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________________ [130]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन उदाहरण - (क) लिङ्ग - बालः, बाला। काल - बभूव, भवति, भविष्यति । कारक - बालकेन, बालकाय इत्यादि। वचन - तटः, तटौ, तटाः । आदि में भेद करना (ख) घट-कलश-कुम्भ आदि को समान मानना । 6. समभिरूढ नय : यह नय पर्यायवाची शब्दों में भी निरुक्ति भेद से अर्थ भेद ग्रहण करता हैं। जैसे - शक्र, पुरन्दर, इन्द्र आदि शब्द इन्द्र के वाचक होने पर भी समभिरुढ नय इसे भिन्न-भिन्न रुप से ग्रहण करता हैं। समभिरुढ नय के अनुसार 'घट' शब्द घट के लिए प्रयुक्त होगा और कलश का अर्थ विवाह आदि माङ्गलिक कार्यो का मङ्गल कलश होगा अतः शब्द नय की दृष्टि में अभिन्न दिखाई देनेवालें घट और कलश समभिरुढ नय की दृष्टि में भिन्न हैं।55 7. एवंभूत नय : जिस पदार्थ का जिस शब्द से बोध कराया जाता हो, उस पदार्थ में उसके बोधक शब्द के व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थानुसार क्रिया जिस काल में प्राप्त होती है, तब ही उस पदार्थ को उस शब्द के द्वारा संबोधन करना/सत्यरुप में ग्रहण करना एवंभूत नय हैं।56 जैसे राजा जिस समय राजचिह्न मुकुटादि धारण कर राजसभा में राजसिंहासन पर बैठकर राज्य संबंधी कार्य कर रहा हो, उसी समय उसे राजा कहना, अन्यत्र नहीं 57 जिस समय किसी देव या यज्ञ के द्वारा जब वह पुरुष या बालक दिया गया हो उसी समय उसका नाम देवदत्त या यज्ञदत्त हो सकता है, अन्यत्र नहीं 158 इस प्रकार एवंभूत नय प्रत्येक वस्तु को जिस समय वह अपने नाम के अनुसार क्रिया करता हो, उसी समय उसे स्वीकार करता है, अन्यथा नहीं करता। नयसंख्या व्यवस्थापन: समीक्षा दृष्टि : अभिधान राजेन्द्र कोश में द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक नयों का विवरण प्रस्तुत करने के बाद 'नय' शब्द के 29 वें बिन्दु में निश्चय और व्यवहार - इन दो मूल नयों को स्वीकार किया गया है। आगे द्रव्यार्थिक नय का विवरण देते हुए अभिधानराजेन्द्र, भाग 4, पृ. 2469 पर द्रव्यार्थिक नय के 10 भेद बताये हैं। इसी प्रकार अभिधान राजेन्द्र के पञ्चम भाग में पर्यायार्थिक नय के छ: भेद बताये हैं (अभिधान राजेनद्र, 5/229)। भेद-प्रभेदों और लक्षणों को देखने से एसा प्रतीत होता है कि कहीं पर तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो भेद किये गये हैं और कहीं पर निश्चय और व्यवहार - ये दो भेद किये गये हैं। यहाँ यह प्रश्न होना स्वाभाविक है - क्या ये दोनों नय युगल आपस में पर्यायवाची है? या उनका कुछ अलग स्वरुप हैं? इनके भेद-प्रभेदों को देखने से हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते, इसलिए डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल द्वारा लिखित 'जिनवरस्य नयचक्रम्' में लिखित भेद समीक्षा के आधार पर उक्त प्रश्न का समाधान दिया जा रहा है। वहाँ पर मूल नयों की सूचना देनेवाली तीन कारिकाओं को उद्धृत किया गया हैं। द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र-गाथा 182 को उद्धत करते हुए कहा गया है कि "निश्चय और व्यवहार ये दो मूल नय हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों निश्चय-व्यवहार के हेतु हैं।" इसी तरह इसी की 183 वीं गाथा में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक को मूल नय कहा गया हैं। पञ्चाध्यायीकारने इन दोनों नययुगलों को अनर्थान्तर बताते हुए कहा है कि "पर्यायार्थिक अथवा व्यवहार ये दोनों एक ही हैं। इसी प्रकार का एक प्रयास 'आलाप पद्धति' में भी किया गया हैं। जिसमें कहा गया है कि द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र की गाथा 182 में नयों के मूल भेद जो निश्चय और व्यवहार माने गये हैं उसमें से निश्चय नय तो द्रव्याश्रित है और व्यवहार नय पर्यायाश्रित है; एसा समझना चाहिए 162 डो. हुकमचन्द भारिल्ल का मानना यह है कि उपर्युक्त प्रयास समन्वय मात्र है, किन्तु निश्चय-व्यवहार और द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक आपस में पर्यायवाची नहीं है क्योंकि द्रव्य स्वभावप्रकाशकनयचक्र गाथा 182 में निश्चय और व्यवहार को मूल नय स्वीकारने के तत्काल बाद गाथा 183 में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों को मूल नय कहा गया हैं। स्पष्ट है कि लेखक कुछ और स्पष्ट करना चाहते हैं इसलिए मूल नय के ये दोनों प्रकार दिखाये गये हैं। दोनों कारिकाओं को देखने से यह लगता है कि निश्चय और व्यवहार तो मूल नय हैं और द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय उनके हेतु हैं। इसका और स्पष्ट करते हुए डो. भारिल्ल का कहना है कि हेतु-हेतुक सम्बन्ध का भी दो प्रकार से अर्थ किया जा सकता हैं 55. अ.रा.पृ. 4/1857; 7/417, स्थानांग 3/3, रत्नाकरावतारिका 7/36-37, विशेषावश्यकभाष्य 2236 से 2250 56. अ.रा.पृ. 3/50,51; 41/1857, रत्नाकरावतारिका 7/40, 41 57. अ.रा.पृ. 3/51 58. अ.रा.पृ. 4/1857 69. "णिच्छयववहारणय मूलमभेयाणयाण सव्वाणं । णिच्छयसाहणहेउ पज्जयदव्वत्थियं मुणह ॥" - द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र 182; आलापपद्धति, गाथा 3 60. 'दो चेव य मूलणया भणिया दव्वत्थ पज्जयत्थगया । अण्णे असंखसंख्या ते तब्भेया मुणेयव्वा । - द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र 182, गाथा 183 61. 'पर्यायार्थिक नय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचार मात्रः स्यात् । - पञ्चाध्यायी-1/521 62. आचार्य शिवसागर स्मृति ग्रंथ, पृ. 561 से जिनवरस्य नयचक्रं, पृ. 26 पर उद्धरित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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