________________
[110]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
4. दार्शनिक शब्दावली
दर्शन का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। यदि व्यापक दृष्टि से देखा जाये तो प्रत्येक विषय (शास्त्र) का अपना एक दर्शन होता है किन्तु यहाँ पर मात्र उन शब्दों को समाहित किया गया है जो समीक्षकों की परिभाषा में दर्शन विषय से सम्बद्ध हैं। इसमें तत्त्वमीमांसा, प्रमाणमीमांसा-दोनों ही दर्शन शाखाओं का समावेश है। आचारपरक शब्दावली का विस्तार पूरे शोध प्रबन्ध में किया गया होने से यहाँ उसका ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा गया हैं एवं तर्कविद्या को प्रमाण के अन्तर्गत मान कर उसे कोई पृथक शीर्षक नहीं दिया गया हैं।
अइंदिय - अतीन्द्रिय (त्रि) 1/1
इन्द्रिय ज्ञान के द्वारा अगम्य, आगम और उपपत्ति के द्वारा जानने योग्य (केवल युक्ति के द्वारा नहीं जानने योग्य) पदार्थ अतीन्द्रिय कहलाते हैं। अउअसिद्ध - अयुतसिद्ध 1/34
किसी के द्वारा नहीं जोडे गए, अपने आप स्वयं जुड़े हुए पदार्थ (समवाय) को 'अयुतसिद्ध' कहते हैं। यह वैशेषिक दर्शनोक्त पदार्थ गुण हैं। अकिरियावाइन् - अक्रियावादिन् 1/126
__ वस्तु के यथावत् क्रिया स्वरुप को न प्रतिपादित करते हुए भिन्न प्रकार से कहने वाले अक्रियावादी कहे जाते हैं। एकान्तवादियों में वस्तु के क्रियारुप को भिन्न प्रकार से प्रतिपादन किया जाता है। कुत्सित के अर्थ में नञ्-समास के द्वारा 'अक्रिया' शब्द निष्पन्न होता है। 'अक्रियावादिन्' के भिन्न-भिन अर्थ किये गये हैं, यथा
1. प्रतिक्षण अनवस्थित पदार्थ के क्रिया संभव ही नहीं हैं, उत्पत्ति के अनन्तर ही उसका विनाश हो जाने से
-एसा मानने वाले। 2. जीवादि पदार्थ की सत्ता ही नहीं है- ऐसा मानने वाले।
3. माता-पिता उत्पत्तिकारण नहीं है- ऐसा मानने वाले। अक्रियावादियों के चौरासी भेद किये गये हैं
जीव स्वतः काल से नहीं है, जीव परतः काल से नहीं हैं, इसी प्रकार यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा इस प्रकार इन पांच भंगो से पृथक्-पृथक् दो-दो भेद करने पर बारह विकल्प हो जाते हैं। जिस प्रकार जीवतत्त्व संबन्धी बारह भेद हैं, उसी प्रकार अजीव, आस्रव आदि छह पदार्थो से भी बारह-बारह भेद बनते हैं। इस प्रकार समस्त भेदविकल्प चौरासी हो जाते हैं।
अभिधान राजेन्द्र में अक्रियावादियों में बौद्धों और सांख्यों का भी उल्लेख किया गया है। चार्वाक् तो साक्षात् अक्रियावादी ही हैं। इस शब्द के अन्तर्गत अक्रियावादियों का खंडन भी किया गया है। अग्गिहोत्तवाइ (ण) - अग्निहोत्रवादिन - 1/180
___अग्निहोत्र (यज्ञ) से स्वर्ग गमन की इच्छावाले एवं ऐसी प्ररुपणा करनेवालों को 'अग्निहोत्रवादी' कहते हैं। यहाँ इनका कुशीलत्व बताया हैं। अजाणिया - अज्ञिका (स्त्री) 1/202
मुग्ध स्वभाववाली, सम्यग्परिज्ञान तथा विशिष्ट गुणरहित पर्षदा को 'अजाणिया' पर्षदा कहते हैं। अजीव - अजीव (पुं.) 1/203
जीव से भिन्न अजीव द्रव्य, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय एवं कालद्रव्य को 'अजीव' कहते हैं। यहाँ अजीव द्रव्य की द्रव्यादि चारों निक्षेपों से भेद प्रभेद पूर्वक व्याख्या की गई हैं।
इसके साथ ही 'अजीवकाय', अजीव द्रव्यविभक्ति, अजीवपर्याय, अजीवप्रज्ञापना, अजीवराशि, अजीवविचय, अजीवाभिगम आदि शब्दों पर भी अजीव द्रव्य के बारे में संक्षिप्त चर्चा की गई हैं। अज्झत्थ - अध्यात्म (व) 1/227, 229
आत्मा से संबंधित, मन संबंधी, ध्यान, सुख, दुःख, धर्मध्यानादि भावना के विषय में 'अध्यात्म' शब्द का प्रयोग होता हैं। अज्झत्तओग - अध्यात्मयोग (पुं.) 1/227
निरामय (रागद्वेषरहित) नि:संग शुद्धात्मभावना से भावित अंत:करण के स्वभाव धर्म को 'अध्यात्मयोग' कहते हैं। अध्यात्मज्ञाता अणुव्रत या महाव्रतयुक्त, जिनागम-तत्त्वचिन्तनरुप जीवादि पदार्थो के स्वरुप का चिन्तक, मैत्र्यादि भावयुक्त होता है। अज्झवसाण - अध्यवसान (न) 1/232
अति हर्ष या विषाद से तत्संबन्धी अधिक चिन्तन को, राग, भय और स्नेह रुप अध्यवसाय, अन्तःकरण की प्रवृत्ति, मन के परिणाम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org|