SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन करनेवाले बन्धु आदि से विच्छेद होने से उसका बार-बार विचार करके जो चिन्ता, खेद, विकलता आदि मोह कर्म विशेष - शोक के उदय से होनेवाले विकलतायुक्त परिणामों को शोक कहते हैं 135 ताप - पराभवकारी कठोर वचनों के सुनने, अपमान होने आदि से मन के कलुषित होने के कारण तीव्र संताप का होना ताप कहलाता है 136 आक्रन्दन - परिताप के कारण अश्रुपात, अंग विकार, सिर फोडना, छाती पीटना आदिपूर्वक रोना आक्रन्दन है। 37 वध - आयुः, इन्द्रिय, बल, प्राण आदि का विघात करना वध कहलाता 138 परिवेदन वियुक्त, बिछुडे हुए व्यक्ति के गुणों का स्मरण होने पर अति संक्लेशपूर्वक करुणाजनक रुदन करना परिवेदन कहलाता है | 39 उक्त कारणों के अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य कार्यों से भी असातावेदनीय कर्म का विशेष बन्ध होता है। जैसे जीवों के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने से, स्वयं धर्म का पालन न करने और दूसरे को भी पालन न करने देने से, धार्मिकजनों के प्रति अनुचित आचरण करने से, मद्य-मांस आदि का सेवन करने से, व्रत-शीलतपादि के आधारकर्मों का उपहास करने से, मूक प्राणियों (गाय, बैल, कुत्ता, तोता, मैना आदि) का छेदन-भेदन, अंग-उपांग आदि विकृत करने से, अशुभ परिणामों से, इन्द्रिय विषयों में तीव्र लालसा रखने से एवं विविध प्रकार के अन्यान्य निन्दनीय आचरण करने आदि से असाता वेदनीय कर्म के तीव्र अनुभाव और स्थितिवाला बन्ध होता है। सातावेदनीय कर्म का विपाक उपर्युक्त शुभाचरण के फलस्वरुप प्राणी निम्न प्रकार की सुखद संवेदना प्राप्त करता है- (1) मनोहर, कर्णप्रिय, सुखद स्वर श्रवण करने को मिलते हैं, (2) सुस्वादु भोजनपानादि उपलब्ध होती है, (3) वांछित सुखों की प्राप्ति होती हैं, (4) शुभ वचन, प्रशंसादि सुनने का अवसर प्राप्त होता है, (5) शारीरिक सुख मिलता है। 40 असातावेदनीय कर्म के कारण जिन अशुभ आचरणों के कारण प्राणी को दुःखद संवेदना प्राप्त होती है वे 12 प्रकार के हैं - (1) किसी भी प्राणी को दुःख देना, (2) चिन्तित बनाना, (3) शोकाकुल बनाना, (4) रुलाना, (5) मारना और (6) प्रताडित करना, इन छः क्रियाओं की मन्दता और तीव्रता के आधार पर इनके बारह प्रकार हो जाते हैं 141 तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार 2 - (1) दुःख (2) शोक (3) ताप (4) आक्रन्दन (5) वध और (6) परिदेवन ये छ: असातावेदनीय कर्म के बन्ध केकारण हैं, जो 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा पर आधारित तत्त्वार्थसूत्र का यह दृष्टिकोण अधिक संगत है । कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय के बन्ध के कारणों के विपरीत गुरु का अविनय, अक्षमा, क्रूरता, अविरति, योगाभ्यास नहीं करना, कषाययुक्त होना, तथा दान एवं श्रद्धा का अभाव असातावेदनीय कर्म के कारण माने गये हैं । अशाता वेदनीय कर्म के विपाक : (1) कर्ण - कटु, कर्कश स्वर सुनने को प्राप्त होते है, (2) अमनोज्ञ एवं सौन्दर्यविहीन रुप देखने को प्राप्त होता है, (3) अमनोज्ञ गन्धों की उपलब्धि होती है, (4) स्वादविहीन भोजनादि मिलता है, (5) अमनोज्ञ, कठोर एवं दुःखद संवेदना उत्पन्न करनेवाले स्पर्श की प्राप्ति होती है, (6) अमनोज्ञ मानसिक अनुभूतियों का होना, (7) निन्दा चतुर्थ परिच्छेद... [213] अपमानजनक वचन सुनने को मिलते हैं और (8) शरीर में विविध रोगो की उत्पत्ति से संबंधी का दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं । 43 प्राय: करके देव एवं मनुष्य गति में साता वेदनीय और तिर्यंच और नरक गति में असाता वेदनीय का उदय होता है तथापि देवता को देवलोक से च्यवन काल में, मनुष्यों में इष्टवियोग- अनिष्टसंयोग, वध-बंधनादि से असाता वेदनीय का भी उदय होता है। उसी प्रकार चक्रवर्ती आदि के हस्ति, अश्व आदि तिर्यंचो को भी सातावेदनीय का उदय होता है । उसी प्रकार नारकी के सतत असाता में भी जिन जन्मकल्याणकादि के समय साता वेदनीय का अनुभव होता है। 44 मोहनीय कर्म : मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। जिस तरह मदिरापान मनुष्य की बुद्धि को मूच्छित कर उसे ऐसा मूढ और बेसुध बना देता है कि मनुष्य की बुद्धि नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। जिन कर्म-परमाणुओं से आत्मा की विवेक-शक्ति कुंठित होती है और अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति होती है, उन्हें मोहनीय कर्म कहते हैं। मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव 'स्व' पर का, कर्तव्य-अकर्तव्य का, सत्-असत् का भान भूलकर होश - हवास खो देता है जिन कर्म-परमाणुओं से आत्मा की विवेक - शक्ति कुंठित होती है और अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति होती है, उन्हें मोहनीय कर्म कहते हैं । स्वभाव से विभाव में भटका जीवन पुत्र, परिवार, स्त्री, मकान, शरीर, सम्पत्ति, पद आदि परपदार्थों को अपना समजकर उसी में ममत्व बुद्धि रखता हैं । Jain Education International ममकार और अहंकार से भरा मोहनीय कर्म-वेष्टित जीव, इनके संयोग से सुख तथा वियोग से दुःख और शोक का अनुभव करता है। 45 I उत्तराध्ययन में कहा गया है"- कम्मं च मोहप्पभवं वयन्तिअर्थात् कर्म मोह से उत्पन्न होता है। मोह की ही लीला है - समस्त संसार । इसीलिए मोहनीय कर्म को कर्मो का राजा कहा गया है। आठों कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे बलवान और भयंकर होता है। अतः मोक्षाभिलाषी प्रत्येक प्राणी को सबसे पहले इसी कर्म को नष्ट करने का प्रयास करना पडता है। सेनापति के मरते ही जिस प्रकार सारी सेना भाग जाती है, ठीक उसी प्रकार मोहनीय कर्म के नष्ट होते ही सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं। मोहनीय कर्म की मुख्य दो उत्तर - प्रकृतियों हैं : दर्शनमोह अर्थात् दर्शन का घात और चारित्रमोह अर्थात् चारित्र का घात । जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही समझने का नाम दर्शन है। यह तत्त्वार्थश्रद्धानरुप आत्मगुण है। इस गुण का घात करनेवाले कर्म का नाम 35. वही 36. 37. 38. सवार्थसिद्धि-6/11 39. राजवार्तिक पृ. 519 40. जै. सि.को. 3/592 41. 42. 43. 44. 45. सवार्थसिद्धि - 6 / 11; कर्मप्रकृति- 145 टीका राजवार्तिक पृ. 519 46. जै. सि.को. 3/592, अ.रा. पृ. 3/250 तत्त्वार्थ सूत्र - 6 /12 जै. सि.को. - 3/592 अ. रा.पू. 6/1448 अ. रा. पृ. 6/451; जै. सि.को. 3/341-42 उत्तराध्ययन अ. 33 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy