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________________ [262]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन हुआ हो या नहीं भी हुआ हो तो भी दैवसिक, रात्रिक और आवश्यक बहदवृत्ति के आधार पर प्रतिक्रमण के भेद :पाक्षिकादि प्रतिक्रमण नियम से दोनों समय (प्रात: -सायं) अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रतिक्रमण के निम्नांकित भेद दर्शाये हैं।0अवश्य करना 'ध्रुव काल प्रतिक्रमण' हैं । (ख.) अध्रुव 1. दैवसिक 2. रात्रिक 3. इत्वरकथिक काल प्रतिक्रमण - भरत-एरावत क्षेत्रों में मध्यम 22 तीर्थंकर 4. यावत्कथिक 5. पाक्षिक 6: चातुर्मासिक के साधु-साध्वी तथा महाविदेह क्षेत्र के साधु-साध्वी का यदि 7. सांवत्सरिक 8. उत्तमार्थ। दोष लगे तो ही तत्समयानुसार दैवसिक या राई (रात्रिक) इत्वरकथिक - स्वल्पकालिक प्रतिक्रमण को इत्वरकथिक प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण करना अध्रुव काल प्रतिक्रमण है" (वहाँ पाक्षिकादि कहते हैं। प्रतिक्रमण का प्रवर्तन ही नहीं है)। यावत्कथिक - जीवन पर्यन्त ग्रहण किये जाते व्रतों के अतिचारों की कालापेक्ष प्रतिक्रमण के भेद : शुद्धि हेतु जो प्रतिक्रमण यावज्जीव किया जाता है, उसे ही यावत्कथिक काल की अपेक्षा से अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रतिक्रमण के प्रतिक्रमण कहते हैं। पाँच भेद भी दर्शाये हैं उत्तमार्थ - भक्त प्रतयाख्यानादि अनशन ग्रहण करने पर जीवन भर के क. देवसिअ (दैवसिक) - प्रतिदिन सायंकाल के समय पाप कार्यो की शुद्धिरुप किया जानेवाला प्रतिक्रमण उत्तमार्थ प्रतिक्रमण पूरे दिवस में आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी होता है। आलोचना करना। ___मूलाचार के आधार पर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में भी इसी राइअ (रात्रिक) - प्रतिदिन प्रात:काल के समय संपूर्ण प्रकार की मर्यादायुक्त प्रतिक्रमण के तीन भेदों का उल्लेख हैं12. रात्रि के आचरित पापों का चिन्तन कर उसकी आलोचना 1. सर्वातिचार प्रतिक्रमण - दीक्षाग्रहण के समय से संपूर्ण करना 160 जीवन में लगे दोषों की शुद्धि करना पक्खी (पाक्षिक) - पक्षान्त में चतुर्दशी के दिन संपूर्ण 2. विविध प्रतिक्रमण - जल को छोड़कर शेष तीनों प्रकार पक्ष (15 दिनों) में आचरित पापों का चिन्तन कर केआहार करने में लगे दोषों की शुद्धि करना। उसकी आलोचना करना। 3. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण - जीवन पर्यन्त जल पीने में लगे दोषो घ. चौमासी (चातुर्मासिक) - आषाढ शुक्ला, कार्तिक की शुद्धि करना। शुक्ला एवं फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी की संध्या को ___ काल की अपेक्षा से मूलाचार में प्रतिक्रमण के 1. दैवसिक चार महिने में आचरित पापों का चिन्तन कर उसकी 2. रात्रिक 3. एपिथिक 4. पाक्षिक 5. चातुर्मासिक 6. सांवत्सरिक और आलोचना करना । 7. उत्तमार्थ - ये सात भेद दर्शाये गये हैं।73 संवच्छरीअ (सांवत्सरिक) - संवत्सरी महापर्व प्रतिक्रमण योग्य प्रसंग :(भाद्रपदा शुक्ल चतुर्थी) की संध्या को वर्ष भर के पापों का चिन्तन कर उसकी आलोचना करना 163 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने प्रतिक्रमण योग्य बातों/ स्थानों का वर्णन करते हुए कहा है कि "साधु या श्रावक के द्वारा शास्त्र भगवती आराधना के अनुसार रात्रि, तीनों संध्या, स्वाध्याय में निषद्ध (अकरणीय) कार्यो के करने पर, अवश्य करने योग्य कार्यों के काल एवं आवश्यक क्रियाओं के काल में आने-जाने का त्याग करना 'काल प्रतिक्रमण' हैं। नहीं करने पर अश्रद्धान (मिथ्यात्व), और स्वयं के द्वारा कृत सिद्धान्तविपरीत प्ररुपणा का प्रतिक्रमण किया जाता है। 6. भाव प्रतिक्रमण :मन-वचन-काया से मिथ्यात्व-शक्यादि का चिंतन, वार्तालाप 56. अ.रा.पृ. 5/262, 263 आवश्यक बृहवृत्ति-4/18 57. अ.रा.पृ. 5/262, 263 आवश्यक बृहद्वृत्ति-4/19 या व्यवहार (लेन-देन) न करना, न कराना, करनेवालों की अनुमोदना 58. अ.रा.पृ. 5/264 नहीं करना - अप्रशस्त भाव प्रतिक्रमण हैं।65 59. अ.रा.पृ. 5/264 और सम्यग्दृष्टि साधक के द्वारा सम्यक्त्व में लगे अतिचार 60. अ.रा.पृ. 5/264 एवं अहिंसादि व्रतों में लगे अतिचार दोषों का चिंतन कर, उसकी 61. अ.रा.पृ. 5/69,5/264 आलोचना कर पुनः व्रतों में स्थिर होना प्रशस्त भाव प्रतिक्रमण हैं।66 62. अ.रा.पृ. 5/264 भगवती आराधना के अनुसार आर्त्त-रौद्र इत्यादि अशुभ अ.रा.पृ. 5/264 परिणाम और पुण्यास्रव के कारणभूत शुभ परिणाम का त्याग करना 64. भगवती आराधना-116 पर विजयोदया टीका पृ. 275 भाव प्रतिक्रमण हैं।67 65. अ.रा.पृ. 5/262, 264 265, आवश्यक बृहवृत्ति - 4/4, स्थानांग-ठाणांअभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार मन-वचन-काय से कृत अ.रा.पृ. 5/262, 336, आवश्यक बृहद्वृत्ति-4/5 कारित-अनुमोदनपूर्वक (3x3) विपरीत आचरण का प्रतिक्रमण करने 67. भगवती आराधना-विजयोदया टीका-116 पृ. 275 पर भाव प्रतिक्रमण नौ प्रकार का है ।68 68. अ.रा.पृ. 5/265, आवश्यक नियुक्ति-33 भगवती आराधना के अनुसार किये हुए अतिचारों का मन 69. भगवती आराधना-509 पर विजयोदया टीका पृ. 278 से त्याग करना-मनःप्रतिक्रमण हैं; हा !! मैने पाप कार्य किया-एसा मन 70. अ.रा.पृ. 5/264, आवश्यक बृहवृत्ति-4/21 से विचार करना भी मनःप्रतिक्रमण हैं। सूत्रों का उच्चारण करना-वचन 71. अ.रा.पृ. 5/264, आवश्यक बृहद्वृत्ति-4/21 72. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- पृ. 3/116 मूलाचार-120 (वाक्य) प्रतिक्रमण हैं और शरीर के द्वारा दृष्कृत्यों का आचरण न करना 73. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- पृ. 3/116 - कायकृत प्रतिक्रमण हैं। 74. अ.रा.पृ. 5/271, 317; वंदित्तु सूत्र-48 5/3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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