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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन इसी में आगे शुक्र आदि धातुओं की राग हेतुता का खंडन किया गया है। वहाँ कहा गया है कि यदि शुक्र धातु ही राग का कारण है तो उसकी उपस्थिति में सभी स्त्रियों के प्रति राग उत्पन्न हो जाना चाहिये लेकिन नहीं होता " । - यहाँ किसी अन्य मत का संकेत करते कहा कि रागादि दोष पृथ्वी आदि भूतों के धर्म हैं, जैसे कि पृथ्वी और जल की बहुलता होने पर राग, तेज और वायु की बहुलता होने पर द्वेष, और जल और वायु की बहुलता होने पर मोह होता है। इस सिद्धांत का भी उचित रीति से खंडन किया गया है। और अन्त में यह कहा गया है कि तीर्थकरों के रागादि रहितता होती है ऐसा सिद्ध किया है । और इसलिए 'जिन' शब्द की व्युत्तपत्ति से रागद्वेष आदि शत्रुओं को जीतने का अर्थ लेना बताया गया है। 'राग' नष्ट हो जाने पर मित भाषण में कोई कारण न रहने से जिनवर के वचनों की उपादेयता स्वतः सिद्ध हो जाती है और प्रामाणिकता भी। जिनेन्द्र देव के वचनों की प्रामाणिकता का प्रकरण प्रस्तुत करते हुए यह प्रश्न उठाया गया है कि जैसा कि श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि कहते हैं कि जिनेन्द्र के वचन मिध्यात्वियों के दर्शनों का समूह है तो भला उसकी प्रामाणिकता क्यों मानी जानी चाहिए"। जैसे: एक वाक्य मिथ्या है, ऐसे अनेक मिथ्या वाक्यों का समूह भी मिथ्या ही हो सकता वह सम्यग् कैसे हो सकता है ? जैसे विष द्रव्य के कणों का समूह कभी अमृत नहीं हो सकता उसी प्रकार अनेक मिथ्यावादियों के सिद्धांत मिलकर कभी सम्यग् नहीं हो सकते। इस पूर्व पक्ष का खंडन करते हुए कहा गया है कि परस्पर संयोगविशेष प्राप्त होने पर अनेक विर्षों का समूह अमृत का कार्य करता है और दूसरे स्वतंत्र विष से पीडित रोगी को उस विष समूह का प्रयोग चिकित्सा के रुप में किया जाता है। इसी प्रकार मधु और धृत के विशिष्ट संयोग से द्रव्यान्तर उत्पन्न होते हुए विष का कार्य होने लगता है और मृत्यु का कारण होता है। इसलिए निरपेक्ष रुप से नैगमादि नय तो दुर्नय हैं परंतु सापेक्ष कथन करने पर वे ही नय सुनय कहे जाते हैं। इत्यादि प्रकार से स्याद्वाद के सातों भंगों का सापेक्ष रुप कथन होने से सम्यक् प्रतिपादन किया गया है। इसके विस्तार का संकेत करते हुए कहा गया है कि अभिधान राजेन्द्र कोश के 'जिणवयण' शब्द के अन्तर्गत इसका विशेष विस्तार है 3 । जिनवचन की प्रामाणिकता के विषय में एक प्रसिद्ध कथा 'जमालि की कथा' के नाम से उल्लेखित है जिसमें 'क्रियमाणं कृतम्' - इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है, और इस सिद्धांत को न माननेवाले जमालि की ओर संकेत किया गया है। इसी जमालि की कथा का प्रसंग तृतीय भाग की प्रस्तावना में भी आया है। इस कथा में 'चार ही भूत तत्त्व हैं' -इस सिद्धांत का खंडन किया गया है, ऐसा कहा गया है। उसके आगे की कथा 'घण्टापथ' में संकेतित की गयी है। वहाँ बताया गया है कि भगवान महावीर जमालि को संबोधित करते हुए बोले कि 'जीव और अजीव ये दो प्रकार के तत्त्व हैं।' यहाँ पर जीव का विशेष विवरण करते हुए जीव के प्राणों, भिन्न-भिन्न प्रकार से जीव के भेदों, जीव के स्वभाव, जीव के अनादित्त्व और अनिधनत्व आदि धर्मो संकेत करते हुए यह कहा गया है कि विशेष जानकारी के लिए अभिधान राजेन्द्र कोश में 'जीव' शब्द देखना चाहिए" । द्वितीय परिच्छेद ... [77] योग और ध्यान संबंधी विवरण जानने के लिए 'जोगविहि' और' झाण' शब्द को देखना चाहिए।67 इसके आगे नमस्कार महामंत्र संक्षेप - विस्तार के लिए स्पष्टीकरण दिया गया है, पंचविध नमस्कार ही योग्य है। इससे संक्षिप्त नमस्कार भी उचित नहीं और इससे विस्तृत नमस्कार भी उचित नहीं" । 'णय' शब्द, 'णरग' शब्द, 'णाण' शब्द 'णिगोय' शब्द और 'णिव्वाण' शब्दों के अन्तर्गत आयी हुई विषय वस्तु का दिग्दर्शन कराते हुए निर्वाण को प्राप्त करने वाले जीवों में से तीर्थंकर जीवों के विषय में परिचय प्रारंभ किया गया है। वहाँ कहा गया है कि " जो तीर्थ की स्थापना करते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं।" ये अचिन्त्य प्रभाव और महान् पुण्य वाले तीर्थंकर नाम कर्म के प्रभाव से होते है । यहाँ पर तीर्थ की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि जिससे जीव मिथ्यादर्शन, अविरति की गंभीरता से युक्त महाभीषण कषाय-स्पी पाताल पर आश्रित अत्यन्त कठिनाई से जीतने योग्य मोहरूपी आवर्तवाले विचित्र दुःखों के समूहों को उत्पन्न करनेवाले, राग-द्वेष पवन से 'क्षुब्ध, संयोग-वियोग की तरंगों से युक्त, प्रबल मनोरथों 58. ....शुक्रोपचारहेतुको रागो नान्यहेतुक इति। तदपि न युक्तम् । ... रुपरहितायापमि कपि रागदर्शनात् । - वही 59. एतेन यदपि कश्चिदाह पृथिव्यादिभूतानां धर्मा एते रागाऽऽदयः । तथाहि - पृथिव्यम्बुभूयस्त्वे रागः, तेजोवायुभूयस्त्वे द्वेषः, जलवायुभूयस्त्वे 60. एतेन सिद्धं रागादिविरहवत्त्वं तीर्थकृतां भगवताम् । अतएवं रागद्वेषाऽऽदिशत्रून् जयन्त्यभिभवन्तीति तीर्थकृत्पर्यायस्य जिनशब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं च भावयन्ति भावुकाः । - अ. रा. भा. 4, घण्टापथ, पृ. 3, प्रथम अनुच्छेद ....तथापि मिथ्यादर्शनसमूहमयत्वाद् जिनवचनस्य कथं प्रामण्यमङ्गीकरणीयम् ? | जिनवचनस्य मिध्यात्विदर्शनसमूहरूपत्वं तु श्रीसिद्धसेनदिवाकरोऽप्यभ्युपगच्छति । - अ.रा.भा.4, घण्टापथ, पृ. 3, प्रथम अनुच्छेद दृश्यन्ते हि विषाऽऽदयोऽपि भावाः परस्परसंयोगविशेषमवाप्तां समासादितपरिणत्यन्तरा अगदरूपतामात्मसात्कुर्वाणाः, मध्वाज्यप्रभृतयस्तु विशिष्टसंयोगावाप्तद्रव्यान्तरस्वभावा मृतिप्राप्तिनिमित्तविषरुपतामासादयन्तः । Jain Education International 61. 62. 63. 64. 65. 66. 67. 68. 69. वही -वही पृ.3 -वही पृ.4 अथ (जमालि प्रसङ्गादेव) तृतीयभागस्य प्रस्तावस्य 2 पृष्ठे चत्वार्येव भूतानि तत्त्वम्, न तु तद्व्यतिरिक्तो भवान्तरानुसरणव्यसनवानात्मेति चार्वाकचर्चापराकरणं विधाय जीवसिद्धिरुपपादिता । - वही, पृ. 5 की अन्तिम पंक्ति एवं पृ.6 की प्रथम दो पंक्तियाँ - अ. रा. भा. 4, पृ.6, घण्टापथ -वही पृ. 7 तस्मात् संक्षेपतोऽपि पञ्चविध एवं नमस्कारो, न तु द्विविधः, अव्यापकत्वात् । विस्तरतस्तु नमस्कारो न विधीते, अशक्यत्वात् । अ. रा. भा. 4, पृ. 7 घण्टापथ, द्वितीय अनुच्छेद ....तीर्थ करणशीलास्तीर्थ कराः, महापुण्यसंज्ञिततन्नामकर्मविपाकत::... - वही पृ. 9 For Private & Personal Use Only अचिन्त्यप्रभाव www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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