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________________ करना 0 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [261] प्रतिक्रमण के पर्याय - अभिधान राजेन्द्र कोश में 'प्रतिक्रमण के 3. इत्वर प्रतिक्रमण - स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना इत्वर निम्नलिखित पर्यायवाची नाम दिये गये है15 प्रतिक्रमण हैं। 1. प्रतिक्रमण - पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर आत्मशुद्धि यावत्कथिक प्रतिक्रमण - संपूर्ण जीवन के लिए पाप से के क्षेत्र में लौट आना। निवृत्त होना यावत्कथिक प्रतिक्रमण हैं। 2. प्रतिचरण - हिंसा, असत्य आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, 5. यत्किञ्चिन्मिथ्या - सावधानी पूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए सत्य और संयम के क्षेत्र अग्रसर होना। भी प्रमाद अथवा असावधानी से किसी भी प्रकार का असंयम परिहरण - सब प्रकार से अशुभ प्रवृत्तियों एवं दुराचरणों का रुप आचरण होने पर तत्काल भूल को स्वीकार करना और त्याग करना। उसके प्रति पश्चात्ताप करना यत्किञ्चिन्मिथ्या प्रतिक्रमण हैं। वारण - निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति नहीं करना । स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण - विकार, वासनायुक्त स्वप्न देखने निवृत्ति - अशुभ भावों से निवृत्त होना। पर उसके संबंध में पश्चाताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण हैं। निन्दा - स्वयं अपनी आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ अभिधान राजेन्द्र कोश में नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-काल आचरणों को बुरा समझना तथा उसके लिए पश्चाताप करना। और भाव -इन छह निक्षेपों के अनुसार छह प्रकार का भी प्रतिक्रमण गर्हा - गुरु साक्षी से अशुभ आचरण को गर्हित समझना, उससे दर्शाया हैं। धृणा करना। 1. नाम प्रतिक्रमण - अयोग्य नाम (या शब्दों) का उच्चारण न शुद्धि- प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिये इसे शुद्धि 2. स्थापना प्रतिक्रमण-आप्ताभास की प्रतिमा के दर्शन-नमनकहा गया हैं। वंदन-द्रव्य पूजन करने का त्याग स्थापना प्रतिक्रमण है अथवा प्रतिक्रमण के प्रकार : त्रस या स्थावर जीवों की स्थापनाओं का नाश, ताडन, मर्दनादि स्थानांग सूत्र के अनुसार प्रतिक्रमण के भेद : नहीं करना स्थापना प्रतिक्रमण हैं। स्थानांग सूत्र के अनुसार प्रतिक्रमण पाँच प्रकार का हैं16 3. द्रव्य प्रतिक्रमण - सम्यग्दृष्टि आत्मा के द्वारा लक्ष्मी/लब्धि आस्रवद्धार - (हिंसादि पाँचों आस्रवों का) प्रतिक्रमण आदि के निमित्त किया गया प्रतिक्रमण या निह्नवादि के द्वारा 2. मिथ्यात्व प्रतिक्रमण पुस्तकादि का न्यास द्रव्य प्रतिक्रमण हैं।2, अथवा भाव/ 3. कषाय (क्रोधादि कषायों का) प्रतिक्रमण उपयोगरहित प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण हैं । अथवा उद्गमादि 4. योग (अप्रशस्त-मन-वचन-काया) प्रतिक्रमण दोषयुक्त वसति, उपकरण, आहारादि का त्याग करना; अयोग्य 5. भाव प्रतिक्रमण - मन-वचन-काया से मिथ्यात्व की ओर अभिलाषा, उनमत्तता तथा संक्लेश परिणामवर्धक आहारादि गमन नहीं करने, दूसरों को प्रेरित नहीं करने और जानेवालों की का त्याग करना 'द्रव्य प्रतिक्रमण' हैं।53 अनुमोदना नहीं करने रुप हैं। 4. क्षेत्र प्रतिक्रमण - जिस नियत स्थान में प्रतिक्रमण आवश्यक नियुक्ति के अनुसार प्रतिक्रमण के भेद :- किया जाता है उसे क्षेत्र प्रतिक्रमण कहते हैं54 अथवा आवश्यक नियुक्ति में प्रकारान्तर से प्रतिक्रमण के निम्नानुसार पानी, कीचड, त्रस जीव, स्थावर जीवादि से व्याप्त प्रदेश पाँच भेद दर्शाये हैं।7 या रत्नत्रय की हानि की संभावनावाले प्रदेश का त्याग 1.मिथ्यात्व प्रतिक्रमण-मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से साधक करना 'क्षेत्र प्रतिक्रमण' हैं।55 की आत्मा को जाने-अनजाने में और अचानक लगने वाले मिथ्यात्व 5. काल प्रतिक्रमण - काल की अपेक्षा से जो प्रतिक्रमण किया (सुदेव-गुरु-धर्म में अश्रद्धान) दोषों का प्रतिक्रमण जाता है वह काल (कालिक) प्रतिक्रमण है। वह दो प्रकार का 2.असंयम प्रतिक्रमण - प्राणातिपातादि रुप हिंसादि का प्रतिक्रमण है - (क.) ध्रुव काल प्रतिक्रमण - भरत -एरावत क्षेत्रों में 3. कषाय प्रतिक्रमण प्रथम और अंतिम तीर्थंकर साधु-साध्वी के द्वारा चाहे अपराध 4. योग प्रतिक्रमण 45. क. पडिकमणं पडिचरणा, परिहरणा चारणा निअत्ती अ। 5. संसार प्रतिक्रमण - देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी - इन निंदा गरिहा सोही, पडिकमणं अट्ठहा होई ।। चतुर्गति प्रायोग्य भव के आयुबंध के हेतु रुप जान (आभोग) - अ.रा.पृ. 5/262, आवश्यक बृहदृत्ति-4/3 ख. तिलोय पन्न - 9/49 अनजान (अनाभोग), अचानक (सहसात्कार) महारम्भादि एवं मायादि 46. स्थानांग-5/3 सेवन का प्रतिक्रमण। 47. अ.रा.पृ. 5/265, आवश्यक नियुक्ति-32 प्रतिक्रमण -छः प्रकार से : 48. अ.रा.पृ. 5/264, स्थानांग ठाणां-6 स्थानांग सूत्र में इन छ: प्रकार के प्रतिक्रमण का निर्देश हैं18 49. अ.रा.पृ. 5/262, आवश्यक बृहदृवृत्ति4/4 1. उच्चार प्रतिक्रमण - वडीनीति (मल) आदि का विसर्जन 50. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- 3/116 करने के बाद ईर्यापथिकी का प्रतिक्रमण करना उच्चार प्रतिक्रमण 51. वही 52. अ.रा.पृ. 5/262 2. प्रस्त्रवण प्रतिक्रमण - लघुनीति (मूत्रत्याग) करने के बाद 53. अ.रा.पृ. 5/262, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश पृ. 3/116 ईर्यापथिकी का प्रतिक्रमण करना प्रस्रवण प्रतिक्रमण हैं। 54. अ.रा.पृ. 5/262 55. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश- 3/116 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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