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[66]... द्वितीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (8) तृतीय उपक्रम वस्तुतः प्रथम उपक्रम का ही विस्तार है। चूंकि । संशोधकों के ज्ञान में चार भागों में विभक्त हो गया।
प्रथम और द्वितीय उपक्रमों में यह ग्रन्थ चार भागो में विभक्त (10) 'संस्कार बलवान होता है और यही कारण है कि जिन था, इसलिए 'कारणानुरुपं कार्यम्, इस सिद्धांत के अनुसार संशोधकोंने पूरे अभिधान राजेन्द्र कोश का एक-एक अक्षर 'अभिधान राजेन्द्र कोश' का लेखन प्रारंभ होने के साथ ही पढकर अपने स्वयं के हाथों से आठ-आठ वर्षों तक यह भी सिद्धांततः स्थापित हो चुका था कि अभिधान राजेन्द्र उसे संशोधित किया और स्वयं सात भागों में प्रकाशित कोश की विषय-वस्तु चार भाग में विभाजित हैं। चूंकि एक करवाया, तथापि अभिधान राजेन्द्र कोश के बुद्धिस्थ चार साथ तीन उपक्रम चल रहे थे इसलिए प्रथम दो उपक्रमों की विभाग का उल्लेख प्रस्तावना एवं उपोद्घात में संशोधित गति भी मंद हो गयी होगी और इस प्रकार 'पाइयसबुहि' नहीं किया जा सका। की रचना वि.सं. 1956 में पूर्ण हो सकी होगी।
हमने यहाँ 10 बिन्दुओं में तथ्यों को उपस्थित करके (9) चूंकि इन कोशों की रचना एक लम्बे समय तक चलती रही अपने अभ्युपगम को सिद्ध किया है कि अभिधान राजेन्द्र कोश
और 'पाइयसदबुहि' वि.सं. 1956 में पूर्ण हो गया जो कि का चार भागों में विभक्त होना - क्यों संकेतित किया गया चार भागों में विभक्त था, और जिस पर तीसरा उपक्रम 'अभिधान है। विद्वानों का कर्तव्य है कि हमारे इस अभ्युपगम पर सयुक्तिक राजेन्द्र कोश' भी आधृत था, यह स्वाभाविक है कि भविष्य विचार करें। में पूरा होने वाला बुद्धिस्थ अभिधान राजेन्द्र कोश' भी जानकारों
| 'ते प्राप्वन्ति महोदयम् ।' |
जय देवाधिदेवाऽऽधि - व्याधिवैधुर्यनाशन !। सर्वदा सर्वदारिद्रय-मुद्राविद्रावणक्षमः ॥ अगण्यपुण्यकासण्य - पण्याऽऽपणवृषध्वज!। जयसन्देहसन्दोह-शैलदम्भोलिसन्निभ! ॥2॥ स्फुरत्कषायसन्ताप-संपातशमनाम्त !। जय संसारकान्तार - दावपावक पावन ॥3॥ सदा सदागमाम्भोज - विबोधनदिनप्रभुम् !। नत्वा नत्वा भवे भावि, भविनः पतनं खलु ॥4॥
ये देवदेव गंभीर-नाभे! नाभेय! भूरिभिः । त्वद्गुणैः स्वं नियच्छन्ति, ते मुक्तां स्युर्महाद्भुतम् ॥5॥
देव ! त्वन्नामसन्मन्त्रो, येषां चित्ते चकास्ति न। मोहसर्पविषं तेषां, कथं यातु क्षयं क्षणात् ॥6॥
परिस्पृशन्ति ये नित्यं, त्वदीयं पदपङ्कजम्। तेषां तीर्थेश्वरत्वाऽऽदि-पदवी न दवीयसी 7॥ नमः सद्दर्शनज्ञान-वीर्याऽऽनन्दमयाय ते ।
अनन्तजन्तुसन्तान-त्राणप्रवणचेतसे ॥8॥ एवं युगाऽऽदितीर्थेशं, ये स्तुवन्ति सदा नराः । देवेन्द्रवृन्दवन्दायस्ते, प्राप्नुवन्ति महोदयम् ॥७॥
- अ.रा.पृ. 6/69
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