मिलती-जुलती सामग्री रखनी थी, तो प्रारंभिक अनुच्छेदों के बाद मालिक नरेन्द्रभाई ने उठाया और पूर्वानुमति के बिना ही इसे प्रकाशित
विषय-वस्तु क्यों बदल दी (उपोद्घात में स्याद्वाद, सप्तभङ्गी का करके अतिशय महंगे दामों में बेचकर व्यवसायिक लाभ उठाया।
निरुपण, समवाय का खंडन, सत्ता पदार्थ का खंडन, अपोह का खंडन, इस बात की जानकारी वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय जयंतसेन
वेदों के अपौरुषेयत्व का खंडन, शब्द के गुणत्व का खंडन, संसार सूरीश्वरजी को हुई और तब आपने श्री भाण्डवपुरतीर्थ ( राजस्थान)
के अद्वैतत्त्व का खंडन, और ईश्वर-व्यापकत्व का खंडन करते हुए पर हो रहे श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताम्बर श्री संघ के अधिवेशन में इस ग्रंथराज के पुनः प्रकाशन का प्रस्ताव
अंत में जैन सिद्धांत के अनुरुप एकेन्द्रिय जीवों के भी भाव शुद्ध रखा, वैसे ही श्री संघ ने इस आदेश को स्वीकृत कर उसी समय
ज्ञान का समर्थन-इन विषयों का प्रतिपादन किया गया है।) इस ग्रंथ के पुनः प्रकाशन की घोषणा की और फिर अनेक श्रेष्ठियों,
इसका उत्तर खोजने पर ऐसा प्रतीत होता है कि संशोधक गुरुभक्तों एवं विद्वाद्जनों के सहयोग से इस ग्रंथ का पुनः प्रकाशन महोदयों ने पहले तो उपोद्घात लिखा होगा जिसमें की प्राय: सभी हुआ।
भारतीय दर्शनों के सिद्धांतों का खण्डन करते हुए जैनों के प्रमुख अभिधान राजेन्द्र कोश की द्वितीय आवृत्ति की प्रस्तावना सिद्धांत स्याद्वाद का विचार किया होगा, परंतु यह विषय संस्कृत में आचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी ने आत्मा और कर्म में होने से और दर्शन जैसा रुक्ष विषय होने से अध्येताओं को इस के अनादि-संबंध का सोदाहरण चित्रण करते हुए, आठों कर्मों का कोश को खोलते ही अत्यन्त कठिन विषय का दर्शन न हो और स्वरुप सोदाहरण समझाया है। इसका विस्तार द्वितीय आवृत्ति
असंस्कृतज्ञ भी ग्रंथ का परिचय प्राप्त कर सकें, इसके लिए प्रस्तावना की प्रस्तावना एवं अभिधान राजेन्द्र कोश के भाग-3 में 'कम्म' शब्द
बाद में लिखी होगी। कहने का अभिप्राय यह है कि यद्यपि प्रस्तावना पर देखा जा सकता है। उपर्युक्त अनादि-सान्त-कर्म-सिद्धांत जैन दर्शन में जितना
1. श्री अभिधान राजेन्द्र कोश विशेषांक : शाश्वत धर्म, फरवरी-1990 - स्पष्ट रुप से समझाया गया है उतना अन्यत्र कहीं नहीं समझाया गया। मुनि नगराजजी का लेख कर्म सिद्धांत जैन सिद्धांतो में एक प्रमुख सिद्धांत हैं। इसी प्रकार 2. कल्पसूत्र बालावबोद, पञ्चम व्याख्यान जैन दर्शन के अन्य प्रमुख सिद्धांत हैं, आत्मवाद, अनेकांतवाद, 3. अ.रा.भा.1, प्रथमावृत्ति प्रस्तावना, पृ. 1, 2 एवं उपोद्घात पृ.1, 2 अनुच्छेद षड्द्रव्यवाद, नवतत्त्ववाद और सादि-अनंत मोक्षवाद ।
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