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________________ [128]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रस्तुत कोश में आचार्यश्रीने इसके शुद्ध-अशुद्ध दश भेदों का भी विस्तृत वर्णन किया है जो हमने संक्षिप्त में सारणी में दर्शाने का प्रयास किया हैं। इसके विस्तृत स्वरुप के जिज्ञासु के लिए अभिधान राजेन्द्र कोश दृष्टव्य हैं। पर्यायार्थिक नयः अभिधान राजेन्द्र कोश में पर्याय की व्याख्या करते हुए कहा है -धर्म, पर्यव, पर्याय, पर्यय ये सब ‘पर्याय' के पर्यायवाची नाम हैं। सर्वथा भेद (अन्तर) को प्राप्त करना पर्याय हैं 2 अथवा द्रव्य के गुणों के विशेष परिणमन को पर्याय कहते हैं अथवा द्रव्य के क्रमभावी परिवर्तन को पर्याय कहते हैं।34 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'पर्यायार्थिक नय की परिभाषा बताते हुए कहा है कि "पर्याय ही जिसका अर्थ (प्रयोजन) है, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं।35" पञ्चाध्यायी के अनुसार "द्रव्य के अंश" को पर्याय कहते हैं। इनमें से जो विवक्षित अंश है, वह जिस नय का विषय हैं - वह पर्यायार्थिक नय है। मोक्षशास्त्र में पर्यायार्थिक नय के विशेष, अपवाद अथवा व्यावृत्ति नाम बताये हैं।" आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार "सर्वभावों की अनित्यता का अभ्युपगम (बोध) करानेवाला यह नय मूल नय का भेद हैं ।38 पर्यायार्थिकनय द्रव्य, गुण, पर्याय में भेद का ज्ञापक हैं - 1. मृद् (मिट्टी) आदि द्रव्य, 2. रुपादि गुण, 3. घटादि पद के कम्बुग्रीवापृथुबुध्नादि पर्याय। उसमें उपचार और अनुभूति उपचारलक्षणा है अर्थात् पर्यायार्थिक नय अनुभूति और उपचार से द्रव्य-गुण-पर्याय में अभेद भाव भी मानता हैं; जैसे घटादि पदार्थ मृद् द्रव्य से अलग नहीं है। ज्ञानलक्षणा से इसमें मृद् द्रव्य, रुपादि गुण और कम्बुग्रीवादि पर्याय की प्रतीति होती हैं।" पर्यायार्थिक नय के भेद :- नय के मुख्य सात भेद में से (4) ऋजुसूत्र (5) शब्द (6) समभिरुढ (7) एवंभूत - ये चार पर्यायार्थिक नय हैं।40 अभिधान राजेन्द्र कोश में पर्यायार्थिक नय के नित्य-अनित्य, सादि-अनादि, शुद्ध-अशुद्ध की अपेक्षा से छ: भेद भी बताये गये हैं, जो संक्षेप में निम्नानुसार है - 1. अनादि नित्य - यह भेद शुद्ध पर्यायार्थिक कहलाता है। जैसे - मेरु पर्वत अचल हैं। 2. सादि नित्य - सिद्ध आत्मा का स्वरुप 3. सदनित्य - सत्ता की गौणता अध्रुव होने से उत्पाद-व्यय का ग्राहक यह नय अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय हैं। जैसे एक ही समय में द्रव्य की पूर्वपर्याय का नाश और अपर पर्याय की उत्पत्ति होती हैं। नित्याऽशुद्ध - यह नय द्रव्य की सत्ता अर्थात् ध्रुवता को ग्रहण करता है। जैसे - श्याम घट को पकाने पर उसके रक्त होने से उसमें शुद्ध रुप सत्ता का ग्रहण करने पर 'नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक' नय होता हैं। नित्य-शुद्ध - उपाधि होने पर द्रव्य के निरुपाधिक स्वरुप का ग्रहण करानेवाला नय नित्यशुद्ध पर्यायार्थिक नय है। जैसे -- अष्ट कर्मो से उपाधियुक्त हुआ संसारी जीव निरुपाधिक रुप से सिद्ध कर्मोपाधि रहित जीव के समान ही नित्य शुद्ध है। यह नय उपाधि से रहित शुद्ध द्रव्य का ही ग्रहण कराता हैं। अशुद्धानित्य - जो अशुद्ध भी हो और अनित्य भी हो, उसे ग्रहण करानेवाला अशुद्धनित्य पर्यायार्थिक नय है। जैसे - संसारी जीव कर्मोपाधि के कारण अशुद्ध भी है और जीव की संसारी दशा विनश्वर होने से संसारी जीव अशुद्धानित्य हैं। सात नय : सामान्यतया जैन दर्शन में सात नय प्रचलित हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में विभिन्न जैनागमानुसार नैगमादि सातों नयों का वर्णन करते हुए कहा है1. नैगम नय : सामान्य-विशेष (भेदाभेद) का ग्राहक होने से जिसको अनेक (प्रकार के) ज्ञान के द्वारा जाना जाय, वह नैगम नय है अथवा निश्चित (प्रयोजना लक्ष्यरुप) अर्थबोध में जो कुशल है - वह नैगम नय है अथवा जिसके बोध का मार्ग एक नहीं अपितु अनेक है वह नैगम नय है। अथवा जो अर्थबोध में कुशल है वह नैगम नय हैं। अथवा महासत्तारुप सामान्य विशेष ज्ञान के द्वारा एक प्रकार के मान से जो नहीं 6. 30. अ.रा.पृ. 4/24693; 2470 31. अ.रा.पृ. 5/211 32. अ.रा.पृ. 5/211; नियमसार, गाथा 14 की टीका 33. अ.रा.पृ. 5/211; प्रज्ञापनासूत्र, 5 पद; पञ्चास्तिकायसंग्रह 10 की टीका; जिनागमसार, पृ. 459-460 34. अ.रा.पृ. 5/211; आवश्यक मलयगिरि-1 अध्ययन; पञ्चाध्यायी 1/165; 35. अ.रा.पृ. 5/229; रत्नाकरावतारिका परिच्छेद-7; नियमसार-गाथा 19 की टीका 36. पञ्चाध्यायी-1/519, जिनागमसार, पृ. 682 37. श्री मोक्षशास्त्र-1/33 की टीका, पृ. 93 38. अ.रा.पृ. 5/229; सम्मतितर्क काण्ड 39. अ.रा.पृ. 5/229; द्रव्यानुयोग तर्कणा 5/3 40. अ.रा.पृ. 5/229; रत्नाकरावतारिका, परिच्छेद 7 41. अ.रा.पृ. 5/229, 230; द्रव्यानुयोगतर्कणा, अध्याय 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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