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[170]... चतुर्थ परिच्छेद
सम्यग्ज्ञान के एक पद के भी चिन्तक को जिनेश्वर परमात्माने आराधक कहा है क्योंकि वह आत्मा वीतरागमार्ग में संवेगदायक एक पद के भी ज्ञान को अन्तसमय तक नहीं छोड़ता । 146 इतना ही नहीं अपितु सिद्धान्त के महानिशीथ सूत्र में परमात्मा महावीरस्वामीने कहा है कि, हे गौतम! सिद्धांत के एक अक्षर को भी जो जानता है वह मरणांत कष्ट आने पर भी अनाचार का सेवन नहीं करता ।47 इससे उसकी गुण समृद्धि नष्ट नहीं होती इसीलिए सुविहित आत्मा आराधनायुक्त होकर तीसरे भव में मोक्ष को प्राप्त होती है । 148
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
अतः भव्य जीव को हितशिक्षा देते हुए राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि, हे जीव ! मत्सर (ईर्ष्या) का सर्वथा त्याग करके सिद्धिनगर रुप सन्मार्ग को प्रकट करने के लिये ज्ञानरुप मणि (रत्न) के उद्योत को प्राप्त करने हेतु सर्व प्रकार से प्रयत्न कर। 149
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146. अ.रा. पृ. 7/991
147 अ.रा.पु. 7/990, महानिशीथ अ-6
148. अ.रा. पृ. 7/991
149. अ.रा. पृ. 7/990, जीवाभिगम सूत्र - अ. - 11, गा.-70
मा परिभमह
इह भोगा विसमिव मुह-महुरा परिणामदारुणविवागा । सिवनयरमहागोउर - निविडकवाडोवमा भोगा ॥1॥ भोगा सुतिक्खबहुदु - क्खलक्खदवहुयबहिं धण समाणा । धम्मडुमउम्मूलक्षण - समीरलहरीसमा भोगा ॥12 ॥ जं भुत्तमणाइभवे, जीवेणाहारभूसणाईयं । एत्थ पुंजियं तं, अहरेइ धरुधरं धरणि ॥3॥ पाइँ जाइँ सुमो - रमाइँ पाणाइँ पाणिणो पुवि । विज्जंति ताइ न हु तत्ति - याइ सलिलाइ जलहीसु ॥4॥ पुप्फाणि फलाणि दला - णि जाणि भुत्ताणि पाणिणा पुव्वि । विज्जंति न तिहुयणतरु- गणेसु किर वट्टमाणेसु ॥5॥ भुत्तूणं सुइसुंदरे सुरबहूसंदोहदेहाइए,
भोए सायरपल्लमाणमणहे देवत्तणे जं नरो । रज्जतीत्थिकलेवरेसु असुईपुत्रेसु रिट्ठोवमा
मन्ने तित्तिकरा जियाण न चिरं भुत्ता वि भोगा तओ ॥6॥ ता पडिबुज्झइ बुज्झह, मा भोगपरव्वसं मणं काउं । दुत्तरअणोरभवजल - निहिम्मि परिभमहदुक्खत्ता ॥ 7 ॥
- अ. रा. पृ. 5/1067
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