SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [215] में मिथ्या दोषों का वर्णन करना-धर्म का अवर्णवाद है। जैसे यदि अग्नि के धुएँ से मारता है। (5) जो किसी त्रस प्राणी के मस्तक धर्म सुखदायक है, तो वह उत्पत्ति के अनन्तर ही सुख क्यों उत्पन्न का छेदन करके मारता है। (6) जो किसी त्रस प्राणी को छल से नहीं करता? मारकर हँसता है। (7) जो मायाचार करके तथा असत्य बोलकर अपना देवों का अवर्णवाद :- अर्थात् देवों की निन्दा करना। जैसे देव अनाचार छिपाता है। (8) जो अपने दुराचार को छिपाकर दूसरे पर मद्य, मांस, बलि आदि के आकांक्षी है, देव हैं ही नहीं, यदि हों कलंक लगता है। (9) जो कलह बढाने के लिए जानता हुआ मिश्र तो भी हमारे लिए किस काम के? क्योंकि वे यदि शक्तिशाली है; भाषा बोलता है। (10) जो पति-पत्नी में मतभेद पैदा करता है तथा तो हमारी सहायता क्यों नहीं करते? वे बड़े वैभवशाली माने जाते उन्हें मार्मिक वचनों से लज्जित कर देता है । (11) जो स्त्री में आसक्त हैं; तो अपने वैभव से दीन-दुःखी जीवों को सुखी क्यों नहीं बना व्यक्ति अपने-आपको कुंवारा कहता है। (12) जो अत्यन्त कामुक देते ? व्यक्ति अपने आप को ब्रह्मचारी कहता है। (13) जो चापलूसी करके असत्मार्ग का उपदेश :- संसार की वृद्धि करनेवाले कार्यों के बारे अपने स्वामी को ठगता है। (14) जो जिनकी कृपा से समृद्ध बना में इस प्रकार का उपदेश करना कि ये मोक्ष के हेतु हैं। जैसे-देवी है, ईर्ष्या से उनके ही कार्यों में विघ्न डालता है। (15) जो प्रमुख देवताओं के सामने पशुओं की हिंसा करने को पुण्य कार्य बताना, पुरुष की हत्या करता है। (16) जो संयमी को पथभ्रष्ट करता है। दीपावली आदि पर्वो पर जुआ खेलने का उपदेश देना, इसे पुण्य (17) जो अपने उपकारी की हत्या करता है। (18) जो प्रसिद्ध पुरुष कार्य बताना इत्यादि। की हत्या करता है। (19) जो महान् पुरुषों की निन्दा करता हैं । (20) सन्मार्ग का अपलाप करना:- 'न मोक्ष है, न पुण्य-पाप है और जो न्यायमार्ग की निन्दा करता है। (21) जो आचार्य, उपाध्याय एवं आत्मा ही नहीं है। तप करके शरीर को निरर्थक सुखाना है। आत्मज्ञान गुरु की निन्दा करता है। (22) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु का की शिक्षा देनेवाले ग्रन्थों को-शास्त्रों को पढना तो समय बरबाद करना अविनय करता है। (23) जो अबहुश्रुत होते हुए भी अपने-आपको है। खाओ, पीओ, ऐश-आराम करो। मरने के बाद न कोई आता बहुश्रुत कहता है। (24) जो तपस्वी न होते हुए भी अपने-आपको ही है और न कोई जाता ही है। पास में धन न हो, तो कर्ज ले तपस्वी कहता है। (25) जो अस्वस्थ आचार्य आदि की सेवा नहीं कर मौज शौक करो। जो कुछ भोग लोगे, वही तुम्हारा है।' इत्यादि करता। (26) जो आचार्य आदि कुशास्त्र का प्ररुपण करते हैं। (27) उपदेश देकर कुछ भोलेभाले जीवों को सन्मार्ग से हटाना, सन्मार्ग जो आचार्य आदि अपनी प्रशंसा के लिए मंत्रादि का प्रयोग करते का अपलाप करना है। हैं। (28) जो इहलोक और परलोक में भोगोपभोग पाने की अभिलाषा उपर्युक्त हेतुओं में अन्य सभी सम्यक् श्रद्धा विघातक विचारों करता है। (29) जो देवताओं की निन्दा करता है या करवाता है। व कार्यों का समावेश हो जाता है। जिनसे दर्शन मोहनीय का विशेष (30) जो असर्वज्ञ होते हुए भी अपने आपको सर्वज्ञ कहता है।56 बन्ध हो सकता है। दर्शन मोहनीय सभी कर्मों में प्रधान है और आयुः कर्म:इसके तीव्र बन्ध से जीव को अनन्तकाल तक संसार में भटकना अभिधान राजेन्द्र कोश में आउ शब्द अप, आतु, आकु (गु), पडता है। चारित्र मोहनीय के बन्ध हेतु :- कषायोदयात्तीव्रात्म-परिणामश्चारित्र और आयुस् अर्थ में प्रयुक्त होता हैं। मोहस्य ।54 अर्थात् स्वयं क्रोधादि कषायों को करना और दूसरों में 'आयुस्'की व्याख्या करते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि, कषाय भाव उत्पन्न करना, कषाय के वश हो कर अनेक अशोभनीय "जो प्रतिसमय भुगतने में आता है, जिसके कारण जीव नरकादि प्रवृत्तियाँ करना आदि; ये सब कषाय और नोकषायरुप चारित्रमोहनीय गति में जाता है, जो एक भव से दूसरे भव में संक्रमण करते समय कर्म के बन्ध कारण है। अन्तर में राग-द्वेष-क्रोध आदि परिणामों जीव को अवश्य उदय में आता है, जन्मान्तर में अवश्य उदय में की अधिकता होने पर ही व्यक्ति अशिष्ट वचन बोलता है, अहंकार आनेवाला, जिसके कारण से तद्भव प्रायोग्य शेष सभी कर्म विशेषरुप में डूब जाता है, मन-वचन-काया की अन्यथा प्रवृत्ति करता है, दीन से उदय में आते हैं, भवोपग्राही कर्मविशेष, आयुः भवस्थिति के दुःखी की हँसी मजाक उडाता है। इन्द्रिय विषयों में आसक्ति रखता कारणभूत कर्म-पुद्गल, जीवित, जीव का शरीर सम्बन्ध का काल, है और ईर्ष्या द्वेष आदि करता है। इसीलिए कषाय से उत्पन्न होनेवाले - को आयु:/आयुःकर्म कहते हैं।57 जितने भी आत्म परिणाम है; उन सब को चारित्र मोहनीय कर्म का आयुः कर्म के प्रकार :- आयुः दो प्रकार की है7बन्ध कारण कहा गया है। 1.भवायु - भव अर्थात् देह । शरीर धारण कराने में समर्थ कर्मग्रन्थ में दर्शनमोह और चारित्रमोह के बन्धन के कारण आयु को भवायु कहते हैं अथवा भवप्रधान आयु भवायु कहलाती अलग-अलग बताये गये हैं। दर्शनमोह के कारण हैं-उन्मार्ग देशना, है, वह देह के नाश के साथ ही नष्ट होती है। सन्मार्ग का अपलाप, धार्मिक सम्पत्ति का अपहरण और तीर्थंकर, मुनि, यह भी भोग्यमान भवाय और उसी में आगामी भव की चैत्य (जिन-प्रतिमाएँ) और धर्म-संघ के प्रतिकूल आचरण । चारित्रमोह बध्यमान भवायु इस तरह दो प्रकार की है।58 कर्म के बन्धन के कारणों में कषाय, हास्यादि तथा विषयों के अधीन होना प्रमुख हैं। समवायांगसूत्र में तीव्रतम मोहकर्म के बन्धन के 54. तत्वार्थ-सूत्र-6/15, प्रथम कर्मग्रंथ-56, कर्म प्रकृति-147, जै.सि.को.-3/ तीस कारण बताये गये हैं- (1) जो किसी त्रस प्रणी को पानी में डुबाकर मारता है। (2) जो किसी त्रस प्राणी को तीव्र अशुभ अध्यवसाय 55. दशवैकालिक-1/56-57 56. अ.रा.पृ. 6/462 से 465 से मस्तक को गीला चमडा बांधकर मारता है। (3) जो किसी त्रस 57. अ.रा.पृ. 2/9-10 प्राणी को मुँह बाँधकर मारता है। (4) जो किसी त्रस प्राणी को 58. अ.रा.पृ. 2/16, 2/24; जै.सि.को. 1/253 343 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy