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[300]... चतुर्थ परिच्छेद
आदि मुनि की राजा श्रेष्ठी आदि गृहस्थों के द्वारा भक्ति, पूजा, प्रणाम, बहुमान, आसनदान, वस्त्र- पात्रादि दान आदि न होना, सत्कार - पुरस्कार परिषह है। 23
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आठों कर्म और परिषह :
जीव को उपरोक्त 22 परिषह ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अंतराय कर्म के उदय से प्राप्त होते हैं। इनमें ज्ञानावरणीय कर्म से (1) प्रज्ञा और (2) अज्ञान परिषह; वेदनीय कर्म के उदय से (1) क्षुधा (2) पिपासा (3) शीत (4) उष्ण और (5) दंशमशक (ये पाँच आनुपूर्वी से संबद्ध) (6) चर्या (7) शय्या (8) वघ (9) रोग (10) तृण-स्पर्श (11) मल- ये ग्यारह परिषह; मोहनीय कर्म के (अ) दर्शन - मोहनीय के उदय से दर्शन परिषह और चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से (1) अरति (2) अचेलक (3) स्त्री (4) निषद्या (5) याचना (6) आक्रोश (7) सत्कार/ पुरस्कार ये सात - कुल आठ परिषह और अंतराय कर्म के लाभातंराय के उदय से (1) अलाभ परिषह होता है 2
एसी परिस्थिति में सत्कार पुरस्कार की इच्छा नहीं करना, तद्हेतु आर्त्तध्यानादि रुप चिंतन नहीं करना, असत्कार में दीनता और सत्कारादि में हर्ष धारण नहीं करना 'सत्कार - पुरस्कार परिषह जय' हैं 174
प्रज्ञा परिषहजय :
बारह अङ्ग, चौदह पूर्व और प्रकीर्णक सहित समस्त श्रुत के ज्ञाता, विद्याधर, उपदेष्टा, वादी विजेता, शास्त्रों में निपुण मुनि को भी अपने ज्ञान का घमंड होना' 'प्रज्ञा परिषह' हैं 175
शास्त्रपारंगामी श्रुतधर, पूर्वधर या सामान्य मुनि को विशिष्ट ज्ञान-विद्या-लब्धि आदि की प्राप्ति होने पर भी उसका लेश मात्र अभिमान नहीं होना 'प्रज्ञा परिषह जय' हैं 76 अज्ञान परिषहजय :
निकाचित ज्ञानावरणीय कर्मों के उदय से जैन दीक्षा अङ्गीकार कर व्रत - नियम पालन एवं विभिन्न प्रकार के उग्र तप करने पर भी, लम्बे समय (बारह-बारह वर्ष) तक आयम्बिलादि तपपूर्वक श्रुत प्राप्ति हेतु प्रयत्न करने पर भी वस्तुतत्त्वप्रकाशक निर्मल विशिष्ट ज्ञान प्राप्त नहीं होना 'अज्ञान परिषह' हैं। 7
अज्ञान परिषह की उदयावस्था में लोकों के द्वारा यह जड है, अज्ञानी है, पशु तुल्य है- एसे निंदा-तिरस्कार युक्त वचनों को समभावपूर्वक सहन करना, और 'मैं एसे तिरस्कृत वचन सहन करता हूँ, तपस्वी हूँ, अप्रमत हूँ फिर भी मुझे विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है' -एसे विचारों से मुक्त होना 'अज्ञान परिषह जय' हैं। 78 परिषह सहन करने से लाभ :
जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त को प्रमुखता दी गयी है; जीव इस संसार में तब तक ही रहता है जब तक कर्मबन्धन से सम्पृक्त रहता है; कर्मबन्ध का उच्छेद ही जैनदर्शन और जैनधर्म का लक्ष्य और उद्देश्य है । और कर्म का सम्पूर्ण उच्छेद तप से ही सम्भव है। परिषहजय भी तप की परिधि में ही है। गृहस्थ जीवन में सभी परिषहों पर विजय नहीं पायी जा सकती, किन्तु मुनिजीवन में यह सम्भव हो पाता है। इन 22 परिषहों को सम्यक् प्रकार से सहन करने से मुनि अनेक भवों में अज्ञानोपार्जित पूर्वसंचित कर्मो का क्षय करता है, उससे मुनि के दोष भी गुण में परिवर्तित हो जाते हैं, महाव्रतों को अखंड रुप से धारण करता है, ज्ञानदृष्टि से पर्यालोचन के द्वारा आत्महित को प्राप्त होता है, और मोक्ष फल की प्राप्ति होती है*" अर्थात् वह संसारसमुद्र से पार उतर जाता है। परिषहोदय की संख्या :
एक और
किसी भी मुनि को एक समय में एक साथ जघन्य से उत्कृष्ट से 20 परिषह उदय में आ सकते हैं, क्योंकि शीत और उष्ण तथा चर्या और निषद्या ये दोनों परिषहों का एक साथ उदय संभव नहीं है 181
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गुणस्थान और परिषह :
निर्युक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामी के अनुसार नौंवे अनिवृत्ति बादरसंपराय गुणस्थान तक पूर्वोक्त 22 परिषह जीव को उदय में आ सकते हैं। सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह, और क्षीणमोह-इन तीन गुणस्थानों में 1. प्रज्ञा 2. अज्ञान 3. क्षुधा 4. पिपासा 5. शीत 6. उष्ण 7. दंशमशक 8. चर्या 9. शय्या 10. वघ 11. रोग 12. तृणस्पर्श 13. मल और 14. अलाभ परिषह-इन चौदह परिषहों के उदय की संभावना होती है और सयोगी केवली गुणस्थान में वेदनीय कर्म से प्रतिबद्ध क्षुधादि ग्यारह परिषहों के उदय की संभावना है। अयोगी गुणस्थान में कर्मो का अभाव होने से किसी प्रकार के परिषह के उदय की संभावना नहीं है। 83
इन परिषहों के प्रति सहिष्णुता से साधु में कल्पानुसार आचरण करने की सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है। साथ ही समय समय पर भिक्षुओं के लिए उपदिष्ट प्रतिमाओं का भी वह आचरण कर पाता है । 'कल्प' का शाब्दिक अर्थ सामर्थ्य है । परन्तु श्रमणाचार में 'कल्प' शब्द का अर्थ 'आचार' होता है। जैन सिद्धान्त में दश कल्प बताए गये हैं। इनका विवरण आगे प्रस्तुत किया जा रहा है ।
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अ. रा. पृ. 7/264; समवयांग, समवाय 22; उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 2 अ.रा. पृ. 7/264; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 4/270; चारित्रसार 126 / 5 अ. रा. पृ. 5/389; भगवतीसूत्र 8/8
अ.रा. पृ. 5/389, 390; धर्मसंग्रह 3/20; उत्तराध्ययनसूत्र, पाईय टीका 2/ 40-41, चारित्रसार, पृ. 84, 85
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अ.रा. पृ. 1/487, 488, 489, 5/643
अ. रा. पृ. 1489; सवार्थसिद्धि 9/9/427; चारित्रसार 122/1
79. अ.रा.पृ. 6/645, 646, 647; सूत्रकृतांग 1/2/3/1-2-3
80. अ. रा.पू. 6/643, 645; दशवैकालिक 8/27
अ. रा. पृ. 5/640
अ.रा. पृ. 5/638, 639; तत्त्वार्थसूत्र 9 / 13 से 16; धर्मामृत अनगार, पृ.
489
83. अ. रा. पृ. 5/639; आवश्यक निर्युक्ति 79; तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 10,11,12; धर्मामृत अनगार, पृ. 489
विसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एमेव धम्मो विसओवसण्णो, हणाइ वेयाल इवाविण्णो ॥
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