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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [353] 6. भीरु+7 (भीरु): श्रावक पाप भीरु होता है अत: कारण/प्रसंग उपस्थित होने पर भी निःशंक रुप से हिंसा, चोरी आदि अकार्यों में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि वह अपयश, कलङ्ग, निजकुलमालिन्य, नरकादि दुर्गति आदि से डरता है जिससे संभावित विघ्न-बाधाओं से भी बच जाता हैं। अतः पापभीरु श्रावक ही धर्मपालन के योग्य हैं। 7. असढ48 (अशठ) : श्रावक अशठ अर्थात् मायारहित, राग-द्वेष रहित, भ्रान्तिरहित, आलस्य रहित, प्रपञ्च रहित, परवञ्चनरहित और सरल तथा इन्द्रियों के विषयों के प्रति मन का निग्रह करनेवाला (रोकनेवाला) होता है। अशठ श्रावक सभी के विश्वास का पात्र प्रशंसनीय, मन-वचनकाय की एकतायुक्त, स्वचितरञ्जक एवं भावपूर्वक धर्मानुष्ठान में प्रवृत्तिवान् होता हैं। अतः 'अशठ' आत्मा ही धर्मयोग्य होता हैं। 8. सुदक्खिण (सुदाक्षिण्य) : श्रावक सुदाक्षिण्य अर्थात् धीर-गंभीर, प्रकृति से ही दयालु और परोपकारी होता है तथापि किसी को पापकार्य में सहयोग नहीं करता। स्वयं के कार्य का त्याग करके भी दूसरों का उपकार करने में तत्पर होता है जिससे वह सर्व लोक में अलङ्घनीय (ग्राह्य) वचन युक्त और धार्मिक लोगों के लिए अनुकरणीय होता हैं। जिससे लोग इच्छा नहीं होने पर भी अनायास ही धर्म की आराधना करते हैं। 9. लज्जालु (लज्जालु) : श्रावक लज्जालु अर्थात् अकार्य (नहीं करने योग्य, पाप कार्य) का त्यागी, या अकार्य में शंकायुक्त होता हैं। वह अकृत्यसेवन की बात से भी लज्जित होता है और स्वयं के द्वारा अङ्गीकृत सुकृत का त्याग नहीं करता।50 10. दयालु (दयालु) : श्रावक जीवदया पालक, जीव रक्षक दुःखी, दरिद्र और धर्म रहित प्राणियों के प्रति भी दयावान् और दुःखी जीवों की दुःख से मुक्ति हो - एसी भावनायुक्त होता हैं। क्योंकि धर्म का मूल दया हैं। जिनेन्द्र प्रवचन और तदुक्त समस्त अनुष्ठान जीवदया के पालन के लिए हैं। 11. मज्झत्थ-मध्यस्थ : अतितीव्र राग, द्वेष और मोह के शांत होने से यथावस्थित वस्तु के स्वरुप का विचार करना, राग-द्वेष रहित होकर समस्त जीवों के प्रति समभाव होना, श्रावक का 'मध्यस्थ' गुण हैं। मध्यस्थ श्रावक किसी के भी दोषों को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि दोषमात्र लोकविरुद्ध होने से धर्म की हानि की संभावना होती हैं। रागी, दुष्ट, मूढ और कदाग्रही - ये चार धर्मोपदेश हेतु अपात्र हैं, अतः धर्म प्राप्ति एवं धर्म पालन तथा धर्मोपदेश हेतु 'मध्यस्थ' गुण आवश्यक हैं।52 12. सौम्म (सौम्य-सौम्य दृष्टि) : कषायरहित शांत दृष्टि (सौम्य दृष्टि) होने से श्रावक सर्व लोगों के मन को आनंददायक, शीतल, सुखपूर्वक दर्शन योग्य और दर्शनमात्र से लोक में प्रीति उत्पन्न करनेवाला होता हैं । 13. गुणरागि (गुणरागी) : श्रावक स्थैर्य, गाम्भीर्यादि गुणों का रागी होता है, गुणों का पक्षपाती होता है, गुणों को प्राप्त करने हेतु प्रयत्न करता है, स्वयं के द्वारा प्राप्त सम्यग्दर्शन, विरति आदि गुणों का अतिचार दोषों से मलिन नहीं करता तथा गुणरहित (दोषी) आत्मा की भी निंदा नहीं करता, क्योंकि सत् या असत् परदोष कथन से वैर बढ़ता है और सुनने से बुद्धि कुबुद्धि होती हैं । अतः श्रावक दोषकथन और दोषश्रवण सेदूर रहकर गुणरागी होता हैं।54 14. (क) सक्कह (सत्कथक) : श्रावक अज्ञान का नाश करने वाली, सद्-असत् वस्तु की परिज्ञायक, तीर्थंकर-गणधर-और महर्षियों की चरित्र कथा कहनेवाला अर्थात् 'सत्कथक' होता है। तथा अज्ञान, अविवेक, आसक्ति, चित्तकालुष्य आदि दोषयुक्त विकथा का त्याग करता है । (ख) सुपक्खजुत्त (सुपक्षयुक्त) : श्रावक आज्ञांकित, धर्मी, सुशील, सदाचारी, धर्मकार्यों में सहायक, अनुकूल परिवार युक्त होता है जिससे उसे धर्माराधना में अन्तराय नहीं होता। 15. सुदीहदंशी (सुदीर्धदर्शिन्) : श्रावक किसी भी कार्य को करने से पहले पूर्वापर परिणाम का पूर्ण विचार करके कार्य करता है। इस प्रकार श्रावक सुदीर्घदर्शी होने से उसके द्वारा किया गया कार्य अंत में सुन्दर, भविष्य के लिए लाभदायक, प्रचुरलाभदायी, इच्छित सिद्धि की प्राप्ति करनेवाला, अल्पक्लेशवाला या क्लेशरहित और प्रशंसनीय होता है। अतः धर्म का भी सुदीर्धदर्शी श्रावक ही अधिकारी हैं।57 16. विसेसण्णु (विशेषज्ञ) : विशेषज्ञ श्रावक पदार्थ के यथावस्थित गुण और दोष का पक्षपातरहित ज्ञान करके उन्हें यथायोग्य विवेचनपूर्वक कहने में समर्थ होता है अतः वही उत्तमधर्म के लिए योग्य होता हैं।58 17. वुड्डाणुग (वृद्धानुग) : गुरुजन अर्थात् पूज्य की बुद्धिपूर्वक तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, पर्यायवृद्ध, वयोवृद्ध आदि अनुभवियों की सेवा एवं उनकी हितशिक्षा का अनुसरण करनेवाला 'वृद्धानुग' कहलाता हैं। 'वृद्धानुग' को विपत्ति भी संपत्तिदायक होती हैं। अतः श्रावक 'वृद्धानुग' होता हैं।" 18. विणीय (विनीत) : अरिहंत, सिद्ध, आचार्य आदि का, योग्य गुरुजनों का, बड़ों का विनय करने वाला तथा उनके सामने मन-वचन-काय से नम्रतापूर्वक व्यवहार करनेवाला 'विनीत' कहलाता हैं।60 ____47. अ.रा.पृ. 5/1590; धर्मरत्र प्रकरण-13 स्थानांग-4/2 48. अ.रा.पृ. 1/835; धर्मसंग्रह प्रकरण का गुजराती भाषांतर पृ.76 49. अ.रा.प्र. 7/957 50. अ.रा.पृ. 6/598 51. अ.रा.पृ. 4/2457 52. अ.रा.पृ. 6/64 53. अ.रा.पृ. 7/1165 54. अ.रा.पृ. 3/929-30 55. अ.रा.पृ. 7/261-62 56. अ.रा.पृ. 7/960 57. अ.रा.पृ. 7/957 58. अ.रा.पृ. 6/1265 59. अ.रा.पृ. 6/1414 60. अ.रा.पृ. 6/1186 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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