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________________ गया हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [2991 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में इसके साथ ही मुनि के द्वारा निद्रावस्था रोग परिषहजय :में (जयणा के बिना) करवट नहीं बदलना और व्यन्तरादिकृत उपसर्गो पूर्वकृत कर्मो के उदय से मुनि को मुनि जीवन में मुनि में भी शरीर को चलायमान नहीं करना - 'शय्या परिषह जय' कहा के शरीर में ज्वर, श्वास, खाँसी, अतिसारादि रोगों का उदय होना 'रोग परिषह' हैं। आक्रोश परिषहजय : रोग परिषह आने पर गच्छनिर्गत मुनि के द्वारा रोग की चिकित्सा दूसरों के द्वारा मुनि पर क्रोध करना, असभ्य वचन कहना, न कराना अथवा गच्छवासी मुनि के द्वारा अल्प रोग होने पर समभावपूर्वक निंदा करना, गाली देना, झूठी आलोचना करना, क्रोधजनक वचन सहन करना और यदि रोग ज्यादा या भयंकर हो तो अल्प-बहुत्व सुनाना 'आक्रोश परिषह' हैं।58 पूर्वक परिणाम का विचार कर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार रोग की आक्रोश परिषह होने पर मुनि के द्वारा उसे समभावपूर्वक चिकित्सा कराना और उसमें जो प्रतिक्रिया (साध्वाचार विरुद्ध आचरण) सहन करना, सामर्थ्य होते हुए भी प्रतिकार न करना, उस पर क्रोध हुआ हो; गुरु के समक्ष विधिपूर्वक उसकी सम्यग् आलोचना करना, न करना, अपितु उसके भी हित, उपकार का चिन्तन करना और रोग के कारण उद्वेग न करना, मृत्यु का चिंतन नहीं करना, अदीनभाव स्वयं के हृदय में लेशमात्र कषाय का प्रवेश न होने देना 'आक्रोश से रहना, देह-आत्मा के भेद ज्ञान का चिन्तन करना - 'रोग परिषह परिषह जय' हैं।59 जय' कहलाता हैं। वध परिषहजय : तृण-स्पर्श परिषहजय :अनार्य देश में लोगों के द्वारा मुनि को गुप्तचर, छद्मवेशी मुनि के द्वारा विश्राम हेतु दर्भादि की शय्या पर शयन करने या चोर समझकर या अनार्य अथवा अज्ञानी लोगों के द्वारा मुनि को पर संथारा, उत्तरपट्ट आदि जीर्ण या पतले होने पर या चोर आदि लगुड (लकडी), तलवार, मुट्ठी, मातुलिङ्गी फल आदि से मारना, द्वारा ले जाने पर शय्या में तृण के तीक्ष्ण अग्रभाग के स्पर्श से वेदना रस्सी आदि से बाँधना, मरणतुल्य कदर्थना करना, पीडा पहुँचाना होना 'तृण-स्पर्श परिषह' हैं।69 'वध परिषह' हैं।60 दर्भशय्या में तृणादिजनित वेदना को समभावपूर्वक सहन वध परिषह उदय में आने पर मुनि के द्वारा मारनेवालों करना, उसमें खेद न करना 'तृण स्पर्श परिषह जय' हैं। के प्रति वैर नहीं रखना और 'ये लोग मेरी आत्मा को नहीं, अपितु जल्ल (मल) परिषहजय :अपवित्र विनाशी शरीर का घात करते हैं, ज्ञानादि गुण, व्रत-शीलादि । मुनि को ग्रीष्मादि ऋतु में या विहारादि में प्रस्वेद या धूलादि का नहीं' -एसा शुद्ध चिंतन करना 'वध परिषह जय' हैं।61 से मल (मैल) या शीतादि में श्लेष्मादि होना ‘मल परिषह' हैं।। याचना परिषहजय : मल परिषह होने पर मुनि के द्वारा मल दूर कर सुख प्राप्ति मुनि जीवन में आहार, पानी, वस्त्र, पात्र औषध आदि समस्त की दृष्टि से, साता की इच्छा से स्नानादि न करना, स्नानादि की इच्छा मुनिजीवन प्रायोग्य आवश्यक वस्तु यावद् दंतशोधन (दांत खुदरने न करना 'मल परिषह जय' कहलाता है।2 की शलाका) तक की समस्त वस्तु गृहस्थ से बिना याचना किये सत्कार-पुरस्कार परिषहजय :लेना-वापरना निषिद्ध है। अत: मुनि जीवन संबंधी गोचरी जाना सत्कार अर्थात् वस्त्रादि दान के द्वारा पूजा, पुरस्कार अर्थात् एवं वस्त्रादि समस्त वस्तुओं की गवेषणा कर गृहस्थ से याचना करना अभ्युत्थान (खडे होना), अभिवादन (प्रशंसापूर्वक अगवानी करना, निमंत्रण ही 'याचना परिषह' है। दिगम्बर परम्परा में वचन या संकेत से देना, मुख्यता देना) । ब्रह्मचारी, तपस्वी, स्वसमयज्ञ-परसमयज्ञ, वादी किसी चीज की याचना नहीं करना 'याचना परिषह' हैं ।63 57. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-4/4,5 अभिमानरहित, महासत्त्वशाली महापुरुषों/मुनियों के द्वारा ज्ञानादि 58. अ.रा.पृ. 1/131; सूत्रकृतांग 1/8 की अभिवृद्धि हेतु देह की स्थिरता के लिए गृहस्थ के घर आहारादि 59. अ.रा.पृ. 1/132; उत्तराध्ययन 2/24, 25; पञ्चाशक 13 विवरण; अनगार हेतु गवेषणापूर्वक गोचरी जाना, दाता के द्वारा आवश्यक वस्तु न धर्मामृत 6/100 दिये जाने पर या आक्रोशयुक्त या हीनवचन कहने पर भी मन में 60. अ.रा.पृ. 5/647, 648; सूत्रकृतांग 1/3/1/15; चारित्रसार 80 खेद न करना, इससे तो गृहस्थ जीवन अच्छा-एसा न सोचना याचना 61. अ.रा.पृ. 5/648; सूत्रकृतांग 1/3/1/17; चारित्रसार, पृ. 80, 81; अनगार परिषह जय' हैं। क्योंकि गृहस्थ जीवन बहु सावध है और मुनि धर्मामृत 6/101 62. अ.रा.पृ. 4/1452, 1453 जीवन निरवद्यवृत्तियुक्त हैं। 63. अनगार धर्मामृत 6/102, पृ. 485 अलाभ परिषहजय : 64. अ.रा.पृ. 4/1453; उत्तराध्ययनसूत्र 2/29 मुनि के द्वारा भोजन हेतु गोचरी (आहार चर्या) के लिए 65. अ.रा.पृ. 1/771, 772; भगवतीसूत्र 8/8 ऊँच-नीचादि अनेक घरों में जाने पर बहुत दिनों तक भी आहारादि 66. अ.रा.पृ. 1/772; आवश्यकचूणि 4/1, 2; चारित्रसार, पृ. 82 की प्राप्ति न होना 'अलाभ परिषह' हैं।65 67. अ.रा.पृ. 6/578, 579; भगवतीसूत्र 8/8 68. अ.रा.पृ. 6/579; आवश्यक बृहद्वृत्ति, अध्ययन 4; पञ्चसंग्रह, द्वार 43; गृहस्थ के घर जाने पर मुनि को आहारादि प्राप्ति होने पर या न होने पर भी मुनि का मुख अविकृत रहना, चित्त संक्लेश 69. अ.रा.पृ. 4/2177; आचारांग 1/9/2 रहित रहना, मुनि के द्वारा दाता विशेष की परीक्षा करने में निरुत्सुकता ____70. अ.रा.पृ. 4/2177; पंचसंग्रह द्वार 2; अनगार धर्मामृत 6/105; चारित्रसार, होना तथा 'लाभ से अलाभ मेरे लिए परम तप है' इस प्रकार की पृ. 83 भावना से मन को भावित करते हुए संतुष्ट रहना, मुनि का 'अलाभ 71. अ.रा.पृ. 4/1429; भगवतीसूत्र 8/8 72. अ.रा.पृ. 4/1229; आवश्यकचूणि 2/35; चारित्रसार, पृ. 84 परिषह जय' हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org पृ. 83
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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