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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [217] अभिधान राजेन्द्र कोश में इसके अलावा भी अल्पायु-दीर्धायु, वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिक और सेवार्त; चारों गतियों के अनेक भेद संबंधी आयु बंध का कारण, संज्ञी- 8. छ: संस्थान-समचतुरस्त्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, कुब्ज, वामन और असंज्ञी, ज्ञानी-अज्ञानी, बाल-पंडित, क्रियावादी-अक्रियावादी, हुण्डक; 9. शरीर के पाँच वर्ण-कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और कृष्णपाक्षिक-सम्यग्दृष्टि, नरकादि सभी जीवों की जघन्य-उत्कृष्ट आयुः सित; 10. दो गन्ध - सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध; 11. पाँच रस - स्थिति आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है, जो जिज्ञासु को वहीँ तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर; 12. आठ स्पर्श - गुरु, लघु, से दृष्टव्य है। मृदु, कर्कश, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष; 13. चार आनुपूर्वियाँनाम कर्म : देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी; 14. दो गतियाँजीवों के विचित्र परिणाम के निमित्तभूत कर्मों के हेतु स्वरुप शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति; प्रत्येक प्रकृतियों में आदि आठ कर्म 'नाम कर्म' हैं। जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके प्रकृतियाँ समाविष्ट है : पराघात एवं स्थावरदशक में त्रसदशक से उसे मनुष्य-तिर्यंच-नरक या देव गति/योनि में ले जानेवाला 'नाम विपरीत स्थावरादि पूर्वोक्त दस प्रकृतियाँ समाविष्ट है। इस प्रकार नाम कर्म' है। जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता कर्म की उपर्युक्त 103 (75 पिण्ड प्रकृतियाँ + 8 प्रत्येक प्रकृतियाँ + है, वह नाम कर्म है। जो नाना प्रकार की रचना निर्वाचित करता 10 त्रसदशक + 10 स्थावरदशक) उत्तरप्रकृतियाँ हैं। इन्हीं प्रकृतियों है, वह नामकर्म है। यह कर्म चित्रकार के समान है। जिस प्रकार के आधार पर प्राणियों के शारीरिक वैविध्य का निर्माण होता हैं। चित्रकार विभिन्न प्रकार के चित्र बनाता है - उसी प्रकार नाम कर्म शुभ नाम कर्म के बन्ध के कारण :भी देव, नारक, मनुष्य और तिर्यंचों के शरीर, इंद्रिय, अंगोपांग, वर्ण, जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण गंध, रस, स्पर्श आदि की स्थापना करनेवाला है। माने गये हैं - 1. शरीर की सरलता, 2. वाणी की सरलता, 3. नाम कर्म शुभ भी हो सकते हैं और अशुभ भी। शुभ मन या विचारों की सरलता और 4. अहंकार एव मात्सर्यरहित जीवन ।75 नाम कर्म से सुन्दर-सुडोल, आकर्षक व प्रभावशाली शरीर बनता शुभ नामकर्म का विपाक - उपर्युक्त शुभाचरण से प्राप्त है तथा अशुभ नाम कर्म के उदय से बदसूरत, बेडौल, कुरुप आदि शुभ व्यक्तित्व का विपाक 14 प्रकार का माना गया है- 1. प्रभावक शरीर की रचना होती है। 2 नाम कर्म के 103 भेद हैं - (1) प्रत्येक वाणी, 2. सुगठित सुन्दर शरीर, 3. सुगंधयुक्त मल/प्रस्वेद, 4. इष्ट प्रकृति-8 भेद, 2) पिण्ड प्रकृति-75 भेद, (3) त्रसदशक-10 भेद रस-प्राप्ति, 5. सुकोमल त्वचा, 6. अचपल गति, 7. समुचित यथावस्थित तथा (4) स्थावर दशक-10 भेद । अङ्गोपाङ्ग, 8. लावण्य, 9. यश:कीर्ति, 10. योग्य शारीरिक शक्ति प्रत्येक प्रकृति नाम कर्म के 8 भेदों में अगुरुलघु, निर्माण, (बल-वीर्यादि), 11. सुस्वर, 12. कान्त स्वर, 13. प्रिय स्वर, 14. आतप, उद्योत, पराघात, उपघात, उच्छ्वास तथा तीर्थंकर आदि नाम मनोज्ञ स्वर।76 कर्म हैं जो शारीरिक बनावट आदि से संबंधित हैं। अशुभनाम कर्म के कारण - मन-वचन-काया की पिण्ड प्रकृति नाम कर्म के 75 भेद हैं- जिनके नाम इस वक्रता और अहंकार-मात्सर्य वृत्ति या असामंजस्य पूर्ण जीवन । - प्रकार हैं - गति-4, जाति-5, शरीर-5, उपांग-2, बंधन-15 भेद, इन चार कारणों (चार प्रकार के अशुभाचरण) से व्यक्ति/प्राणी को अशुभ संघातन-5, संघयण-6, संस्थान-6, वर्ण-5, गंध-2, रस-5, स्पर्श नामकर्म (व्यक्तित्व) प्राप्त होता है। 8, आनुपूर्वी-4, विग्रह गति-1, विहायोगति-2। अशुभ नाम कर्म के विपाक :सदशक नाम कर्म के 10 भेद हैं- त्रस, बादर, पर्याप्त, 1. अप्रभावक वाणी, 2. अनिष्ट शरीर 3. दुर्गंध, 4. अनिष्ट प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश आदि। रस, 5. अप्रिय स्पर्श, 6. अनिष्ट गति, 7. असमुचित अङ्गोपाङ्ग, 8. स्थावर दशक नाम कर्म के भी 10 भेद हैं - स्थावर, सूक्ष्म, कुरुपता, 9. अपयश, 10. वीर्याभाव, 11. हीन स्वर, 12. दीन स्वर, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अपयश 13. अप्रिय स्वर और 14. अकान्त स्वर ।8 आदि । इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि शरीर के कणनाम कर्म की एक सौ तीन उत्तरप्रकृतियाँ हैं। ये प्रकृतियाँ कण की रचना करनेवाला नाम कर्म ही है। जो चित्रकार की भाँति चार भागों में विभक्त हैं : पिण्डप्रकृतियाँ, प्रत्येकप्रकृतियाँ, त्रसदशक चित्र बनाता है और उसमें रंग रुप आकर्षण, विकर्षण, गति आदि और स्थावरदशक। इन प्रकृतियों के कारणरुप कर्मों के भी वे ही पच्चीकारी के द्वारा तस्वीर को पूर्ण करता है। नाम हैं जो इन प्रकृतियों के हैं। पिण्डप्रकृतियों में पचहत्तर प्रकृतियों गोत्रकर्म :का समावेश हैं : 1. चार गतियाँ-देव, नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य; अभिधान राजेन्द्र कोश में 'गोत्र' शब्द के कुल, समस्तागमाधार, 2. पाँच जातियाँ-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय; 3. पाँच शरीर-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; 4. 70. अ.रा.पृ. 4/1999 71. जै.सि.को.-2/583 तीन उपांग-औदारिक, वैक्रिय और आहारक (तैजस और कार्मण शरीर 72. अ.रा.पृ. 4/1999 के उपांग नहीं होते); 5. पंद्रह बन्धन - औदारिक-औदारिक, औदारिक 73. अ.रा.पृ. 4/1999-2000-2001; 3/260-61, जैनेन्द्रि सिद्धान्त कोश-2/ तैजस, औदारिक-कार्मण, औदारिक-तैजस-कार्मण, वैक्रिय-वैक्रिय, 583-84 वैक्रिय-तेजस, वैक्रिय-कार्मण, वैक्रिय-तेजस-कार्मण, आहारक- 74. प्रथम कर्मग्रथ गाता 23 से 31 आहारक, आहारक-तैजस, आहारक-कार्मण, आहारक-तैजस-कार्मण, 75. तत्त्वार्थ सूत्र6/22 तैजस-तैजस, तैजस-कार्मण और कार्मण-कार्मण; 6. पाँच संघातन 76. जैन विद्या के आयाम-पृ. 6/214 77. तत्त्वार्थ सूत्र 6/21 औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; 7. छ: संहनन 78. जैन विद्या के आयाम-6/214 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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