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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [355] श्रावक के कर्तव्य अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने जैसे श्रावक के दैनिक-रात्रिक-पाक्षिकादि कृत्यों का वर्णन किया है वैसे 'मण्ह जिणाणं' (श्रावक सज्झाय) सूत्रदर्शित 36 कर्तव्यों का भी यत्र-तत्र यथास्थान विस्तृत वर्णन किया है, जो संक्षेप में निम्नानुसार हैं 5. पर्वतिथियों में पौषध व्रत करना : श्रावकों को अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्यादि पर्व तिथियों में पौषध व्रत करना चाहिए (इसका विस्तृत वर्णन पृ. 39091 पर किया गया हैं)।27 6. दान : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'दान' धर्म की व्याख्या करतेहुए कहा है कि प्राप्ताहारादि का ग्लानादि को वितरण28, आहारादि प्रदान करना", स्वयं एवं दूसरे का उपकार हो -इस बुद्धि से अपनी वस्तु अर्पण करना, याचक के इच्छित प्रयोजन की पूर्ति हेतु धन देना, गुरु के द्वारा शिष्यों में आहार, ज्ञान, उपकरण का वितरण, रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रदान करने की इच्छा को 'दान' कहा गया 1. जिनाज्ञापालन करना : 'जिनाज्ञा' शब्द में दो पद हैं - जिन और आज्ञा । 'जिन' के विषय में पूर्व में [(परिच्छेद-4 (क) (1)] लिखा जा चुका हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश' में आचार्यश्रीने अनुष्ठान (जैनागमोक्त क्रिया), सेवा, अभियोगपूर्वक आदेश, निर्देश (पूछे गये प्रश्न के प्रत्युत्तर में कार्य हेतु विधि-निषेध), विधिविषयक आदेश', आज्ञायोग में प्रवर्तन, हितप्राप्ति रुप उपदेश, तीर्थंकर गणधर प्रणीत उपदेश एवं तद्विषयक सदाचार" जिससे अनन्त धर्मो की विशिष्टता के द्वारा जीवादि पदार्थों का समग्रतापूर्वक ज्ञान किया जाये', जिससे सुकृत कर्म किये जाये।, आगम!! - जिससे स्व-स्वभाव के द्वारा या मर्यादापूर्वक अभिव्याप्ति के द्वारा अर्थ (प्रयोजन) का ज्ञान किया जाय, आप्त प्रवचन, द्वादशाङ्गी14, जिससे प्राणी मोक्ष को जानते हैं - श्रुत:5 सर्वज्ञवचन", सम्यक्त्व", आगमनानुसार उपदेशा, नियुक्ति आदि सूत्र व्याख्यान - को 'आज्ञा' कहा गया हैं। साथ ही अभिधान राजेन्द्र कोश में वीतरागोक्त वचन पद्धति के विषय में 'जिनाज्ञा' शब्द का प्रयोग किया गया हैं।20 साधु का तो समस्त जीवन ही जिनाज्ञापालनरुप है ही, अपितु श्रावक का भी यह सर्वप्रथम कर्तव्य है कि जिनाज्ञा का पालन करें। जिनाज्ञापालन अर्थात् जिनाज्ञाराधना मोक्ष फलदायी हैं । आराधनायुक्त जीव उत्कृष्ट से तीसरे भव में निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होता है । आज्ञा मोह विष को दूरकरनेवाला श्रेष्ठ गारुडिक मंत्र, द्वेष सम अग्नि को नष्ट करनेवाला शीतल जल, कर्मव्याधि को नष्ट करनेवाला चिकित्सा शास्त्र और सर्वफल देनेवाला का कल्पवृक्ष हैं। अतः सदा आज्ञाराधक और आज्ञापरतंत्र बनना चाहिए। 2. मिथ्यात्व का परिहार : श्रावक को मिथ्यात्व अर्थात् जिनप्रणीत तत्त्व से विपरीत श्रद्धा का सर्वथा त्याग (परिहार) करना चाहिए (मिथ्यात्व का वर्णन पृ. 193 से 195 पर किया गया हैं) साधक के द्वारा मन-वचनकाया से कृत-कारित मिथ्यात्व का प्रत्याख्यान (नियमपूर्वक त्याग) करना 'मिथ्यात्व-परिहार' कहलाता हैं। 3. सम्यक्त्व को धारण करना : जिन प्रणीत वस्तु (तत्त्व) में प्रतिपत्ति अर्थात् श्रद्धा धारण करना। इसका विस्तृत वर्णन पृ. 159 से 165 पर किया गया हैं।25 4. षडावश्यक में तत्पर रहना : सामायिक, चतुर्विशति स्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान - इन छ: आवश्यकों में श्रावक को प्रतिदिन उद्यमरत रहना चाहिए।26 [विस्तृत वर्णन पृ. 257 से 266 पर किया गया है।] 1. अ.रा.पृ. 2/130, 131 2. विशेषावश्यक भाष्य-564 3. भगवती सूत्र-3/1 4. स्थानांग-7/3 5. स्थानांग-5/2 आचारांग-1/2/2 7. दशवैकालिक-अध्ययन-10 8. आचारांग-1/5/6 9. अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका-21 पर स्याद्वादमञ्जरी टीका 10. दर्शन शुद्धि-तत्त्व-4 11. दर्शनशुद्धि-तत्त्व-4, आचारांग-1/5/2 12. उत्तराध्ययन-नियुक्ति-अध्ययन-1 13. स्थानांग-4/1 14. नंदीसूत्र 15. अनुयोगद्वार सूत्र 16. स्थानांग-10/3 17. आचारांग-1/4/3 18. आवश्यक बृहद्वृत्ति-अध्ययन-1 19. स्थानांग-4/1 20. अ.रा.पृ. 4/1507 21. अ.रा.पृ. 2/134 22. अ.रा.पृ. 7/991, दश पयन्ना मूल-100 23. अ.रा.पू. 2/132 24. अ.रा.पृ. 6/275, धर्मसंग्रह-अधिकार-2 25. अ.रा.पृ. 6/5/2 26. अ.रा.पृ. 5/319, अ.रा.पृ. 2/485; सेन प्रश्न-3/51 27. अ.रा.पू. 5/1133 28. अ.रा.पृ. 4/2489, प्रश्नव्याकरण-3, संवरद्वार 29. वही, आवश्यक बृहद्वृत्ति-अध्ययन-4 30. वही सूत्रकृताङ्ग-1/I1, तत्त्वार्थ सूत्र-7/38 31. वही, कल्प सुबोधिका-5 क्षण 32. वही, विशेषावश्यक भाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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