SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन करिष्यतिदान : यह मेरा कुछ उपकार करेगा एसी बुद्धि से किया जाता दान 'करिष्यति दान' कहलाता हैं। 58 कृतदान उपकारी के उपकार के बदले में उपकारों के प्रत्युकार बुद्धि से दिया जाता दान 'कृतदान' हैं 59 औषध दान : उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेश से परिपीडित जीव को शरीर के योग्य पध्य देना, औषधदान हैं 160 शास्त्र दान : आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रों को देना और जिनवचनों का अध्यापन कराना, 'शास्त्रदान' है । " सात्त्विक दान : जिस दान में अतिथि का कल्याण हो, जिसमें पात्र की परीक्षा या निरीक्षण स्वयं किया गया हो और जिसमें श्रद्धादि समस्त गुण हो, उसे सात्त्विक दान कहते हैं। 62 राजस दान : जो दान यशः कीर्ति के लिए हो, थोडे समय के लिए सुन्दर हो और दूसरें से दिलाया गया हो, उसको राजस दान कहते हैं । तामस दान : पात्र-अपात्र के विवेकरहित, निन्द्य, अतिथिसत्कार रहित और नौकर-सेवक कृत परिश्रमपूर्वक दिया गया दान 'तामस दान' हैं। 64 दान का फल : सर्व दानों में अभयदान सर्वश्रेष्ठ हैं, इससे अहिंसा धर्म का पालन होता हैं । अनुकम्पादान शासन प्रभावना का अङ्ग हैं। इससे शुभाशय की वृद्धि होती हैं और प्रवचन / जिनशासन की उन्नति होती हैं 16 दीनादि के द्वारा या मिथ्यात्वी आदि के द्वारा याचना करने पर दान नहीं देने पर पीडा, अप्रीति, शासन-द्वेषता, कुगति सङ्ग आदि विपरीत फल उत्पन्न होते हैं अतः उनको भक्ति से या सुपात्र - दान की बुद्धि से नहीं, परन्तु अनुकम्पादान की बुद्धि से अवश्य देना चाहिए । भक्तिपूर्वक श्रद्धा सहित किया गया सुपात्र दान बहुत कर्मो का क्षय करता हैं।68 दान से शुभ, पवित्र कीर्ति, उत्तम सौभाग्य, अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।" सुपात्रदान सर्वसंपत्कारी और महानन्दप्रद हैं ।" साधु को प्रासुक, एषणीय सुपात्रदान देने से शुभ दीर्घायुष्य का बंध होता हैं, अनन्त कर्मों की एकान्त निर्जरा होती है", समाधि, बोधि और परंपरा से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं 2, भोग भूमि, स्वर्ग एवं परंपरा से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं 3, गृहकार्यों संचित हुए पाप नष्ट होते हैं। 74 सुपात्रदान के प्रभाव से जीव को तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, माण्डलिक राजादि पदवियाँ प्राप्त होती हैं 175 धन नामक सार्थवाह मुनियों को घी का दान देने से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव बनें। पूर्वभव में मुनि की आहार से भक्ति करने के फलस्वरुप भरत भरतेश्वर के रुप में प्रथम चक्रवर्ती बना 176 मेघरथ राजा के भव में कबूतर को दिये अभयदान के प्रभाव से शांतिनाथ चतुर्थ परिच्छेद... [357] तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती बनें। मुनि को आहारदान के प्रभाव से महावीर स्वामी की आत्मा ने नयसार के भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया ।" पूर्व भव में मासक्षमण के तपस्वी बलभद्र मुनि को दिये आहारदान के प्रभाव से लकड़हारा और उसकी पत्नीने स्वर्गलोक का सुख पाया । इतना ही नहीं, उनकी आहारदान की अनुमोदना से हिरण को भी स्वर्ग प्राप्त हुआ । " पूर्वभव में मासक्षमण के तपस्वी मुनि को खीर वहेराने से धन्ना - शालिभद्रने इस भव में गर्भ श्रीमंत होकर अखूटवैभव, पद्- पद् अक्षय संपत्ति और मनुष्य होते हुए भी देवलोक के सुख-वैभव प्राप्त किये। 79 'दान धर्म' ग्रंथ में कहा गया हैं "सत्यपात्र में दिया गया दान कल्पवृक्ष जैसा है। सत्यपात्र में व्यय किया गया धन अनन्तगुण होता हैं। 80 मुनिदान के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहा गया है कि "मुनि को वसति (निवास हेतु स्थान) दान के प्रभाव से कुरुचन्द्र मंत्री ने दूसरे भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया। मुनि को शयन हेतु पीठ - फलक (पाट) आदि के दान के फलस्वरुप दाता को नित्य दिव्य शय्या प्राप्त होती है, पुत्र, कलत्र (स्त्री) आदि का सुख प्राप्त होता है, वह निरोगी होता है और भविष्य में सुख सुलभ होता हैं। 82 मुनि को कम्बल के ऊनी आसन के दान के प्रभाव से दाता लक्ष्मीधर की तरह भवान्तर में सर्वप्रकार से अनवरत सुखी होता हैं। 83 धनदेव और यशोमती नामक कुटुम्बीने मुनि को आहारदान के प्रभाव से विद्याधरेन्द्र का वैभव प्राप्ति किया। मुनि को शुद्ध, प्रासुक (उबाला हुआ) जल के दान के प्रभाव से धन्य नाम के नौकरने दूसरे भव में अतिभद्र के रुप में निरंतर वृद्धि प्राप्त करती हुई लक्ष्मी प्राप्त की 185 Jain Education International 58. 59. 60. 61. 62. 63. वही 64. वही अ. रा. पृ. 3/506 अ.रा. पृ. 3/354 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/423, वसुनंदि श्रावकाचार - 236 अ. रा. पृ. 5/1122; वसुनंदि श्रावकाचार - 237 67. 68. 69. 70. 65. अ.रा. पृ. 4/2490, सूत्रकृताङ्ग - 1/6 66. सागार धर्मामृत - 5/47 75. 76. 77. 78. अ.रा. पृ. 1/360-61, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश-2/422 अ. रा. पृ. 4/2497 अ.रा. पृ. 4/2497, अ. रा. पृ. 4/2490 अ. रा. पृ. 4/2498, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/424 71. अ.रा. पृ. 2/15, 16 स्थानांग-3 / 1 72. अ. रा. पृ. 2/16, भगवती सूत्र 7/1, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/424 रयणसार 16 73. 74. नकरंडक श्रावकाचार 114 अ. रा. पृ. 4/2498 अ. रा. पृ. 4/2498 अ. रा. भा. 'तित्थयर' शब्द, कल्पसूत्र: बालावबोध श्री महावीर चरित्र बलभद्र मुनि की सज्झाय 79. अ.रा. पृ. 4/2660 80. दानधर्म पृ. 1 81. वही 82. वही पृ. 7 83. वही पृ. 9 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/424 पञ्चाशक- विवरण-2, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 2/424 84. वही पृ. 16 85. वही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy