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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [169] विषय-क्षेत्र एवं विशुद्धि की अपेक्षा से अवधिज्ञान सभी संसारी जीवों में पाये जाते हैं।33 और अवधिज्ञान के भवप्रत्यय के तीन भेद/24:--
और गुणप्रत्यय - इन प्रकारों में से पहला देव और नारकों तथा चरमशरीरी
एवं तीर्थंकर (जो उसी भव में तीर्थंकर बनने वाले होते) को और देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। इनसे विषय, क्षेत्र
दूसरा भेद मनुष्य और तिर्यंचों में संभव है।34 | मन:पर्यवज्ञान सर्वविरतिधर और पदार्थो के ज्ञान में उत्तरोत्तर अधिक विस्तार और अधिक विशुद्धि
साधु को ही होता है और केवलज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्वी संयमी को पायी जाती है। देशावधि एक बार प्राप्त होकर छूट भी सकता है
होता है।35 । (क्वचित् कोई आत्मा अन्यलिङ्ग से केवलज्ञानी होती है अत: वह प्रतिपाती है परन्तु परमावधि और सर्वावधि ज्ञान उत्पन्न
तो उनका भी भावचारित्र तथा प्रकार का विशुद्ध ही होता है।361 होने के बाद केवलज्ञान की प्राप्ति तक कभी नहीं छूटने के कारण अप्रतिपाती है। ये दोनों तद्भव मोक्षगामी मुनियों के ही होते हैं।
सम्यग्ज्ञान का फल:यहाँ पर अवधिज्ञान के चार, चौदह और अनन्त भेद भी दर्शाये
मोक्ष के कारणभूत, आसन्नकाल में विरतिफलदायक एवं गये हैं।
परंपरा से मोक्षफलप्रदायक 37 सम्यग्ज्ञान को मनीषियोंने बिना समुद्र मन:पर्यवज्ञान:
(मंथन) का पीयूष, बिना औषध का रसायन एवं अन्य की अपेक्षा दूसरों के मनोगतं अर्थ को जाननेवाला ज्ञान मनःपर्यव ज्ञान
से रहित ऐश्वर्य (वैभव) कहा है।138 है। यह ज्ञान मन के प्रवर्तक या उत्तेजक पुदगल द्रव्यों को साक्षात्
ज्ञान से ज्ञानावरण दूर हटता है (नष्ट होता है), अज्ञान का जाननेवाला है। चिन्तक जैसा सोचता है मन में उसके अनुरुप पर्यायें। नाश होता है, पदार्थ के हेय-उपादेयत्त्व का ज्ञान होता है, सद्-असद् पुद्गल द्रव्यों की आकृतियाँ बन जाती है। वस्तुतः मनःपर्यव का का विवेक होता है।39, व्रतों दोषों का ज्ञान होने से नीति मार्ग/न्याय अर्थ है मन की पर्यायों का ज्ञान125 ।
मार्ग/सदाचरण/चारित्र में निरतिचार प्रवृत्ति होती है।40, विषयाभिलाषा मनःपर्यव ज्ञान के दो भेद हैं - (1) ऋजुमति और (2) नष्ट होती है।41, वैराग्य उत्पन्न होता है, सदनुबंध (अच्छे संस्कार) विपुलमति । ऋजुमति सरल मन, वचन, काया से विचार किये गये की प्राप्ति होती है।42 । ज्ञानी आत्मा विनययुक्त होती है, गुरुभक्ति पदार्थों को जानता है पर, विपुलमति मनःपर्यव ज्ञान सरल और कुटिल
करती है।143 दोनों तरह से विचार किये गये पदार्थों को जानता है। ऋजुमति की
ज्ञान चारित्र का हेतु है। ज्ञान से दोषों का परिहार, गुणों अपेक्षा विपुलमति अधिक विशुद्ध होता है। ऋजुमति एक बार होकर
की सेवा एवं धर्म की साधना होती है। ज्ञानयुक्त क्रिया से पूर्वसंचित छूट भी सकता है, किन्तु विपुलमति मनःपर्यवज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त बना रहता है, इसलिए इसे 'अप्रतिपाती' कहते हैं। दोनों
कर्मों का नाश होता है। बहुश्रुत के मुख से जिनवचन को सुनकर प्रकार का मनः पर्यवज्ञान संयमी मुनियों को ही होता है।20।
भव्यात्माएँ संसार-अरण्य को पार करती है। ज्ञान से जीव चारित्र अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी
की शुद्धि का ज्ञाता बनकर अतिचारों को दूर करता है।144 और विषय की अपेक्षा अन्तर है। अवधिज्ञान के द्वारा ज्ञात किये
ज्ञानी आत्मा के आनंदरुप नन्दनवन में इन्द्र की तरह (निश्चित गये पदार्थ के अनन्तवें भाग तक के सूक्ष्म और विशुद्ध स्वरुप को होकर) रमण करता है।145 मन:पर्यवज्ञानी जानता है। 127
124. अ.रा.पृ. 3/152, 3/157 केवलज्ञान:
125. अ.रा.पृ. 6/85; भगवती सूत्र 8/2
126. अ.रा.पृ. 6/85; स्थानांग-2/1; तत्त्वार्थसूत्र 1/24 लोकालोक के त्रिकालवर्ती रुपी-अरुपी समस्त द्रव्यों और
127. तत्त्वार्थसूत्र 1/26 उनकी समस्त पर्यायों को युगपत् प्रत्यक्ष जाननेवाला ज्ञान केवलज्ञान
128. अ.रा.पृ. 3/642 है। केवलज्ञानी को सर्वज्ञ कहते हैं। समस्त ज्ञानावरण कर्म के समूल 129. तत्त्वार्थसूत्र 1/11 विनष्ट होने पर यह ज्ञान उत्पन्न होता है। यह पूर्णरुप से निरावरण 130. वही 1/12
और निर्मल ज्ञान है। इस ज्ञान के उत्पन्न होते ही मति आदि चारों 131, तत्त्वार्थसूत्र 1/32; अ.रा.पृ. 4/1945, 1946 क्षायोपशमिक ज्ञान इसमें अन्तर्भावित हो जाते हैं। केवलज्ञान आत्मा 132. अ.रा.पृ. 6/56, 85; विशेषावश्यक भाष्य-812 की ज्ञान-शक्ति का पूर्ण विकसितरुप है।28। यहाँ पर केवलज्ञान 133. अ.रा.पृ. 6/56 की दार्शनिक सिद्धि की चर्चा की गई है तथा भवस्थ और सिद्ध 134. तत्त्वार्थसूत्र 1/22-23 एवं उस पर तत्त्वार्थभाष्य; अ.रा.पृ. 6/56 की अपेक्षा से केवलज्ञान के भेद-प्रभेद की भी चर्चा की गई है। 135. अ.रा.पृ. 6/56, 85
इन पाँच ज्ञानों में मन और इन्द्रियों की सहायता अपेक्षित 136. नवतत्त्वप्रकरण, पृ232 होने से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परीक्षा और आत्मा से उत्पन्न होने 137. अ.रा.पृ. 4/1980 के कारण (अन्य इन्द्रियादि की अपेक्षा नहीं होने से) अवधिज्ञान,
138. वही, ज्ञानासार-5/8 मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष कहलाते हैं।30 । मति, श्रुत और
139. अ.रा.पृ. 4/1979
140. अ.रा.पृ. 4/1980 अवधि - ये तीन ज्ञान मिथ्या भी होते हैं।31, शेष दो ज्ञान अर्थात्
141. अ.रा.पृ. 4/1981 मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान सम्यग् ही होते हैं।क्योंकि ये दोनों
142. अ.रा.पृ. 4/1979 ज्ञान मिथ्यात्व के कारणभूत मोहनीय कर्म के अभाववाली विशुद्ध 143. अ.रा.पृ. 4/1980 आत्मा में ही संभव है।37 | मतिज्ञान और श्रुतज्ञान चारों गति के
144. अ.रा.पृ. 7/991 145. अ.रा.पृ. 4/1980
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