SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 22. सभी नयों की अपने-अपने स्थान में 23. सात सौ नय 24. असंख्यात नय - मतान्तर निरुपण 25. निक्षेपनय योजना 26. द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक का युगपत् विचार 27. सव्यपेक्षा - एक दूसरे की अपेक्षा से उनका प्रमाणत्व 28. जिस नय से जिस दर्शन की उत्पत्ति हुई है उसका सामान्य निरुपण 29. निश्चय और व्यवहार नय में सभी नयों का अन्तर्भाव 30. दिगम्बर मत में नय 31. व्यवहार नय से सांख्य का प्रवर्तन 32. वेदान्ती और सांख्य दर्शन का शुद्धाशुद्धत्व 33. नैगम नय का संग्रह और व्यवहार नय में अन्तर्भाव 34. जो शब्द नय है, वे ही अर्थ नय है, उनका निरुपण 35. नयोत्पादित अपरिमित दर्शनों में सम्यक्त्व, मिथ्यात्व का निरुपण 36. नयफल विचार 37. ज्ञान क्रिया नय द्वार में संग्रहादि नयों के समवतार के स्वरुप का निरुपण 38. नयों की पार्थक्यता भिन्नता में उनका समवतार है या नहीं उसका निरुपण 39. आलोचना के विषय में आठ प्रकार के नय 22 शुद्धता नय के भेद अभिधान राजेन्द्र कोश में अत्यन्त कम शब्दों में लेकिन स्पष्टतम स्वरुप के साथ 'नय' के दो मुख्य भेद कहे गये हैंनिश्चय और व्यवहार नयः लोक व्यवहारपरक अभ्युपगम को प्रधानता देनेवाले 'नय' को व्यवहार नय कहते हैं। जैसे- भ्रमर (भौंरा) में काले रंग की अधिकता होने से व्यवहार में एसा कहा जाता है कि भौरा काला है किन्तु स्थूल शरीर में पाँच वर्णों के पुद्गलों का संधात होने से निश्चय नय के अनुसार उसी भ्रमर को पाँच वर्णवाला कहा जाता हैं अर्थात् व्यवहार नय लोक व्यवहार परक और निश्चय नय परमार्थपरक हैं। 23 द्रव्यार्थिक नयः द्रव्यार्थिक नय की व्याख्या करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि अतीत-अनागतवर्तमान काल में जो द्रवित होता है अर्थात् परम्परा से एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी एसे क्रमबद्ध पर्यायों को ग्रहण करता रहता है, वह द्रव्य हैं। 24 केवल द्रव्य की ही मुख्यता से जिस नय का अर्थ अर्थात् प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिक नय हैं। 25 यह नय द्रव्य मात्र की प्ररूपणा करता है अर्थात् द्रव्य-पर्यायस्वरुप वस्तु में मुख्यरुप से द्रव्य का अनुभव कराता हैं; सामान्य को ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिक नय हैं, 26 अथवा द्रव्य में आस्तिक है, पर्याय में नहीं वह द्रव्यार्थिक नय हैं । 27 22. अ. रा. पृ. 4/1853 23. अ. रा. पृ. 4/1892; विशेषावश्यक भाष्य-3098 - आचार्यश्रीने उत्तराध्ययन सूत्रोक्त द्रव्यार्थिक नय की व्याख्या उद्धृत करते हुए कहा है कि तदाकार अनुयायियों को उसी का सद्बोध कराने का विषय होने से समस्त स्थास - कोश- कुश-कपाल आदि आकारों का अनुयायी मृदादि द्रव्य ही सत्पदार्थ है, क्योंकि स्थास, कोसादि में द्रव्य रुप से तो मृद द्रव्य के अलावा अन्य कुछ भी प्राप्त नहीं होता । अतः वह ( द्रव्यार्थिक नय) तरंगादियुक्त सरोवर का जल केवल अपद्रव्य है उसी तरह तथा आविर्भाव तिरोभाव की मात्रा से युक्त सभी भेद-प्रभेद को गौण करके द्रव्य को ग्रहण करता हैं। 28 अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक नय है29, जिनका परिचय आगे दिया जायेगा । Jain Education International तृतीय परिच्छेद... [127 ] 24. अ. रा. पृ. 4/2462; आवश्यक मलयगिरि 1/2 25. अ.रा. पृ. 4/2466; पश्चाधअयायी 1 / 518 26. अ. रा.पू. 4 / 2467; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लो. 31-32 की टीका; रत्नाकरावतारिका, परिच्छेद 7 27. अ. रा.पू. 4 / 2467; आवश्यक मलयगिरि 1 / 2: 28. 'निखिलस्थासको शकुटकपालद्याकारानुयायि वस्तु सत् तस्यैव तत्तादाकारानुयायिनः सद्बोधविषयत्वात्, स्थासकोशाऽऽविर्भावतिरोभावमात्रान्वितं समूच्छितसर्वप्रभेदनिर्भेदबीजं द्रव्यमागृहीततरङ्गाऽऽदिप्रभेदस्तिमितसरः सलिलवत् ।' अ.रा.पृ. 4/2471; 4/2471; उत्तराध्ययन सूत्र सटीक, । अध्ययन 29. अ.रा. पृ. 4/1856; 4/1856; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक 31, 32 की टीका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy