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________________ [210]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन (1) द्रव्य कर्म/कर्म द्रव्य - कार्मण वर्गणा के अन्तःपाती ढंक देती है और ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनती हैं, वे ज्ञानावरणीय बन्धयोग्य, बद्ययमान (वर्तमान में जिसका बंध हो रहा कर्म कही जाती हैं।12 है), बद्ध (पूर्व संचित) एवं उदीरणा (अनुदित कर्मों को जैसे आँखों पर पट्टी बन्धी हो तो कुछ भी दिखाई नहीं उदय में लाकर क्षय करना) इन चारों प्रकार के कर्म पुद्गलों देता, ठीक उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा की निर्मल दृष्टि को को द्रव्य कर्म कहते हैं। आवृत्त कर देता है। ज्ञानदृष्टि पर पडा कर्मावरण आत्मा को स्वभाव (2) नो कर्म द्रव्य :- कृषिवलादि के द्वारा किया जाता से विभाव की ओर धकेल देता हैं, आत्मा के स्वाभाविक ज्ञानगण कृषिकर्मादि। को आवृत्त कर देते हैं।13 4. प्रयोग कर्म : जीव के द्वारा मन-वचन-काया के 15 योगों ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं: 1. मतिज्ञानावरण, के प्रयोगपूर्वक किया जानेवाला कर्म।' 2. श्रुतज्ञानावरण, 3. अवधिज्ञानावरण, 4. मनःपर्यय, मनःपर्यव अथवा समुदान कर्म - प्रयोग कर्म के द्वारा एकरुपतापूर्वक ग्रहण मनःपर्यायज्ञानावरण और 5. केवलज्ञानावरण । मतिज्ञानावरणीय कर्म की गई कार्मण वर्गणाओं का सम्यग् प्रकार से मूल-अत्तर मतिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को आच्छादित प्रकृत्ति, स्थिति-रस-प्रदेश बंध भेद की मर्यादा के द्वारा देशघाती करता है। श्रुतज्ञानावरणीय कर्म श्रुतज्ञान अर्थात् शास्त्रों अथवा शब्दों और सर्वोपघाती कर्मप्रकृतियों का स्पृष्ट-बद्ध निघत्त-निकाचित के पठन तथा श्रवण से होनेवाले अर्थज्ञान का निरोध करता है। अवस्थापूर्वक स्वीकार करने रुप कर्म को समुदान कर्म कहते अवधिज्ञानावरणीय कर्म अवधिज्ञान अर्थात् इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना होनेवाले रुपी द्रव्यों के ज्ञान को आवृत करता है। 6. इरियापथिक कर्म- जैन साधु के द्वारा प्रवचन, संघ, गच्छादि मन:पर्यायज्ञानावरणीय कर्म मनःपर्यायज्ञान अर्थात् इन्द्रिय और मन की कार्यों हेतु यतनापूर्वक गमनागमन करते समय निष्कषाय भावपूर्वक सहायता के बिना संज्ञी-समनस्क-मनवाले जीवों के मनोगत भावों जो कर्म होता है, वह इरियापथिक कर्म है।' को जानने वाले ज्ञान को आच्छादित करता है। केवलज्ञानावरणीय आधा कर्म - दुःखरुप भौतिक/वैषयिक निमित्तों को सुखरुप कर्म केवलज्ञान अर्थात् लोक के अतीत, वर्तमान एवं अनागत समस्त और सुखरुप व्रत-नियमादि को दुःखरुप मानने के निमित्त पदार्थों को युगपत् - एकसाथ जाननेवाले ज्ञान को आवत करता हैं ।।4 से आठों कर्मों का बंध-होना, 'आधा कर्म' कहलाता है। कर्मावरण के द्वारा ज्ञानशक्ति के आच्छादन के बावजूद आत्मा 8. तप कर्म - स्पृष्टादि से निकाचित तक के कर्मों की निर्जरा में ज्ञानांश तो अवश्य ही रहता है - आत्मा सर्वथा ज्ञानशून्य अथवा हेतु 12 प्रकार का तप करना। ज्ञान रहित नहीं बनता। तभी तो वह जीवरुप में रहता है। उसमें 9. कति कर्म - अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय को कर्मनिर्जरा चेतना व अनुभूति की क्षमता बनी रहती है। यदि ज्ञानावरणीय कर्म हेतु भावपूर्वक द्वादशावर्त वंदन कनरा । आत्मा को सर्वथा ज्ञानशून्य बना दे, तो जीव-अजीव में जड़-चेतन में फिर भेद ही नहीं रहेगा। जिस प्रकार काली घटनाओं से घटाटोप 10. भावकर्म - अबाधाकाल का उल्लंघन करके जीव के द्वारा नभ-मण्डल सूर्य के प्रकाश को आवृत्त तो करता है, पर इतना नहीं उदीरणा करके प्रदेश विपाक से भव-क्षेत्र-पुद्गल और कि रात और दिन का अन्तर ही न मालूम हो। अर्थात् प्रकाशांश जीवविपाकी कर्मप्रकृतियों के अनुभावारस को जो पुद्गल तो रहता ही है - ठीक उसी प्रकार प्रगाढ ज्ञानावरणीय कर्मों का देते हैं, वे भावकर्म हैं। उदय होने पर भी-आत्मा जड पदार्थों से अलग रह सके, अपना कर्म प्रकृति अर्थात् कर्मफल: स्वरुप कायम रख सके, उतनी चेतना, उतना ज्ञान तो उसका अवश्य जैन कर्मशास्त्र में कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ मानी गई ही अनावृत्त रहता है। हैं। ये प्रकृतियाँ प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनूकूल एवं प्रतिकूल ज्ञानावरणीय कर्म बन्ध के कारण:फल प्रदान करती हैं। इन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं : 1. ज्ञानावरण, जिन कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म के परमाणु आत्मा से संयोजित 2. दर्शनावरण, 3. वेनीय, 4. मोहनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र होकर ज्ञान शक्ति को कुंठित करते हैं, वे निम्न छः प्रकार के हैऔर 8. अन्तराय । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय - प्रदोष, निव, मार्क्सय, अन्तराय, आसादन और उपघात । ये चार घाती प्रकृतियाँ हैं। क्योंकि इनसे आत्मा के चार मूलगुणों (ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य) का घात होता है। शेष चार अघाती प्रदोष (प्रद्वेष) - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों पर प्रकृतियाँ हैं क्योंकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करती। द्वेष रखना, तत्त्वज्ञान का निरुपण/वर्णवाद करते समय मन ही मन इतना ही नहीं, ये आत्मा को ऐसा रुप प्रदान करती हैं जो उसका 7. अ.रा.पृ. 5/46 निजी नहीं अपितु पौद्गलिक-भौतिक हैं।" 8. अ.रा.पृ. 3/244, 7/452 1. ज्ञानावरणीय कर्म: 9. अ.रा.पृ. 2/655 पदार्थ को जानना ज्ञान है। जो कर्म आत्मा की ज्ञानशक्ति 10. अ.रा.पृ. 3/258, कर्मग्रंथ-1/3 11. अ.रा.पृ. 3/247-48 को आवृत्त करें, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र 12. अ.रा.पृ. 4/1995; 3/258 कोश के अनुसार ज्ञानावरण अर्थात् पदार्थ के स्वरुप के विशेष 13. अ.रा.पृ. 3/259; 4/1995-96 बोध की प्राप्ति में मत्यादि पाँचो ज्ञान को अपने प्रभाव से आच्छादित ___14. अ.रा.पृ. 4/259; 4/1995-96 करनेवाला आवरण। जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को ढंक 15. अ.रा.पृ. 4/1996 देते हैं, उसी प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा की जान शक्ति को 16. तत्त्वार्थ सूत्र-6/10; तत्त्वार्थ राजवातिक-6/10; सर्वार्थ सिद्धि-6/10 कर्मविपाक-पृ. 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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