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[214]... चतुर्थ परिच्छेद
दर्शनमोहनीय है। जिसके द्वारा आत्मा अपने यथार्थ स्वरुप को प्राप्त करता है उसे चारित्र कहते हैं । चारित्र का घात करनेवाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। दर्शनमोहनीय कर्म के पुनः तीन भेद हैः सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय। सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक-कर्मपरमाणु शुद्ध होते हैं। यह कर्म शुद्ध-स्वच्छ परमाणुओंवाला होने के कारण तत्त्वरुचिरुप सम्यक्त्व में बाधा नहीं पहुँचाता किन्तु इसके उदय से आत्मा को स्वाभाविक सम्यक्त्वकर्मनिरपेक्ष सम्यक्त्व - क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होने पाता । परिणामत: उसे सूक्ष्म पदार्थो के चिन्तन में शंकाएँ हुआ करती है । मिथ्यात्वमोहनीय के दलिक अशुद्ध होते हैं। इस कर्म के उदय से प्राणी हित को अहित समझता है और अहित को हित विपरीत बुद्धि के कारण उसे तत्त्व का यथार्थ बोध नहीं होने पाता। मिश्रमोहनीय के दलिक अर्धविशुद्ध होते हैं। इस कर्म के उदय से जीव को न तो तत्त्वरुचि होती है, न अतत्त्वरुचि । इसका दूसरा नाम सम्यक् मिथ्यात्वमोहनीय है । यह सम्यक्त्व - मोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय का मिश्रितरुप है। जो तत्त्वार्थ श्रद्धान और अतत्वार्थ- श्रद्धान इन दोनों अवस्थाओं में से शुद्ध रुप से किसी भी अवस्था को प्राप्त नहीं करने देता । मोहनीय के दूसरे मुख्य भेद चारित्र मोहनीय के दो भेद है : कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय। कषाय मोहनीय मुख्यरुप से चार प्रकार का है : क्रोध, मान, माया और लोभ । क्रोधादि चारों कषाय तीव्रतामंदता की दृष्टि से पुनः चार-चार प्रकार के हैं : अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन | इस प्रकार कषायमोहनीय कर्म के कुल सोलह भेद है। जिनके उदय से प्राणी में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन दर्शनमोहनीय कर्म के बन्ध हेतु:
दर्शन मोहनीय के बन्ध हेतुओं में से कुछेक इस प्रकार हैं - केवलज्ञानी, श्रुत, संघ, धर्म और देवों का अवर्णवाद 48 करने से तथा असत्य मार्ग का उपदेश और सन्मार्ग का अपलाप करने से दर्शन मोहनीय कर्म का तीव्र बन्ध होता है। 49 केवलज्ञानी का अवर्णवाद:- ज्ञानावरण कर्म का अत्यन्त क्षय हो जाने से जिनको स्वाभाविक अनन्त ज्ञान प्रकट हो गया है तथा जिनका ज्ञान इन्द्रिय, कालक्रम और दूरदेशादि के व्यवधान से अतिक्रान्त है एवं परिपूर्ण हैं, उन्हें केवलज्ञानी कहते हैं। अर्थात् निरावरण और परिपूर्ण ज्ञानवाले केवलज्ञानी कहलाते हैं 150
लेकिन ऐसे केवलज्ञानी में भी दुर्बुद्धि से असत्य दोषों को बताना - जैसे सर्वज्ञता स्वीकार न करना और ऐसा कहना कि सर्वज्ञ होकर भी उसने मोक्ष के सरल और सीधे उपाय जो जनसाधारण की समझ में आ जाये, ऐसा न बताकर, जिनका आचरण शक्य नहीं, ऐसे दुर्गम उपाय बताये। वीतरागत्व व सर्वज्ञत्व अर्हन्त में नहीं है, क्योंकि जगत के समस्त प्राणी ही राग, द्वेष और अज्ञान से परिवृत देखे जाते हैं। स्त्री, वस्त्र, इत्र आदि सुगन्धी पदार्थ, पुष्पमाला, वस्त्रालंकार आदि ये ही सुख के कारण हैं। इन पदार्थों का अभाव होने से सिद्धों को सुख नहीं है। सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है; किन्तु वे सिद्धों
नहीं है, अतः वे सुखी नहीं है। इस प्रकार के कुतर्कों को केवलज्ञानी का अवर्णवाद कहते हैं ।
कषाय का स्वभाव एवं काल:- अनन्तानुबन्धी क्रोधादि के प्रभाव से जीव अनन्तकाल तक संसार में भ्रमण करता है। यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से देशविरतिरुप श्रावकधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती। इसकी अवधि एक वर्ष है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सर्वविरतिरुप श्रमणधर्म की प्राप्ति नहीं होने पाती। इसकी स्थिति चार महीने की है। संज्वलन कषाय के प्रभाव से श्रमण यथाख्यात चारित्ररुप सर्वरिति प्राप्त नहीं कर सकता। यह एक पक्ष की स्थितिवाला है। उपर्युक्त कालमर्यादाएँ साधारण दृष्टि-व्यवहार नय से है। इनमें यथासंभव परिवर्तन भी हो सकता है।
कषायों के उदय के साथ जिनका उदय होता है अथवा जो कषायों को उत्तेजित करते हैं उन्हें नोकषाय कहते हैं। नोकषाय के नौ भेद हैं: 1. हास्य, 2. रति, 3. अरति 4. शोक, 5. भय, 6. जुगुप्सा, 7. स्त्रीवेद, 8. पुरुषवेद और 9. नपुंसकवेद । स्त्रीवेद के उदयसे स्त्री को पुरषके साथ संभोग करने की इच्चा होती है। पुरुषवेद के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ संभोग करने की इच्छा होती है । नपुंसकवेद के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ संभोग करने की कामना होती है। यह वेद संभोग की कामना के अभाव के रुप में नहीं अपितु तीव्रतम कामाभिलाषा के रुप में है जिसका लक्ष्य स्त्री और पुरुष दोनों हैं। इसकी निवृत्ति तुष्टि चिरकाल एवं चिरप्रयत्नसाध्य है । इस प्रकार मोहनीय कर्म की कुल 28 उत्तर प्रकृतियाँभेद होते हैं : 3 दर्शनमोहनीय + 16 कषायमोहनीय + 9 नोकषायमोहनीय। 47
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श्रुतका अवर्णवाद :- केवली द्वारा उपदिष्ट और अतिशय बुद्धिवाले गणधरों द्वारा उनके उपदेशों का स्मरण कर जो ग्रन्थों की रचना की जाती है; उन रचना ग्रन्थों को श्रुत कहते हैं। 51 ऐसे शास्त्रों में द्वेष बुद्धि से मिथ्या दोषों का आरोप करना, वर्णन करना श्रुत का अवर्णवाद है।
संघ का अवर्णवाद :- सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय को धारण करनेवाले श्रमण आदि चतुर्विधगण ( श्रमण, श्रमणी श्रावक, श्राविका ) समुदाय को संघ कहते है। 52 लेकिन चतुर्विध संघ के मिथ्या दोष प्रकट करना संघ का अवर्णवाद है। जैसे कि साधु व्रत - नियम आदि का व्यर्थ क्लेश उठाते हैं, ये तो भिक्षा माँगकर अपना जीवन निर्वाह करने वाले हैं, ये तो भिखारियों से भी गये गुजरे हैं, ये साधु केशलुंचन, उपवासादि के द्वारा अपनी आत्मा को दुःख देते हैं, इसलिए इनको आत्मवध का दोष क्यों न लगेगा ? पाप-पुण्य दृष्टिगोचर नहीं होते हैं; तो भी ये उनका और उनके नरक, स्वर्ग आदि फलों का वर्णन करते हैं, उनका यह वर्णन झूठा होने से उन्हें सत्यव्रत कैसे हो सकता है ? श्रावकों के बारे में यह कहना कि दान आदि शिष्ट प्रवृत्तियाँ को ये नहीं करते; इन लोगों में नैतिक जीवन तो पाया ही नहीं जाता इत्यादि यह सब संघ का अवर्णवाद है ।
धर्म का अवर्णवाद :- सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट आगमों में प्रतिपादित अहिंसा, संयम, तप ही धर्म है 13 लेकिन अहिंसा आदि महान धर्मों
47. अ.रा. पृ. 6/462-63; जै. सि.को. 3/341-42-44 48. सर्वार्थसिद्धि-6/13
49. स्थानांग -5/2/426; तत्त्वार्थ सूत्र - 6/14 राजवार्तिक पृ. 523; सवार्थसिद्धि - 6 / 13
50.
51. सवार्थसिद्धि-6/13
52.
53.
वही
दशवैकालिक - 1/1
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