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________________ [296]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन परिषहजय 'परिषह' शब्द की व्याख्या करते अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि श्री गणधर भगवंतने आठवें 'कर्मप्रवाद' पूर्व के 'प्रतिनियतार्थाधिकार' नामक सत्रहवें प्राभृत में परिषह अध्ययन में बाईस (22) परिषहों का वर्णन किया है। उसी के अनुसार उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- "समन्तात् स्वहेतुभिस्दीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थ साध्वादिभिः सह्यन्ते इति परीषहाः " अर्थात् "मोक्षमार्ग में च्युत न होने के लिए और कर्म की निर्जरा के लिए अपने अपने हेतुओं के द्वारा उदय में आया जो भी (अनुकूलवियोग-प्रतिकूलवियोग का प्रसंग/ पीडादि) साधुओं के द्वारा सहन किया जाता है उसे 'परिषह' कहते हैं।" तत्त्वार्थभाष्य में आचार्य उमास्वातिने परिषहों को धर्म में विघ्न उत्पन्न करने का कारण कहा है। आचार्य श्रीमद्विजय राजशेखरसूरिने मुनि जीवन में विशिष्ट प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल प्रसंगों की उपस्थिति को परिषह कहा है। पं. आशाधरने 'अन्तर्द्रव्य जीव के और बहिर्द्रव्य पुद्गल के परिणाम भूख आदि को, जो शारीरिक और मानसिक पीडा के कारण हैं 5 उन्हें परिषह कहा है। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्रीने “साधु को मोक्षमार्ग की साधना करते समय अचनाक जो कष्ट उपस्थित हो जाते हैं", उन्हें परीषह कहा है। ज्ञानपञ्जिका' में 'परिषहजय' को संयम-तप का एक भाग कहा है।' से समभावपूर्वक षट् आवश्यक क्रियाएँ, स्वाध्याय, ध्यान, भावना आदि में लीन रहकर तीव्र क्षुधा उदय में आने पर भी अनेषणीय आहार का त्याग करना 'क्षुधा परिषह जय' हैं।18 जिनागमसार के अनुसार क्षुधा परिषह के कारण निर्दोष आहार न मिलने पर आहार का विकल्प तोडकर पुरुषार्थपूर्वक निर्विकल्प दशा में लीन हो जाना - 'क्षुधा परिषह जय' हैं।" अनगार धर्मामृत में भी मुनि को शुभ विचारों से एवं पराधीन अवस्था की क्षुधा वेदना को स्मरण कर क्षुधा परिषह पर विजय प्राप्त करने का उपदेश हैं।20 पिपासा परिषहजय : भयंकर गर्मी में प्यास से गला सूख जाने पर भी संयमी साधु को शुद्ध-प्रासुक-उचित जल की प्राप्ति न होना 'पिपासा परिषह' हैं। परिषह के प्रकार : अभिधान राजेन्द्र कोश, अनगार धर्मामृत, तत्त्वार्थ सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, सूत्र पाहुड, जिनागमसार, बृहद् द्रव्य संग्रह, चारित्रसार आदि ग्रंथों में परिषह के 22 प्रकार बताये हैं। बाईस परिषहों के नाम - अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने 22 परिषहों के नाम निम्नानुसार बताये हैं 1. दिगिंछा (क्षुधा) 2. पिपासा 3. शीत 4. उष्ण 5. दंशमशक 6. अचेल 7. अरति 8. स्त्री 9. चर्या 10. नैषधिकी 11. शय्या 12. आक्रोश 13. वध 14. याचना 15. अलाभ 16. रोग 17. तृण-स्पर्श 18. जल्ल (मल) 19. सत्कार-पुरस्कार 20. प्रज्ञा 21. अज्ञान और 22. दर्शन। अभिधान राजेन्द्र कोश में जिसे दिगिछा परिषह कहा है, वह वास्तव में क्षुधा परिषह है। दशवैकालिकसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र आदि सभी सूत्रग्रन्थों में इसे क्षुधा (क्षुत्) परिषह कहा गया है।", अचेल परिषह को तत्त्वार्थसूत्र, बृहद्रव्यसंग्रह आदि ग्रंथों में नग्नता परिषह कहा गया है।2, नैषधिको परिषह को निषद्या परिषह एवं जल्ल परिषह को मल परिषह कहा गया है।13 श्री अभिधान राजेन्द्र कोश में वर्णित चर्या और नैषधिकी परिषह को बृहद् द्रव्यसंग्रह में 'गमन' और 'आसन' परिषह नाम दिये गये हैं।4, लेकिन दोनों का भाव एक ही है। दिगिञ्छा परिषहजय : दिगिञ्छा 'क्षुधा' को कहते हैं। 5 असंयमभीरु, तपस्या, विहार, मुनियोग्य आवश्यक क्रियादि में रत कालीपर्ववत् कृशकाय मुनि को क्षुधा से अत्यन्त व्याकुल होने पर, जठराग्नि अत्यन्त प्रदीप्त होकर प्राणों को जलाने लगे - एसी भूख लगने पर भी शुद्ध आहार (भिक्षा/गोचरी) प्राप्त न होना 'क्षुधा' परिषह है।" तपस्वी होने पर भी, क्षुधा परिषह उत्पन्न होने पर भी, अट्ठमादि तपधारी, बलवान्, असंयमभीरु मुनि किसी प्रकार के त्रस या स्थावर जीवों की हिंसा का कृत-कारित-अनुमोदन से त्याग करें और अदीनमन से समभावपूर्वक क्षुधा को सहन करना तथा नवकोटि से शुद्ध आहार को ही प्राप्त कर उसे आहार की रसलोलुपता से रहित होकर अतिमात्रा का त्याग कर नियतमात्रा में ही उपयोग करना चाहिए।" निरवद्य आहार के गवेषक साधु को शुद्ध आहार प्राप्त नहीं होने पर या न्यून प्राप्त होने पर भी अकाली (भिक्षाकाल से भिन्न काल में मिलने वाली) या सावध भिक्षा का त्याग करके अदीनमन टिको 14 लेकिन पानीको 1. कम्मप्पवायपुव्वे, सत्तरसे पाहुडम्मि जंसुतं । सणयं सोदाहरणं तं चेव इहं पि णायव्वं ॥69।। - अ.रा.पृ. 5/639; उत्तराध्ययनसूत्र 2/69 2. अ.रा.पृ. 5/639; उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 2 3. तत्त्वार्थसूत्र 9/9 का भाष्य पृ. 306 4. तत्त्वार्थसूत्र सार्थ, पृ. 595, विवेचनकार आ. राजशेखरसूरि (महेसाणा प्रकाशन) 5. धर्मामृत अनगार 83 5. धममित अनगार 83 6. धर्मामृत अनगार, पृ. 476, विशेषार्थ गाथा 83 7. ".......अस्य संयमतपोविशेषत्वादिहोपदेशः।" -धर्मामृत अनगार, पृ. 476 अ.रा.पृ. 5/642; तत्त्वार्थ सूत्र-/9; उत्तराध्ययनसूत्र, द्वितीय अध्ययन; सूत्रपाहुड 12; जिनागमसार, प्रश्न 64, पृ.-792; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 35 कीटीका, पृ. 166 9. अ.रा.पृ. 5/642 10. 'दिगिछत्ति' देशीवचनेन बुभुक्षोच्यते । अ.रा.पृ. 5/642, 4/2508, 3/755 11. दशवैकालिक 8/27; तत्त्वार्थसूत्र 9/9 12. अ.रा.पृ. 5/642; तत्त्वार्थसूत्र 9/9; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 35 की टीका 13. अ.रा.पृ. 5/642; तत्त्वार्थसूत्र 9/9 14. अ.रा.पृ. 5/642; बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा 35 की टीका 15. अ.रा.पृ. 5/642, 4/2508, 3/755 16. अ.रा.पृ. 3/755, 5/642; अनगार धर्मामृत 89 17. अ.रा.पृ. 3/755 18. अ.रा.पृ. 3/755; तत्त्वार्थसूत्र, गुजराती विवेचन पृ. 595 19. जिनागमसार, प्रकरण 7:2; परिषहजय, प्रश्न 66, पृ. 793 20. अनगार धर्मामृत 89, पृ. 480 21. अ.रा.पृ. 5/937 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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