SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [356]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हैं। अन्य अर्थो में दक्षिणाम, खण्डन और गजमद (हाथी का मद) को 'दान' कहते हैं। दान के प्रकार :धर्मरत्न प्रकरण में दान के तीन प्रकार दर्शाये हैं - (1) ज्ञान दान (2) अभय दान (3) धर्मोपकरण दान 137 स्थानांग सूत्र में दस प्रकार के दान का वर्णन है - (1) अनुकंपा दान (2) संग्रह दान (3) अभय दान (4) कारुणिक दान (5) लज्जा दान (6) गौरव दान (7) अधर्म दान (8) धर्म दान (9) करिष्यतिदान (भविष्य में किया जानेवाला दान) (10) कृत दान ।38 रत्नकरंडक श्रावकाचार में चार प्रकार का दान बताया हैं-39 (1) आहार (2) औषध (3) ज्ञान के साधन शास्त्रादि उपकरण और (4) स्थान (वसति)। सर्वार्थसिद्धि में तीन प्रकार के दान बताये हैं - (1) आहार (2) अभय (3) ज्ञान - इन तीन प्रकार के दानों का वर्णन किया गया हैं। महापुराण और चारित्रसार में चार प्रकार की दत्ति (दान) कही गयी संग्रह दान : __ अकाल, युद्ध, अतिवृष्टि-अनावृष्टि एवं अन्य संकट के समय दान देने के लिए पदार्थ का संग्रह करके उसका दान करना, 'संग्रह दान' कहलाता हैं। कारुणिक दान : पुत्रादि के वियोगादि जनित शोक के कारण 'वह (पुत्रादि) अगले जन्म में सुखी हो', एसी भावना से करुणापूर्वक (दया, शोकजनित) जो दान दिया जा, उसे 'कारुणिक दान' कहते हैं।52 लज्जा दान : यदि अभ्यार्थी किसी को दिखायेगा तो जनसमूह या दूसरे लोग मेरे बारे में क्या कहेंगे? एसा सोचकर लज्जा से जो दान दिया जाय, वह लज्जादान हैं। गौरव दान : यशः कीर्ति की चाहना से नट, नृत्यांगना, मल्लादि को अभिमानपूर्वक जो दान दिया जाता है, वह 'गौरव दान' कहलाता (1) दया दत्ति (2) पात्र दत्ति 93) समदत्ति और (4) अन्वय दत्ति। सागार धर्मामृत में ये तीन प्रकार के दान बताये हैं-42 (1) सात्त्विक (2) राजस और (3) तामस ज्ञानदान :भव्यात्माओं को अध्ययन कराना, शास्त्र सुनाना, आगमों का ज्ञान कराना, ज्ञानदान हैं। अभयदान : दुःख से भयभीत छ: काय के जीवों की रक्षा करना - अभयदान हैं। परिच्छेद-4(क)(5) के प्रकरण में इसका विस्तृत वर्णन पृ. 274 से 276 पर किया जा चुका हैं। धर्मोपकरणदान : पञ्च महाव्रतधारी साधु-साध्वी को धर्मबुद्धि से कल्प्य आहार, जल, औषध, पात्र, शास्त्र/ज्ञानोपकरण, वस्त्र, शय्या, वसति (रहने का स्थान) आदि संयम जीवन में सहायक उपकरण देना 'धर्मोपकरण' दान हैं। अनुकम्पा दान : क्षुधातुर, तुषित, दीन-दु:खी, संकट में फँसे, अनाथ, निराधार, रोगी मनुष्यों एवं प्राणियों के उद्धार की भावना से दिया गया दान अनुकम्पादान हैं। वसुनंदि श्रावकाचार में इसे करुणादान कहा गया हैं।47 अनुकंपा दान श्री तीर्थंकर, आचार्यादिने भी दिया हैं। जैसे श्री महावीर स्वामीने ब्राह्मण को आधा देवदूष्य वस्त्र प्रदान किया और आर्य सुहस्तिसूरिने द्रमक मुनि को भोजन करवाया।48 सभी तीर्थंकर दीक्षा के पूर्व एक वर्ष तक संवत्सरी दान देते हैं। यह सब अनुकंपा दान हैं।" साधु के द्वारा तपस्वी, क्षपक, ग्लान (रोगी) असमर्थ शैक्ष (नवदीक्षित) आदि अनुकम्पा योग्य हैं। परंतु श्रावक साधु को अनुकंपा की बुद्धि से नहीं अपितु धर्मबुद्धि से दान दें। श्रावक जिनमंदिर, तालाब, बावडी, कुआँ, औषधालय, सदाव्रत, पुष्पवाटिका, अन्नजल वितरण के स्थान इत्यादि बनवावें तथा दुःखी जीवों के उद्धार हेतु धन का दान करें, यह सब अनुकम्पादान हैं।50 अधर्म दान : हिंसक, असत्यभाषी, चोर, वेश्या, परिग्रही, आदि पाप कार्य। अधर्म करनेवालों को दिया गया दान 'अधर्म दान' कहलाता हैं।55 धर्मदान (सुपात्र दान) : धर्मबुद्धि से संसार त्यागी पञ्ज महाव्रधारी साधु-साध्वी को जो दान दिया जाता है, वह दान 'धर्म दान' कहलाताहैं ।56 निग्रंथ साधु को प्रासुक, एषणीय (कल्प्य) आहार, पानी, खादिम, स्वादिम, (चारों प्रकार का आहार), वस्त्र, पात्र, औषध, कंबल, पादपोंछन, पाटपटिये, शय्या, संथारा, आसन, वसति (रहने का स्थान), ज्ञानोपकरण आदि देना धर्म/सुपात्र दान हैं।57 33. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/422 34. अ.रा.पृ. 4/2499, सूत्रकृताङ्ग-2/5 35. अ.रा.पृ. 4/2499 36. वही, ज्ञाता धर्मकथाङ्ग-1/9 37. अ.रा.पृ. 4/2489 38. वही, स्थानांग-10 वाँ ठाणां 39. रनकरंडक श्रावकाचार-117, वसुनंदि श्रावकाचार-233 40. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/422 41. वही, महापुराण-38/35 42. वही, सागार धर्मामृत-5/47 43. अ.रा.पृ. 4/1992, गच्छाचार पयन्ना-अधिकार-2 44. अ.रा.पृ. 1/706, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/423 45. अ.रा.पृ. 4/2489, 4/2737 46. अ.रा.पृ. 1/360 47. वसुनंदि श्रावकाचार-235 48. अ.रा.पृ. 1/361, द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका-1/10 49. अ.रा.पृ. 1/360, स्थानांग-10 वां ठाणा 50. वही 51. अ.रा.पृ. 776, स्थानांग 10/3 52. अ.रा.पृ. 3/502, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/427 53. अ.रा.पृ. 6/598, स्थानांग-10/3 54. अ.रा.पृ. 3/871 55. अ.रा.पृ. 1/568 56. अ.रा.पृ. 4/2719 57. अ.रा.पृ. 4/2490 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy