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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [129] जाना जाता वह नैगम नय हैं।42 अथवा 'निगम' का अर्थ 'जनपद' (देश) करने पर लोक में देश विशेष में जो शब्द जिस अर्थ विशेष के लिए नियत है, वहाँ पर उस अर्थ शब्द के (वाच्य-वाचक के) संबंध को जानने का नाम नैगम नय हैं। जैसे -मिट्टी के घडे के घी भरने हेतु ले जाने पर उसे घी के घड़े ले जा रहा हूँ - एसा कहना, उस प्रदेश विशेष में घडा, कुंभ कलशादि कहना। अभिधान राजेन्द्र में नैगम नय के विभिन्न ग्रंथो के अनुसार अनेक प्रकार के भेद दर्शाये गये हैं- यथा विशेषावश्यक भाष्य में इसके तीन भेद किये गये हैं 1. सर्वविशुद्ध - निर्विकल्पमहासत्ताग्राहक 2. विशुद्धाविशुद्ध - गाय, बैल, बछडे आदि के लिए 'गोत्व' सामान्य ग्राहक 3. सर्वविशुद्ध-विशेषवादी - गाय को गाय और बैल को बैल कहना। रत्नाकारावतारिका में धर्म-धर्मी की अपेक्षा से नैगम नय के तीन भेद किये गये हैं।5 1. धर्म - आत्मा सचेतन हैं। 2. धर्मी - वस्तु पर्यायवान् द्रव्य होता हैं। 3. धर्म-धर्मी - क्षणमात्र सुखी विषयासक्त जीव। तत्त्वार्थसूत्र में नैगम नय के दो भेद दर्शाये गये हैं161. सर्वपरिक्षेपी-समग्रग्राही - 'घट' पदार्थ में सोने, चांदी, पीतल, मिट्टी, लाल, काला, सफेद इत्यादि का भेद न करके 'घट' मात्र को ग्रहण करना। 2. देश परिक्षेपी-देशग्राही - विशेष अंश का आश्रय करके प्रवृत होनेवाला, जैसे घट को मिट्टी का या ताँबे का इत्यादि विशेष रुप से ग्रहण करना। 2. संग्रह नय : विशेषादि भेद रहित सामान्य मात्र को ग्रहण करनेवाला संग्रह नय हैं। यह सामान्य-विशेष आदि सब को एकसाथ ग्रहण करता हैं। इसके दो भेद हैं 1. परसामान्य - यह भेद रहित अंतिम सामान्य को ग्रहण करता है, जैसे-द्रव्य मात्र सत् हैं। 2. अपर सामान्य - सत्तारुप महासामान्य की अपेक्षा लघु जैसे द्रव्यत्व आदि सामान्य को अपर सामान्य कहते हैं । द्रव्यानुयोग तर्कणा में इन्हें सामान्यसंग्रह और विशेषसंग्रह के नाम से कहा गया हैं। 3. व्यवहार नय : संग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्थों का निषेध नहीं करते हुए विधान करके जो विशेष परामर्श करते हुए उसी को माने/स्वीकार करें, वह व्यवहार नय हैं।50 उदाहरण - जैसे जो सत् है, वह द्रव्य है या पर्याय ? एसा विमर्श करना । 4. ऋजुसूत्र नय : अतीत-अनागत (भूत-भविष्य) के त्यागपूर्वक जो केवल वर्तमान का बोध कराता है, वह ऋजुसूत्र नय हैं।52 यह नय वर्तमान वस्तु के लिङ्ग, वचन और निक्षेप की भिन्नता भी सामान्य रुप से ग्रहण करता हैं। यह नय स्वानुकूल कार्य प्रत्यय को ग्रहण करता है, परानुकूल को नहीं । 5. शब्द नय : शब्द के लिङ्ग, काल, कारक, वचन आदि के भेद के अर्थभेदपूर्वक बोध करानेवाले नय को शब्दनय कहते हैं। शब्दनय लिंगादि के भेद से अर्थ भेद कराता है, परन्तु पर्यायवाची शब्दों को समान मानता हैं।54 42. (क) सामान्यविशेषग्राहकत्वात्तस्यानेकेन ज्ञानेन मिनोति परिच्छिनत्तीति नैगमः । अथवा निगमा निश्चितबोघाः, तेषु कुशलो भवो वा नैगमः । अथवा नैको गमोऽर्थमार्गो यस्य स प्राकृतत्वेन नैगमः । निगमेषु वाऽर्थबोधेषु कुशलो भवो वा नैगमः। स्थानांग-3/3, अ.रा.पृ. 4/2157 (ख) .....नैकमानैर्महासत्ता-सामान्यविशेषज्ञानैमिमीते मिनोति वा नैगमः । (स्थानांग-7 वाँ ठाणां); अ.रा.पृ. 4/2157; विशेषावश्यक भाष्य-2/86-87 43. तत्वार्थभाष्य । 1/35, पृ. 61,62 44. अ.रा.पृ. 4/2157: विशेषावश्यकभाष्य 2188; 45. अ.रा.पृ. 4/1856; रत्नाकरावतारिका-7/7 से 10 46. तत्वार्थसूत्र 1/35 एवं उस पर भाष्य, पृ. 61, 62 47. अ.रा.पृ. 4/1856; 7/73; तत्वार्थभाष्य 1/35 48. अ.रा.पृ. 4/1856; रत्नाकरावतारिका 7/14, 15, 16, 19, 20 49. अ.रा.पृ. 773, 74; द्रव्यानुयोगतर्कणा - 6/12 50. अ.रा.पृ. 4/1856; रत्नाकरावतारिका - 7/23 51. वही, वही 7/24 52. अ.रा.पृ. 2/770; 4/1856; रत्नाकरावतारिका - 7/28 53. अ.रा.पृ. 2/770; 54. अ.रा.पृ. 2/770; 7/366 से 369; रत्नाकरावतारिका - 7/32-33; विशेषावश्यकभाष्य 2227 से 2235; स्थानांग 7/3, नयोपदेशतर्कणा 33 से 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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