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________________ [298]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन करें, और पूर्वोक्त अल्पप्रतिलेखनादि पाँचों प्रकार के लाभों का चिंतन का त्याग करना, विषयसुख के दारुण विपाक का चिंतन करना, करता हुआ इस अचेलकत्व को उपकारी, धर्महितकारी, यतिधर्म को और हर संभव युक्ति से कामदेव के पाँचों बाणों को निष्फल करना, समझकर अचेल परिषह पर विजय प्राप्त करना 'अचेल परिषह जय' उत्तम ब्रह्मचर्यपोषक चिंतन करना-स्त्रीपरिषहजय/पुरुषपरिषहजय हैं।" हैं।। अनगार धर्मामृत में स्त्री आदि के दर्शन से स्वयं नग्न होने और इतना करने पर भी यदि स्त्रीपरिषह पर विजय प्राप्त न हो सके पर मुनि का चित्त दूषित नहीं होना, 'अचेल/नाग्न्य परिषह जय' और व्रतभङ्ग की स्थिति आ जाय तो देह के ममत्व का भी त्याग कहा है। कर देह का भी त्याग कर देना स्त्रीपरिषहजय । पुरुषपरिषहजय हैं।50 "सभी जैनागमों में जिस प्रकारकल्पनीय आहार भक्षण चर्या परिषहजय :करने पर भी क्षुत्परिषहजय स्वीकार्य है, उसी प्रकार अल्प, मुनि के द्वारा ममत्व रहित होकर ग्राम, नगर, देश आदि जीर्णप्रायः, श्वेत,मानोपेत एषणीय वस्त्रधारी अचेलक परिषहजेता के प्रतिबन्ध से रहित, मासकल्पादि मर्यादापूर्वक सर्वत्र सतत विहार कहा जाता है अतः इस औपचारिक अचेलकत्व परिषह जय करने पर रास्ते में काँटे, कंकर चुभना, पैरों से खून निकलना, छाले से मोक्ष प्राप्ति संभव है" -इस कथन के द्वारा आचार्यश्रीने 'वस्त्रधारी होना, थकान लगना - 'चर्या परिषह' हैं।51 की मुक्ति नहीं होती' -इस दिगम्बर मत का यहीं पर खंडन विहार में चर्या परिषह आने पर पूर्व गृहस्थावस्था में भुक्त किया हैं। वाहनादि की यात्रा को याद न करना 'चर्या परिषह जय' हैं।52 साथ ही यहाँ पर अचेलक परिषह आश्रयी साध्वी संबंधी निषद्या परिषहजय :विशेष कथन करते हुए आचार्यश्रीने निशीथचूर्णि और बृहत्कल्पवृत्ति स्त्री-तिर्यंच-नपुंसकादि रहित स्थान (वसति, उपाश्रय) में को उद्धृत करते हुए कहा है कि "साध्वी को अचेलिका (वस्त्र रहित) मुनि के रहने पर अथवा स्वाध्यायभूमि में या श्मशानभूमि में कायोत्सर्गादि नहीं होना चाहिए। जैनागमों में इसी कारण से साध्वी को जिनकल्प करने पर अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग होना 'निषद्या परिषह' हैं।53 धारण करने का निषेध किया गया है क्योंकि चाहे कुलटा हो या निषद्य परिषह होने पर उपसर्ग के प्रतिकार का सामर्थ्य होने कुलवान्, लज्जावती स्त्रियाँ कभी नग्नता पसंद नहीं करती और आर्यिका/ पर भी देहममत्व का त्याग कर, निर्भय होकर अपने आसन से चलायमान साध्वी के अचेलिका होने पर वह लोकापवाद, जुगुप्सा, निंदा, तथा न होना और यह परिषह मुझे कुछ भी नहीं कर सकता - एसा धिक्कार का पात्र बनेगी; इस कारण से कोई कुलवती स्त्री के द्वारा चिन्तन करना 'निषद्या परिषहजय' है। व्यन्तरादिकृत उपसर्ग में उवसग्गहरं दीक्षा ग्रहण नहीं किये जाने पर या गृहस्थ के द्वारा उसे आहार स्तोत्र पठनीय हैं।54 पानी आदि भी न दिये जाने पर तथा प्रवचनहीलना, तीर्थोच्छेद, चोरादि शय्या परिषहजय :के द्वारा पीडा, तरुणादि के द्वारा उपसर्गादि निमित्तों से धर्म की निंदा मुनि को सम-विषम भूमि, पत्थर, रेती-कंकड युक्त अतिशय होती है। अत: इस दोषोत्पत्ति के कारण साध्वी को अचेलिका बनने शीतल, अतिशय उष्ण, ऊँची, नीची, मृदु, कठिन शय्या या वसति (नग्न रहने) का निषेध किया गया हैं। (उपाश्रयादि) की प्राप्ति होना 'शय्या परिषह' हैं।55 अरति परिषहजय : स्वाध्याय, विहार, तप आदि से थके हुए होने पर भी एसी संयमी साधु को मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न चित्तविकार विषम (विपरीत) शय्या या वसति प्राप्त होने पर भी मुनि उसके लिए के कारण संयम में उद्विग्नता उत्पन्न होना 'अरति परिषह' हैं।45 उद्वेग न करें, विषाद न करें, अन्यत्र न जाये या अन्य शय्या ग्रहण स्वाध्याय, ध्यान, भावना द्वारा धर्मतत्त्वचिंतन से अरतिस्थान नहीं करें अथवा प्रशस्त शय्या प्राप्त होने पर गर्व न करें, हर्षित न की सम्यगालोचना कर संयमधर्म में स्थिर होना - 'अरति परिषह हो -यह 'शय्या परिषह जय' कहा गया हैं।56 जय' कहलाता है। इसलिये संयमी को पाँचों इन्द्रिय-विषयों के श्रवण, स्मरण और मनोज्ञ शब्द आदि से दूर रहना चाहिए।47 41. वही 42. अनगार धर्मामृत 6/94 स्त्री परिषहजय : 43. अ.रा.पृ. 1/192 किसी वसति, उपवन या एकान्त स्थान में राग से, द्वेष 44. अ.रा.पृ. 1/192, 193 से, यौवन के दर्प से, विलास से, रुप के मद से, विभ्रम से, उन्माद 45. अ.रा.पृ. 1/753; भगवती सूत्र 8/8; आचारांग 1/6/3; स्थानांग 1/1; से या मद्यपानादि के प्रभाव से जिसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है - उत्तराध्ययनसूत्र 2/14 एसी युवती स्त्री के द्वारा मुनि के चित्त को विकारयुक्त करने के अ.रा.पृ. 1/754; चारित्रसार 115/3 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-1/134 लिए मुनि के सामने नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल भावों 48. अ.रा.पृ. 2/587; उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 2; भगवतीसूत्र 8/8 का प्रदर्शन करना, अर्थात् नेत्रकटाक्ष, आलिङ्गन, चुम्बन, विकारी श्रृंगार, 49. अ.रा.पृ. 2/588, 589; आचारांग 1/4/2; पञ्चसंग्रह, द्वार 4; अनगार धर्मामृत आकार, विहार, हाव-भाव, विलास, हास्य, अङ्गप्रदर्शन आदि करना, 6/96; चारित्रसार, पृ. 77, 78 मुनि को शारीरिक पीडा देना 'स्त्री परिषह' है।48 (इसी तरह साध्वी 50. अ.रा.पृ. 2/588 के लिए पुरुष संबंधी समझना चाहिए। 51. अ.रा.पृ.3/1152 स्त्री परिषह होने पर मुनि के द्वारा एकांत का त्याग करना, 52. अ.रा.पृ. 3/1153; अनगार धर्मामृत 6/97 53. अ.रा.पृ. 4/2147; उत्तराध्ययनसूत्र,2 अध्ययन गुरु या स्थविर-वृद्ध मुनियों के बीच रहना, कछुए की तरह अपनी 54. अ.रा.पृ. 4/2147; उत्तराध्ययनसूत्र, पाईयवृत्ति 3/21; अनगार धर्मामृत इन्द्रियाँ संकुचित करके गुरु दर्शित युक्तिपूर्वक शीघ्र स्त्रीपरिषह का 6/98 निराकरण करना, रागपूर्वक स्त्री एवं स्त्री के अङ्गोपाङ्गदर्शन का त्याग 55. अ.रा.पृ. 7/815; प्रवचनसारोद्धार, द्वार 86 करना, स्त्री के मधुर स्वर श्रवण (गीतादि) का त्याग करना. स्त्रीकथा 56. अ.रा.पृ. 7/815; पंचसंग्रह, द्वार 4; चारित्रसार 116/3: भगवतीसत्र 8/8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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