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[216]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 2. अद्धायु - अद्धा = काल, द्रव्य की स्थिति के काल (ब) पाशविक जीवन की प्राप्ति के चार कारण - (1) कपट को अद्धायु कहते हैं। आत्म द्रव्य/जीव की देह या नरकादि गति करना (2) रहस्यपूर्ण कपट करना (3) असत्य भाषण (4) कम ज्यादा में रहने के काल प्रमाण को अद्धायु कहते हैं। जब एक गति में तोल-माप करना । कर्म-ग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप का रहने का काल पूर्ण होता है तब जीव अन्य गति में जाता हैं।" प्रकट न करना भी तिर्यंच आयु के बन्ध का कारण माना गया है। आयु के चार प्रकार :- गति या भव की अपेक्षा से आयु के तत्त्वार्थसूत्र में माया (कपट) को ही पशुयोनि का कारण बताया है।65 चार प्रकार है
(स) मानव जीवन की प्राप्ति के चार कारण - (1) सरलता, (1) सुर/देव आयु - सुष्ठ शन्ति (ददाति) इति सुरा:: (2) विनयशीलता, (3) करुणा और (4) अहंकार एवं मात्सर्य से रहित सुरन्ति-विशिष्ट एश्वर्यं अनुभवन्ति इति सुराः।- नमस्कार करनेवालों होना। तत्त्वार्थसूत्र में - (1) अल्प आरम्भ, (2) अल्प परिग्रह, (3) को इच्छित देनेवाले सुर की आयु में जीव की अवस्थिति 'सुरायु' स्वभाव की सरलता और (4) स्वभाव की मृदुता को मनुष्य आयु कहलाती है।
के बन्ध का कारण कहा गया है। (2) नर/मनुष्य आयु - नृणन्ति - निश्चिन्वन्ति (द) दैवीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण - (1) सराग वस्तुतत्त्वमिति नराः । जो वस्तु तत्त्व का निश्चय करते है उन्हें 'नर' (सकाम0 संयम का पालन, (2) संयम का आंशिक पालन, (3) सकाम कहते हैं, उनकी आयु या उनमें जीव की अवस्थिति नरायु/मनुष्यायु तपस्या (बाल-तप) (4) स्वाभाविक रुप में कर्मों के निर्जरित होने कहलाती है।
से। तत्त्वार्थसूत्र में भी यही कारण माने गये हैं। कर्मग्रन्थ के अनुसार (3) तिर्यञ्चायु-तिरो ऽञ्चन्ति-गच्छन्ति इति तिर्यञ्चः। अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य या तिर्यंच, देशविरत श्रावक, सरागी-साधु, उन तिर्यंचो की आयु में जीव की अवस्थिति तिर्यञ्चायु कहलाती है।।
बाल-तपस्वी और इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थिति वश भूख(4) नरकायु - नरान् उपलक्षणात् तिरञ्चोऽपि
प्यास आदि को सहन करते हुए अकाम-निर्जरा करनेवाले व्यक्ति देवायु प्रभुतपापकारिणः कायन्ति/आह्वायन्ति इति नरका:- नरकावासाः।
का बन्ध करते हैं।66 नरकावास में उत्पन्न जीव नरक कहलाता है। उनकी आयु नरकायु आकस्मिकमरण - प्राणी अपने जीवनकाल में प्रत्येक क्षण आयु कहलाती है।
कर्म को भोग रहा है और प्रत्येक क्षण में आयु कर्म के परमाणु भोग आय के दस प्रकार। - स्थानांग सूत्र में दश प्रकार की आयुः
के पश्चात् पृथक् होते रहतेहैं। जिस समय वर्तमान आयुकर्म के पूर्वबद्ध का भी वर्णन प्राप्त होता है।
समस्त परमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं उस समय प्राणी को 1. नाम - 'आयु' एसा नाम
वर्तमान शरीर छोडना पडता है। वर्तमान शरीर छोडने के पूर्व ही नवीन 2. स्थापना - चित्रादि में आयु की स्थापना
शरीर के आयुकर्म का बन्ध हो जाता है। लेकिन यदि आयुष्य 3. द्रव्य - सचेतनादि भेद से जीवन के हेतु भूत द्रव्यजीवित
का भोग इस प्रकार नियत है तो आकस्मिकमरण की व्याख्या क्या? 4. ओघ - सामान्य जीवन
इसके प्रत्युत्तर में जैन-विचारकों ने आयुकर्म का भेद दो प्रकार का भव - नारकादि भव/गति संबंधी
माना - (1) क्रमिक, (2) आकस्मिक । क्रमिक भोग में स्वाभाविक तद्भव - पूर्व भव के समान ही भवान्तर में होना । यथा
रुप से आयु का भोग धीरे-धीरे होता रहता है, जबकि आकस्मिक मनुष्य मरकर पुनः मनुष्य होना।
भोग में किसी कारण के उपस्थित हो जाने पर आयु एक साथ ही 7. भोग - चक्रवर्ती आदि की आयु
भोग ली जाती है। इसे ही आकस्मिकमरण या अकाल मृत्यु कहते 8. संयम - साधु संबंधी
हैं। स्थानांगसूत्र में इसके सात कारण बताये गये हैं - (1) हर्ष9. यश-कीर्ति - कीर्तिपूर्वक जीवन जीना । यथा महावीर स्वामी
शोक का अतिरेक, (2) विष अथवा शस्त्र का प्रयोग, (3) आहार की 10. जीवित - आयु, जीवन
अत्यधिकता अथवा सर्वथा अभाव (4) व्याधिजनित तीव्र वेदना, (5) जिस प्रकार बेडी स्वाधीनता में बाधक है, उसी प्रकार जो
आघात (6) सर्पदंशादि और (7) श्वासनिरोध 168 कर्म परमाणु आत्मा को विभिन्न शरीरों में नियत अवधि तक कैद
____ अभिधान राजेन्द्र कोश में इन्हीं क्रमिक आयुः को निरुपक्रमी रखते हैं, उन्हें आयुष्य कर्म कहते हैं। यह कर्म निश्चय करता है कि
(अनपवर्तीय) आयु और अकस्मात आयुः को सोपक्रमी (अपवर्तीय) आत्मा को किस शरीर में कितनी समयावधि तक रहना है।62
आयु कहा है। निरुपक्रमी आयुः तीर्थंकरादि को और सोपक्रमी आयुः आयुष्य कर्म के बन्ध के कारण - सभी प्रकार के आयुष्य
सामान्य उपघातयुक्त आयुवालों को होती है।69 कर्म के बन्ध का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया
59. अ.रा.पृ. 3/472, 2/24; जै.सि.को. 1/253 है। फिर भी किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन 60. अ.रा.पृ. 2/24 मिलता है, उसका निर्देश भी जैन आगमों में उपलब्ध है। कर्मग्रंथ,
61. अ.रा.पृ. 2/10, स्थानांग 1/1 की टीका
62. अ.रा.पृ. 2/24 तत्त्वार्थ सूत्र एवं स्थानांगसूत्र में प्रत्येक प्रकार के आयुष्य-कर्म के
63. तत्त्वार्थ-सूत्र-6/19 बन्ध के चार-चार कारण माने गये हैं।
64. कर्मग्रंथ 1/57-58-59, तत्त्वार्थ-सूत्र-6/16 से 20, स्थानांग-4/4/373 (अ) नारकीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण - (1) महारम्भ 65. तत्त्वार्थ-सूत्र-6/17 (भयानक हिंसक कर्म), (2) महापरिग्रह (अत्यधिक संचयवृत्ति), (3)
66. वही-6/20, कर्मग्रंथ-1/59
67. जै.सि.को.-1/253 मनुष्य, पशु आदि का वध करना, (4) मांसाहार और शराब आदि
68. जै.सि.को.-2/12 नशीले पदार्थों का सेवन।
69. अ.रा.पृ. 3/332
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