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[218]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन पर्वत, बोध, कानन, क्षेत्र, मार्ग, छत्र, संघ, वृद्ध, वित्त, धन आदि
आदि) में बाधा उपस्थित होना । जैसे सुसंपन्न व्यक्ति को अर्थ दर्शाये हैं। जिसके द्वारा जीव उच्च या नीच कहा जाय, जो
सुंदर रसवती तैयार होने पर भी अस्वस्थता के कारण केवल उच्च या नीच कुल को ले जाता है, मिथ्यात्वादि बन्धन कारणों के खिचडी ही खानी पडे।, द्वारा जीव के साथ संबंध को प्राप्त एवं उच्च और नीच कुलों में उपभोगान्तराय - उपभोग (बार-बार उपयोग करने योग्य) की उत्पन्न करानेवाला पुद्गलस्कन्ध 'गोत्र' कहलाता है। ऊँच-नीच का
सामग्री के होने पर भी उपभोग करने में असमर्थता, ज्ञान करानेवाला कर्म है गोत्रकर्म ।
5. वीर्यान्तराय - शक्ति के होने पर भी पुरुषार्थ में उस शक्ति गोत्र कर्म के प्रकार60- जिसके कारण व्यक्ति प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित
का उपयोग नहीं करना 188 कुलों में जन्म लेता है वह गोत्र कर्म कुम्हारा कुंभकार के घट की अन्तराय कर्म-बंधन के कारण :तरह दो प्रकार का है।
जैनागमों के अनुसार जो व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के दान, 1. उच्च गोत्र - प्रतिष्ठित कुल - यथा दूध-घी का घट, मंगलकलश लाभ, भोग, उपभोग, शक्ति के उपयोग में बाधक बनाता है, वह भी इत्यादि
अपनी उपलब्ध सामग्री एवं शक्तियों का समुचित उपयोग नहीं कर 2. नीच गोत्र - अप्रतिष्ठित कुल - यथा मदिरा का घट ।
पाता। जैसे कोई व्यक्ति दान देनेवालों को दान देने से रोक देता है या उच्च-नीच गोत्र के कर्म-बन्ध का कारण :
किसी भोजन करते हुए व्यक्ति को भोजन पर से उठा देता है, तो उसकी जात्यादि आठों प्रकार के मद/अहंकार का त्याग करनेवाला,
उपलब्धियों में भी बाधा उपस्थित होती है अथवा भोग सामग्री के होने गुणग्राही-गुणानुरागी, अध्ययन-अध्यापनरुचिवाला भक्त जीव उच्चगोत्र पर भी वह उसके भोग से वंचित रहता है। जिन-पूजादि धर्म-कार्यों में में जन्म लेता है। उससे विपरीत आचरणवाला निम्न (नीच) गोत्र
विघ्न उत्पन्न करनेवाला और हिंसा में तत्पर व्यक्ति भी अन्तराय कर्म का में जन्म लेता है ।। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार पर-निन्दा, आत्म-प्रशंसा,
संचय करता है ।89 तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार भी विघ्न या बाधा डालना दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन, और असद्गुणों का प्रकाशन-ये नीच
ही अन्तराय-कर्म के बंध का कारण है ।90 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के गोत्र कर्म-बन्ध के हेतु है। इसके विपरीत पर-प्रशंसा, स्व-निंदा,
अनुसार भी दानादि में विघ्न करना-अन्तराय कर्म का आस्रव है। ज्ञानसद्गुण-प्रकाशन, असद्गुण-गोपन, नम्रवृत्ति और निरभिमानता - ये
प्रतिषेध, सत्कार्योपघात, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, स्नान, उच्चगोत्र के बन्ध के हेतु है ।82
अनुलेपन, गन्ध, माल्य, आच्छादन, भूषण, शयन, आसन, भक्ष्य, भोज्य, गोत्र कर्म का विपाक :
पेय, लेह्य, और परिभोग आदि में विघ्न करना, विभव/समृद्धि में निरहंकारी व्यक्ति उच्च-प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेकर
विस्मय करना, द्रव्य का त्याग (दान) न करना, द्रव्य के उपयोग के निम्नाङ्कित आठ क्षमताओं से युक्त होता है -
समर्थन में प्रमाद करना, देव-द्रव्य ग्रहण करना, निर्दोष उपकरणों का 1. निष्कलंक मातृ पक्ष, 2. प्रतिष्ठित पितृ पक्ष, 3. बलवान
त्याग, दूसरे की शक्ति का अपहरण, धर्म-व्यवच्छेद करना, कुशल शरीर, 4. रुप-सौन्दर्य, 5. उच्च साधना एवं तप-शक्ति, 6. तीव्रबुद्धि
चारित्रवाले तपस्वी, गुरु तथा चैत्य की पूजा में व्याघात करना, दीक्षित, एवं विपुल ज्ञान-राशि पर अधिकार, और 8 अधिकार-स्वामित्व एवं
कृपण, दीन, अनाथ को दिये जानेवाले वस्त्र, पात्र, आश्रय, आदि में एश्वर्य की प्राप्ति । अहंकारी व्यक्ति इन क्षमताओं से या इन में से
विघ्न करना, पर-निरोध, बन्धन, गुह्य-अंगच्छेद, नाक, ओठ आदि किन्हीं विशेष क्षमताओं से वंचित रहता हैं।
काटना, प्राणिवध आदि अन्तराय कर्म के आस्रव है। अंतराय कर्म :- अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा है कि,
इस प्रकार मूलकर्म एवं उनको उत्तर प्रकृतियों का परिचय, "जो दाता और प्रतिग्राहक के अन्तर/मध्य/बीच में विघ्न/बाधा हेतु
विपाक एवं बंध के कारणों का संक्षिप्त वर्णन करके इन्हीं कर्म प्रकृतियों आता है, उपस्थित होता है, जो जीव को दानादि में व्यवधान पहुँचाता
के विविध स्वभाव एवं विपाक के आश्रयों का परिचय दिया जा है, जो जीव को दानादि में विघ्नकारक है - उसे अन्तराय कहते हैं। तद्योग्य पुद्गल कार्मण वर्गणाओं का कर्मरुप में आत्मा के द्वारा
कर्मप्रकृतियों के विविध स्वभाव:ग्रहण करना कर्म का आठवें भेद स्वरुप अन्तराय कर्म है । डॉ.
1. ध्रुवबंधिनी - बंध विच्छेद पर्यन्त प्रति समय प्रत्येक जीवों सागरमल जैन के अनुसार अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुँचानेवाले
को जिनका बंध होता है। कारण को अंतराय कर्म कहते हैं 185
79. अ.रा.पृ. 3/954, जे.सि.को. 2/520 इस कर्म की उपमा राजा के खजांची/भण्डारी से दी जाती है 80. वही । राजा की आज्ञा होते हुए भी यदि खजांची प्रतिकूल है, तो धन प्राप्ति में
81. कर्मग्रंथ-1/60 बाधा आती है ठीक उसी प्रकार आत्मारुपी राजा की भी अनंत शक्ति
82. तत्त्वार्थसूत्र-6/24-25
83. जैन विद्या के आयाम पृ. 6/214 होते हुए भी अंतराय कर्म उसमें बाधा उत्पन्न करते हैं।86
84. अ.रा.पृ. 1/98-99, 3/258, जै.सि.को. 1/27 अन्तराय कर्म के प्रकार :- यह प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) 85. जैन विद्या के आयाम-पृ. 6/214 और आयति (भविष्य) काल की अपेक्षा से दो प्रकार का एवं दानादि 86. अ.रा.पृ. 1/98-99 की अपेक्षा से पाँच प्रकार का है67
87. अ.रा.पृ. 1/98
88. अ.रा.पृ. 1/98, 3/261; तत्त्वार्थसूत्र-8/14, जै.सि.को.-1/27 1. दानान्तराय - दान की इच्छा होने पर भी दान नहीं किया
89. कर्मग्रन्थ-1/61 जा सके,
90. तत्त्वार्थसूत्र-6/26 2. लाभान्तराय - किसी कारण से कोई प्राप्ति में बाधा आना, 91. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश 1/28 3. भोगान्तराय - भोग (एकबार उपयोग में लेने योग्य भोजन 92. अ.रा.पृ. 3/261 से 267; पंचसंग्रह-3/14 की टीका पृ. 304
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