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[436]... षष्ठ परिच्छेद
सहिरकयस्स वत्थस्स रहिरेण चेव । पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही ।
रक्त से सना वस्त्र रक्त से धोने से शुद्ध नहीं होता । अर्थात् वैर से वैर शान्त नहीं होता ।
- अ. रा. भाग 4 पृ. 2401; ज्ञाताधर्म कथा - 1/5
शकटं पञ्चहस्तेन, दशहस्तेन शृङ्गिणम् । हस्तिनं शतहस्तेन, देशत्यागेन दुर्जनम् ॥
व्यक्ति को वाहन - गाडी से पांच हाथ, सींगवाले हिंसक पशुओं से दस हाथ और हाथी से सौ हाथ दूर रहना चाहिए, किन्तु दुर्जन
से तो उस प्रदेश को ही छोड़कर रहने में सुरक्षा हैं ।
- अ. रा. पृ. 4/2555; वाचस्पत्यभिधानकोश; चाणक्यनीतिशास्त्र - 7/7
महुकार समा बुद्धा ।
आत्मदृष्टा साधक मधुकर (भ्रमर) के समान होते हैं। (अर्थात् बाह्य भावों में कहीं आसक्त नहीं होते ) ।
- अ. रा. पृ. 4/2688; दशवैकालिक सूत्र, मूल - 1/5
धिग्धर्मरहितं नरम् ।
धर्म से रहित मनुष्य को धिक्कार ।
- अ.रा. पृ. 4/2690; स्थानांग 3:3 भासमणो न भासेज्जा ।
किसी बोलते हुए के बीच में मत बोलो।
अ. रा. पृ. 4/2704; सूत्रकृतांग - 1//9/25
शास्त्र सर्वार्थसाधनम् ।
शास्त्र इहलौकिक, पारलौकिक सभी प्रयोजनों का साधक है।
- अ. रा.पृ. 4/2720 एवं भाग 7 पृ. 334; योगबिन्दु-225
चक्षुः सर्वत्रगं शास्त्रम् ।
शास्त्रं सब जगह पहुंचनेवाली तीसरी आँख है ।
- अ.रा. पृ. 4/2720; योगबिन्दु - 225 दुलहं सद्धम्मवररयणं । सद्धर्मरुपी रत्न मिलना दुर्लभ है। - अ.रा. पृ. 4/2726; धर्मरत्न प्रकरण -2
पञ्चम भाग :
त्यागात्कंचुकमात्रस्य, भुजंगो न हि निर्विषः । केंचुली छोडने मात्र से सर्प विषरहित नहीं होता ।
अ. रा. भाग 5 पृ. 556; ज्ञानसार -25/4
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
देहे दुक्खं महाफलम् ।
शारीरिक कष्टों को समतापूर्वक सहने से महाफल की प्राप्ति होती है ।
- अ. रा. पृ. 5/643; दशवैकालिक - 8/27
बालजणे पगब्भती ।
अज्ञ अभिमान करते हैं।
- अ. रा. पृ. 5/646; सूत्रकृतांग - 1/2/3/10
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।
उपकार जैसा कोई पुण्य नहीं और दूसरों को पीडा पहुंचाने जैसा कोई पाप नहीं ।
अ. रा. पृ. 5/697; पंचतंत्र - 3 / 101 एवं 4 / 101
कडाण कम्माण न मोक्खो अत्थि ।
कृतकर्मो को भोगे बिना मोक्ष नहीं हो सकता है।
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अ. रा.पू. 5/1276; भा. 7 पृ. 57; उत्तराध्ययन- 4/ 13/10
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सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं ।
मानव के सभी सुचरित (सत्कर्म) सफल होते हैं।
- अ.रा. पृ. 5/1276; उत्तराध्ययन - 13/10
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