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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [297] भयंकर गरमी में शुष्क अरण्य में भी प्यास से गला सूखने औपचारिक अचेलकता :पर भी, प्राणान्त कष्टावस्था में भी नदी आदि का या अन्य किसी अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि धर्मबुद्धि भी प्रकार के सचित जल को न पीना 'पिपासा परिषह जय' हैं।2 से मुनियों के वस्त्र परिशुद्ध, एषणीय, जीर्णप्रायः, असार, अल्प अर्थात्, शीत परिषहजय : गणना-प्रमाण से हीन, तुच्छ, अनियतभोगी होने से और मुनि मछरहित उद्यान, वृक्षमूल, चतुष्पथ, नदीतट आदि स्थानों पर रहते होने से वे उपरोक्त प्रकार के वस्त्रों को धारण करने पर भी 'अचेलक' हुए शीतल वायु का झोंका या हिमपातादि से अन्तःप्रान्ताहार और कहलाते हैं । अर्थात् मुनियों के वस्त्र अहिंसापूर्वक बने हुए होते हैं। जीर्णप्रायवस्त्रधारी, अकिञ्चन, आलयरहित मुनि को अतिशय ठंड लगना, मुनि जानु से चार अंगुल उपर तक चोलपट्ट एवं बदन पर एक चादर शीत परिषह है। धारण करते हैं जिससे उनका आधा शरीर ढंका हुआ और आधा अतिशय शीत, शीतल हवा के झोंके या हिमपातादि शीतजन्य खुल्ला रहता है। सिर, पैर आदि खुले रहते हैं । अत: इस प्रकार सामान्य विषम परिस्थितियों में भी मुनि के द्वारा अकल्पनीय वस्त्रादि को ग्रहण लोगों से कम एवं प्रमाण से हीन वस्त्र होने से, शीतादि कारण से नहीं करना, अग्नि नहीं जलाना, गृहस्थ के द्वारा अग्नि जलाने पर क्वचित् अधिक वस्त्र होने पर भी 'अनियतभोग' और 'अन्यभोग' होने भी उससे ताप (गरमी) नहीं लेते हुए या मन से भी उसकी इच्छा से मुनि सवस्त्र होने पर भी उन्हें अचेलक कहा है। नहीं करते हुए समभावपूर्वक शीत को सहन करना और शीतादि में ____ अभिधान राजेन्द्र कोश में इस बात को दृष्टान्तपूर्वक समझाते एषणीय (आगमोक्त विधि से ग्राह्य) वस्त्र ही ग्रहण करना 'शीतपरिषह हुए आचार्यश्रीने कहा है कि "मात्र कटिवस्त्र पहनकर नदी पार करने जय' कहलाता हैं। वाले पुरुष या जीर्ण साडी पहने हुई वृद्धा की तरह धर्मबुद्धि से उष्ण परिषहजय : उपरोक्तानुसार अल्पवस्त्रधारी मुनि भी अचेलक कहे जाते हैं।"38 ग्रीष्म या शरद् ऋतु में विहार, आहार-चर्यादि में या उपाश्रयादि 'धर्मबुद्धि से' -इस पद के कथन से आचार्यश्री ने जो में ताप से गरमी लगना, सिर-पैर आदि तपना, मैल-प्रस्वेदादि होना दुःखी-दारिद्र-याचकादि के गरीबी के कारण अल्पवस्त्राधारी या 'उष्ण परिषह' कहलाता हैं। जीर्णवस्त्रधारी होने पर भी उनमें धर्मबुद्धि एवं वस्त्रसंबंधी मूर्छा का उष्णपरिषह उदय में आने पर मुनि के द्वारा छाँव, शीतल अभाव न होने से उनका परिहार किया है।39 जलाश्रय, जलधारा, चंदन विलेपन, शीतल वायु, स्नान आदि की अचेलक परिषहजय का स्वरुप :इच्छा न करना, दूसरों के द्वारा या वस्त्र या वायु यंत्र (पंखा आदि) पूर्वोक्तानुसार जीर्ण, अपूर्ण, मलिन, अल्पमूल्यवाले वस्त्र से हवा न करवाना, पूर्व में गृहस्थ जीवन में भुक्त शीतोपचार का धारण करने पर मुनि को लज्जा, दीनता, आकांक्षा, तथाविध वस्त्रों स्मरण नहीं करना, गरमी से दीनता प्राप्त होकर खिन्न नहीं होना, का लाभालाभ या शीतादि प्रसंगो की प्राप्ति अचेल परिषह है।० उद्वेग नहीं करना 'उष्ण परिषह जय' हैं ।26 अचेल परिषह सहन करते समय मुनि अल्प-जीर्णप्रायः दंशमशक परिषहजय : वस्त्रों से लज्जारहित रहें, तथाविध योग्य वस्त्र की प्राप्ति न होने पर मुनि को नँ, मक्खी, डाँस, मच्छरादि के द्वारा डंक देने दीन न बनें, नये और मूल्यवान् अकल्प्य वस्त्रों की या एसे दाता रुप या मारने रुप उपद्रव होना 'दंशमशक परिषह' हैं।27। की इच्छा न करें, शीतादि प्रसंगों में अग्नि आदि का आलम्बन न इस परिषह के उत्पन्न होने पर उस पर द्वेष नहीं करना, औषध आदि के द्वारा उसका निवारण नहीं कराना, उस स्थान का 22. अ.रा.पृ. 3/758; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 3/58 त्याग न करना, 'दंशमशक परिषह जय' हैं ।28 23, अ.रा.पृ. 7/895, 896; प्रवचनसारोद्धार, 86 वाँ द्वार अचेलक परिषहजय : 24. अ.रा.पृ. 7/897; आचारांग 1/8/4; पञ्चसंग्रह सटीक, द्वार 4; जैनेन्द्र सिद्धान्त न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्यासावचेलकः " कुत्सितं कोश 4/30 वा चेलं यस्यासावचेलकः अथवा अमहामूल्यानि खण्डितानि 25. अ.रा.पृ. 2/781, 782; सूत्रकृतांग 1/3/5 26. अ.रा.पृ. 2/782; अनगार धर्मामृत 6/92 जीर्णानि च वासांसि धारयेत् ।। अर्थात् जिस साधु के संपूर्णतया 27. अ.रा.पृ. 4/2439 वस्त्र धारण नहीं किये होते या असार वस्त्र (सामान्य) धारण किये 28. अ.रा.पृ. 4/2440; पंचसंग्रह, द्वार 4; अनगार धर्मामृत 6/93 हो या अल्पमूल्यवाले खंडित, जीर्ण-प्रायः वस्त्र धारण किये हों उसे 29. अ.रा.पू. 1/188%; स्थानांग 5/3 'अचेलक' कहते हैं। अचेलक' दो प्रकार से है2 - (1) सदचेलक 30. वहीं, प्रवचनसारोद्धार, 78 वाँ द्वार (2) असदचेलक । और (1) मुख्य अचेलकत्व और (2) औपचारिक 31. वही, पृ. 1/190; आवश्यक बृहद्वृत्ति, अध्ययन 4 अचेलकत्व। 32. वही, पृ. 1/188; बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य, 1 उद्देश यहाँ तीर्थंकर असदचलेक या मुख्यरुप से अचेलक होते 33. अ.रा.पृ. 1/188 34. अ.रा.पृ. 1/188 हैं क्योंकि उन्हें देवदुष्य वस्त्र के पतन से यावज्जीव सर्वथा अचेलकत्व 35. ".....तत्रेदानी मुख्यमचेलत्वं संयमोपकारि न भवत्यत औपचारिकं गुह्यते, होता है। शेष सब जिनकल्पी साधु भी सदचेलक है क्योंकि उन्हें मुख्यं तु जिनानामेवासीदति ।" - अ.रा.पृ. 1/188 जघन्य से भी रजोहरण एवं मुहपत्ती का तो अवश्य संभव है ही।4 36. अ.रा.पृ. 1/188 सामान्य साधुओं को मुख्य अचेलकत्व (सर्वथा वस्त्ररहितता) संयमोपकारी 37. अ.रा.पृ. 1/188, 189, 190 न होने से यहाँ साधुओं के परिषह के विषय में औपचारिक अचेलकत्व 38. वही 39. अ.रा.पृ. 1/189 को ही ग्रहण किया है। 40 अ.रा.प्र. 1/190, 192 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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